किसी को सुनने में बहुत एकाग्रता लगती है. पूरे मनोयोग के साथ शब्दों को सुनने की जरूरत होती है. तब कहीं जाकर हम किसी को सही अर्थ में सुन पाते हैं. लेकिन असल जिंदगी में होता इसका उल्टा ही है.
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'किसी को सुनना कैसा होता है/किसी को पढ़ना कैसा होता है. किसी के साथ होना कैसा होता है/किसी के बिना कैसा होता है.'
डियर जिंदगी के सौ से अधिक संस्करण होने के बाद मुझे महसूस हो रहा है कि मैं बहुत सी उन आवाजों/मनोभावों को सुन रहा हूं. जिन तक मैं पहले नहीं पहुंच रहा था. यह एक मंच है, जहां मुझसे अनेक 'मन' अपनी बात कह रहे हैं. जहां मैं उन बातों को समझने की कोशिश कर रहा हूं, जिनकी ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है. मैं जीवन की उस पगडंडी की ओर जा रहा हूं, जिस ओर बरसों से 'प्रवेश निषेध' लिखा हुआ था.
जिंदगी रास्तों से उतनी रोशन नहीं होती, जितनी पगडंडी से होती है. रास्ता दूसरों का होता है, जिस पर हम चलते हैं, जबकि पगडंडी पर हर कदम को अपने हिस्से की रोशनी तलाशनी होती है.
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किसी को सुनने में बहुत एकाग्रता लगती है. पूरे मनोयोग के साथ शब्दों को सुनने की जरूरत होती है. तब कहीं जाकर हम किसी को सही अर्थ में सुन पाते हैं. लेकिन असल जिंदगी में होता इसका उल्टा ही है. हम हर चीज की जल्दी में होते हैं. किसी तरह से सुनने को खत्म करना चाहते हैं.
हम बस, इतना ही चाहते हैं कि खुद कुछ कहें, वह कहें, जिसके बारे में हम जानते हैं. हम बोलें और लोग सुनें. लेकिन हम सुनना नहीं चाहते. किसी को नहीं.
जिस गति से समाज में एक-दूसरे के प्रति असंवेदनशीलता बढ़ रही है, वह जल्द ही हमें एक हिंसक समाज की ओर धकेल रही है. हम सुन कम रहे हैं. हम पढ़ कम रहे हैं. देख कम रहे हैं. बस बोल रहे हैं. नाराज हो रहे हैं. एक-दूसरे के प्रति हिंसक हो रहे हैं. यह हिंसा विश्वास की कमी से हर दिन बढ़ रही है. लोगों से पूछिए कि वह ऐसे क्यों हो रहे हैं, भला. क्यों गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं, तो जवाब आएगा, समय नहीं है. व्यस्तता के चक्र में उलझे हुए हैं.
व्यस्त लोगों से मिलिए तो उनके पास समय ही समय है. मैंने कभी किसी व्यस्त को समय की कमी की शिकायत करते नहीं पाया. वह समय निकाल ही लेता है. उसके पास समय कभी कम नहीं होता. समय बस, उसके पास नहीं होता, जो उसके पीछे दौड़ता है. उसे पकड़ने की कोशिश में लगा रहता है. जो समय को अपना सखा मान लेता है. उसके साथ कदम मिलाकर चलने लगता है, उसके लिए समय कभी कम नहीं पड़ता है.
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जिसके पास समय है, वह ध्यान से सुनेगा. जो ध्यान से सुनेगा, उसके संबंध में ताजगी होगी. जीवन में प्रसन्नता होगी. जो सुन ही नहीं सकेगा, ठीक से उसका क्या! उसके पास क्या? उसकी दुनिया कैसी होगी. सहज समझा जा सकता है कि उसके जीवन में तनाव अधिक होगा. उसके भीतर जो घट रहा है, उसे कौन संभालेगा.
हमारे जीवन का सुकून, हमारे संबंधों की ताजगी व्हाट्सअप और कथित 'सोशल' मीडिया ले उड़े हैं. इन्होंने हमारी सुनने, समझने की शक्ति को बुरी तरह प्रभावित किया है. हम एक बात को सुनते हुए दूसरी पर दौड़ जाते हैं. और दूसरी बात को सुनते हुए तीसरी पर चले जाते हैं.
किसी को सुनने के लिए उतनी ही एकाग्रता और प्रेम चाहिए जितनी एक डॉक्टर को उस समय होती है, जब वह ऑपरेशन थिएटर में होता है. जैसे-जैसे हमारी एकाग्रता और प्रेम में कमी आएगी, हमारी एक-दूसरे को सुनने, समझने की क्षमता नीचे की ओर जाती जाएगी.
इसलिए, आगे से जब किसी को सुनना हो. तो यह जरूर ध्यान रखें कि आप सुने सुन रहे हैं या नहीं.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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