डियर जिंदगी : कैसे बनते हैं 'मन'
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डियर जिंदगी : कैसे बनते हैं 'मन'

हम जैसे हैं, उसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका अंतर्मन की है. जिन चीजों से हमारे अंतर्मन का निर्माण होता है, उनके स्‍वाद, रुचि और प्रभाव हमारे मन पर न पड़ें यह संभव नहीं है. 

डियर जिंदगी : कैसे बनते हैं 'मन'

सब तरफ शोर है. चीखते वाहनों, आवाजों का आतंक. खामोशी की तलाश मानो रॉकेट साइंस जैसी चीज हो गई है जो कहीं नजर नहीं आती. इतने शोर में उसे तलाशना जो मन में कहीं गहराई में है, बहुत नहीं तो थोड़ा तो मुश्किल है ही. हमारे भीतर जो चल रहा है, उसे महसूस करना बहुत मुश्किल काम नहीं है, बशर्ते सुनने का समय, अहसास की भावना प्रबल हो. हम हैं कहीं और 'डूबे' कहीं और हैं. बाहर जो दिख रहा है, असल में वह केवल मन के आइसबर्ग का बहुत छोटा-सा हिस्‍सा है. इसे 'टिप ऑफ द आइसबर्ग' से समझ सकते हैं.

हम जैसे हैं, उसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका अंतर्मन की है. जिन चीजों से हमारे अंतर्मन का निर्माण होता है, उनके स्‍वाद, रुचि और प्रभाव हमारे मन पर न पड़ें यह संभव नहीं है. तैयार भोजन के स्‍वाद के पीछे क्‍या है! उसके स्‍वाद के मूल में तो वही मसाले हैं, जो भोजन तैयार करने के लिए इस्‍तेमाल हुए थे. ठीक इसी तरह हमारे मन का निर्माण हो रहा है.

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हमें जो मन मिल रहा है, असल में वह तैयार मन है. प्रशिक्षित मन है. जिसकी जितनी आयु है, उसका मन उतना ही मजबूत है. कंक्रीट के घर जैसा. ऐसा मन जो लंबे समय से विभिन्‍न अनुभवों, दूसरों की धारणा के सानिध्‍य में रहने से खास तरह से 'पक' गया है. चीज़ों को लेकर उसका रवैया तय हो गया है. मन अपने प्रशिक्षण के आधार पर पूर्वाग्रह का निर्माण कर लेता है. उसके बाद सारी जिंदगी वह आपको इन्‍हीं पूर्वाग्रहों के आधार पर चलता रहता है. इसे सामान्‍य बोलचाल की भाषा में आप बायस (BIAS) होना भी कहते हैं. यह एक प्रक्रिया है, निरंतर चलने वाली.

फ्रायड जैसे दुनिया के अनेक मनोवैज्ञानिक इस पर अपनी राय विस्‍तार से रख चुके हैं. मन का निर्माण हमारे व्‍यक्‍तित्‍व के अनुसार हो यह जरूरी नहीं, लेकिन जैसे-जैसे हम उम्र के पड़ाव को पार करते जाते हैं, व्‍यक्तित्‍व पर मन के 'बायस' का प्रभाव गहराता जाता है. हमारे निर्णय, सोच-विचार की क्षमता सब पर धीरे-धीरे पूर्वाग्र‍ह (बायस) का असर गहराने लगता है.

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परिवार, रिश्‍तों में जो दरारें दिख रही हैं, उनमें सबसे अधिक योगदान हमारे पूर्वाग्रह का है. हम चीजों के बारे में राय बनाने के इतने अभ्‍यस्‍त हो चले हैं कि अनुभव से अधिक वजन हम पहले से बनाई राय को दे रहे हैं.

इसे सरल उदाहरण से समझते हैं. हम गाड़ी की सर्विसिंग नहीं कर रहे हैं. लेकिन उसमें आ रही समस्‍या पर घंटों विमर्श कर रहे हैं. उसके कारण होने वाली दिक्‍कतों से लड़ रहे हैं. ठीक यही हम अपने मन यानी अपने साथ कर रहे हैं. हमें समझना होगा कि मन को परेशानी कहां से आ रही है. रिश्‍तों में आ रहे भूकंप का असली केंद्र कहां है? बिना केंद्र को समझे हम असली कारणों तक नहीं पहुंच पाएंगे. इसलिए यह जरूरी है कि मन तक पहुंचने वाले 'कंटेंट' में फि‍ल्‍टर लगाए जाएं.

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जो चीजें हमारे दिमाग/मन तक पहुंच रही हैं, उनका फि‍ल्‍टर होना बहुत जरूरी है. एक शांत, उदार, विवेकशील मन ही वैसे निर्णय ले सकता है, जो किसी रिश्‍ते की बुनियाद हैं. शांति किसी जंगल/हिल स्‍टेशन में  नहीं है, वह हमारे भीतर है, लेकिन बाहर के शोर में राह भटक गई है. इसलिए मन के उन रास्‍तों से मलबा हटाइए जो आपके उससे संवाद में बाधा बन रहे हैं. शायर सईदुद्दीन ने कितनी खूबसूरत बात कही है... 

'शोर कम करो 
आहिस्ता बोलो 
ताकि तुम्हारी आवाज़ 
कम से कम उन तक तो पहुंच जाए 
जो तुम्हें सुनना चाहते हैं.'

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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