पहले खर्च करने के लिए दस बार उसकी जरूरत का टेस्ट किया जाता था. उसके बाद जाकर कहीं उस इच्छा को लेकर बाजार तक जाया जाता था. उसके बाद भी अगर हमारे बजट में वह 'इच्छा' फिट नहीं बैठती तो उसे अक्सर खारिज कर दिया जाता था. उसके बाद कभी कभार ही उस पर बात होती थी.
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इन दिनों हमारी जरूरतें कहां से तय होती हैं. इसका कोई एक सटीक उत्तर नहीं है, लेकिन जो सटीक के सबसे समीप है, वह है- विज्ञापन. गुजरे जमाने की बात नहीं है, जब हमें पहले किसी चीज की जरूरत महसूस होती थी, फिर उसके बाद उसकी खोज होती थी. बाजार में!
खर्च से पहले दस बार उसकी जरूरत का टेस्ट किया जाता था. उसके बाद जाकर कहीं उस इच्छा को लेकर बाजार तक जाया जाता था. उसके बाद भी अगर हमारे बजट में वह 'इच्छा' फिट नहीं बैठती तो उसे अक्सर खारिज कर दिया जाता था. उसके बाद कभी कभार ही उस पर बात होती थी.
घर पर 'बड़े' तय कर लेते और बाकी सब संतोष से आगे बढ़ जाते. बच्चे कुछ दिन जिद करते, लेकिन बड़ों को 'न' का हुनर मालूम था. इधर एक दशक से चीजें बदलने लगी हैं. धीरे-धीरे अब बाजार हमारे घर का मुखिया बन बैठा है. हमारे साथ उसका रिश्ता उलट गया है.
अब बाजार तय कर रहा है कि हमें क्या चाहिए और उसकी तैयार की गई ‘इच्छा’ हमें पता चले बिना ही हमारी जरूरत बन जाती है. उसके बाद उस ‘इच्छा’ के लिए हम चिंता में जुट जाते हैं. हम में से अधिकांश को 2007 से 2008 का वह मुश्किल वक्त याद ही होगा. जब पूरी दुनिया आर्थिक मंदी की चपेट में थी. अमेरिका में सब-प्राइम संकट का संकट एक बार जो गहराना शुरू हुआ तो उसने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया. जरा ध्यान देंगे, अतीत के आईने में झांकेंगे तो पता चलेगा कि वह संकट मोटे तौर पर भारत को बस छूते हुए गुजर गया था.
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यह हादसा कुछ ऐसे ही टल गया था, जैसे हमलावर की पिस्तौल से निकली गोलियां किसी के शरीर में लगने की जगह बस छूते हुए गुजर जाएं. इसका अर्थ यह नहीं कि खतरा कम था, बस किसी तरह हादसा टल गया.
लेकिन इस बार जब आंतरिक कारणों से हमारी अर्थव्यवस्था पर संकट दिख रहा है और वैश्विक स्तर पर भी हालात गंभीर दिख रहे हैं. करोड़ों भारतीय अपनी जिस जीवनशैली के कारण गंभीर खतरे से बाल-बाल बच गए थे, अब वह खुद अपनी ‘बदली हुई जीवनशैली’ के कारण संकट में फंस गए हैं.
हमने कर्ज की शुरुआत अपनी हैसियत से घर उधार पर लेने से की. यहां तक तो ठीक था, लेकिन उसके बाद हम उधारी पर कार, जूते यहां तक कि मोजे भी खरीदने लगे. क्रेडिट कार्ड पर बंट रहे लोन को हमने खैरात मान लिया, जबकि वह सूदखोर बनिए जैसा ही है. रूप बदल लेने से चरित्र नहीं बदलता.
उसके बाद तो मानो हमें कर्ज की लत ही लग गई. और लत तो वह बला है, जो एक बार लग जाए तो उससे मुक्ति असंभव सी होती है. क्रेडिट कार्ड से कर्ज का शुरू हुआ खेल अब भारतीय जीवनशैली और मासिक बजट का हिस्सा बन गया है.
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बचत, भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलभूत गुण था, जो हर संकट में नागरिकों का सबसे बड़ा मित्र हुआ करता था. उन्हें मुश्किल दिनों में परेशानी, आत्महत्या जैसे खतरों से बचाया. वह गुण अब भारतीय जीवन से नदारद हो गया है.
हम धीरे धीरे ‘हम खर्च आधारित ‘ समाज बन गए हैं.
यह भारत जैसे असंगठित, अनियमित रोजगार आधारित समाज में खतरनाक स्थिति है. जहां करोड़ों लोग दैनिक आधार पर वेतन लेते हैं. खेतिहर मजदूर हैं और ऐसे सेक्टर में काम कर रहे हैं, जहां कोई जॉब गारंटी नहीं है. लेकिन दो वेतन मिलते ही कर्ज की ओर कूच कर जाते हैं.
हमारा निरंतर बाजार के अनुकूल आचरण करते जाना, बचत के बुनियादी सिद्धांतों को छोड़कर हाथ धोकर खर्च करने वाली शैली पर उतर जाना बेहद खतरनाक है.
आप सोच रहे होंगे कि 'डियर जिंदगी' का अर्थव्यवस्था से कैसा रिश्ता. मैं जीवन से 'अर्थ' पर कैसे चला आया, तो यह केवल इसलिए क्योंकि इन दिनों एक बार फिर दुनिया लगभग एक दशक पहले वाली स्थितियों की ओर जा रही है. ऐसे में जीवन पर सबसे बड़ा खतरा उन चीजों से ही आएगा, जिनसे आप गहराई से जुड़े हैं. इसलिए घर परिवार, धन का प्रबंधन, जीवन दर्शन के एकदम निकट आ गया है. पिछले संकट के समय भारतीय समाज कहीं अधिक एकजुट, संयुक्त परिवार के बंधन में गूंथा हुआ था लेकिन अब यह बंधन कमजोर हो चला है, इसलिए कहीं अधिक सावधानी की जरूरत है.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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