सोशल मीडिया पर संबंध उनके लिए हैं, जिनके पास शायद असली जिंदगी में रिश्ते, दोस्तों की कमी है. उनके लिए नहीं जो इसकी कीमत पर असली संबंधों को ही तबाह किए जा रहे हैं.
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जो आपको सबसे प्रिय है, उसकी जगह कोई और ले सकता है! यह सोचते ही माथे पर बल पड़ जाते हैं. ब्लडप्रेशर बढ़ने लगता है. आपके भीतर जेम्सबांड की आत्मा प्रवेश कर जाती है. सारी क्षमता, चेतना तीसरे को तलाशने में जुट जाती है.
जीवन के मोड़ पहाड़ से अधिक खतरनाक, तीखे होते हैं. जिस तरह पर्वत के तीखे मोड़ पार किए बिना सुहानी मंजिल तक नहीं पहुंचा जा सकता, वैसे ही जिंदगी का सफर ‘रिश्तों’ के तनाव को सहेजे बिना संभव नहीं. हम किसी को बदल नहीं सकते, यह बात हम जितनी देर से समझते हैं, जीवन का सुख उतना ही हमसे भगता जाता है. हम एक-दूसरे की ऐसी आदतों में उलझे हैं, जो एक-दूसरे को नहीं भातीं. तभी तकनीक हमारी परीक्षा लेने निजी जिंदगी में दाखिल हो गई. गैजेट, मोबाइल अब शरीर से आगे आत्मा के नजदीक पहुंचे से लगते हैं.
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इस समय भारत, विदेश में मनुष्यता, रिश्तों के संसार को सबसे बड़ी चुनौती उस मोबाइल से मिल रही है, जिसे हमने सुविधा के नाम पर अनिवार्य कर दिया है, जबकि मोबाइल ने जिंदगी में गुणवत्ता के नाम पर हमें कुछ नहीं दिया. हां, उसने हमें तेजी जरूर दी. लेकिन यह तेजी कुछ ऐसी है कि हम गड्ढों भरी सड़क पर सौ की स्पीड से कार दौड़ाने लगें. भारत में मोबाइल रिश्तों के बीच खतरनाक मोड़ का काम कर रहा है.
मोबाइल असल में दो लोगों के बीच मौजूद रहने वाला वह ‘तीसरा’ बन गया है, जिसकी अभिलाषा में दस बाई बीस के दोनों लोग हैं. नोएडा के सबसे बड़े शॉपिंग मॉल से एक लड़की ने इसलिए सुसाइड कर ली, क्योंकि उसका दोस्त उसे ‘इग्नोर’ कर रहा था. भारत में ऐसे 'शॉर्ट टेंपर्ड’ बिहेवियर की समस्या हर दिन बड़ी होती जा रही है.
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मोबाइल से होने वाली बीमारियां अलग बहस का विषय हैं. भ्रम इतने और ऐसे रचे गए हैं कि सच के छनने की उम्मीद बासी हो चली है.
अब तक हम नोमोफोबिया (जिसमें हमें महसूस होता रहता है कि मोबाइल बज तो नहीं रहा) और टेक्स्टाफ्रीनिया (जिसमें हमेशा नोटिफिकेशन, एसएमएस मिस होने की चिंता सताती रहती है) की बात करते रहे हैं. लेकिन मोबाइल के खतरे कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ रहे हैं.
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वह जो साक्षर नहीं हैं. तकनीक को नहीं समझते. उसके बाद भी निजी तस्वीरों से मोबाइल का गला भरते रहते हैं, उनके लिए ‘ऑटो सिंक ऑप्शन’ जानलेवा साबित हो रहा है.
कुछ वक्त पहले ही आगरा में एक ऐसे ही मामले में एक पत्नी ने पति के खिलाफ ही हनीमून के दौरान अंतरंग तस्वीरें फेसबुक पर डालने का मामला दर्ज करा दिया था. साइबर क्राइम टीम की जांच में पता चला कि उनके मोबाइल में ‘ऑटो सिंक ऑप्शन’ ऑन था, जिसकी उन्हें जानकारी नहीं थी. इसके कारण ही फेसबुक पर अंतरंग तस्वीरें शेयर हो गईं.
अब इसमें दोष मोबाइल फोन, फेसबुक या हर चीज की तस्वीर लेने की आदत में से किसका है. इस पर अंतहीन बहस हो सकती है, लेकिन इस बारे में विवाद की गुंजाइश कम होगी कि हम हर चीज के दीवाने आसानी से हो जाते हैं, जो फैशन में हो. अब उससे हमारा घर जले, रिश्ते तबाह हों, तो उसकी जिम्मेदारी किसी और की ओर धकेल दी जाएगी.
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अमेरिका, ब्रिटेन में मोबाइल के जीवन पर हुए शोध का सारांश केवल इतना है कि मोबाइल एक डिवाइस (उपकारण) से ज्यादा कुछ नहीं. इसके लिए रातों की नींद, दिन का चैन मत गंवाइए. रात को सोते वक्त इससे दूर रहिए. अलार्म के लिए घड़ी का उपयोग कीजिए. वक्त देखने के लिए भी यही काम किया जा सकता है.
और सबसे अधिक जरूरी बात. अपनों से मिलकर संवाद कीजिए. पड़ोसी, दोस्तों से मोबाइल पर घंटों बतियाने की जगह आमने-सामने दस मिनट बात कीजिए. फेसबुक पर ‘लाइक डिफिशियंसी’ से बचिए. अपनी पोस्ट करके वहां से निकलिए. निजी तस्वीरों की ‘टीआरपी’ की खोज में रिश्तों को दांव पर मत लगाइए.
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सोशल मीडिया पर संबंध उनके लिए हैं, जिनके पास शायद असली जिंदगी में रिश्ते, दोस्तों की कमी है. उनके लिए नहीं जो इसकी कीमत पर असली संबंधों को ही तबाह किए जा रहे हैं.
इसलिए मोबाइल, तकनीक को संबंधों की दीवार बनने से बचाइए. यह आपके इशारे पर चलने वाली चीजें हैं, इन्हें आत्मीयता, स्नेह की रुकावट मत बनने दीजिए. इन्हें दो के बीच तीसरे के रूप में दाखिल होने से रोककर ही जिंदगी को असली आनंद की ओर ले जाना संभव है.
(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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