बाढ़ का पानी अगर शहर में एक बार घुस जाए तो आसानी से कहां निकलता है... और असली परेशानी तो पानी निकलने के बाद शुरू होती है!
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जो पत्थर नदी की यात्रा में शामिल नहीं होते. एक तरफ किनारे में जमा होते जाते हैं. जो पत्थर नदी के सफर में शामिल नहीं हैं, लेकिन उसके साथ संवाद में हैं, नदी के साथ भीगते रहते हैं, उनमें काई (MOSS) नहीं जमती. लेकिन जो पत्थर कहीं पीछे छूट जाते हैं, किसी कोने में फंस जाते हैं, धीरे-धीरे उन पर काई जमने लगती है.
कई बार काई पर जरा सी लापरवाही से पड़ा पैर हमें मुंह के बल पटक देता है. दुर्घटना का कारण बन जाता है. यह तो हुई बाहर की बात जो सब देख रहे हैं, जिससे बचाने के लिए लोग चीखते हुए आपको सजग भी कर देते हैं. समझा देते हैं.
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आप उनकी बात सुनकर उससे बच भी सकते हैं. लेकिन दुखी, परेशान मन की ओर अक्सर हमारा ध्यान नहीं जाता. जहां अनजाने में दुख की परतें जमती रहती हैं. उन पर अकेलेपन, उदासी की छाया इतनी इतनी गहरी हो जाती है कि धीरे-धीरे काई बन जाती है. हमारा मन कब उन पर फिसल जाएगा कहना मुश्किल है!
इसे समझने के लिए कुछ आसान मिसाल लेते हैं...
एक दिन आपको पता चलता है कि आपका कोई दोस्त डिप्रेशन का शिकार है. वह अचानक बीमार पड़ा तो पड़ता ही गया. आपका भाई जिसके पास सफल करियर है. रुतबा है. पैसा है. एक दिन अपनी पत्नी, बच्चों को अकेला छोड़कर दुनिया से निकलने का 'शॉर्टकट' चुन लेता है. जिसे हम आत्महत्या के नाम से जानते हैं.
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एक रोज आपको एक ऐसे दंपति की कहानी पता चलती है, जो बाहर से बेहद प्रसन्न दिख रहे थे, लेकिन अचानक आपको उनके तलाक की अर्जी की कॉपी मिल जाती है. इन सबके बाद हम चीजों को ठीक करने के लिए दौड़ते हैं, लेकिन बाढ़ का पानी अगर शहर में एक बार घुस जाए तो आसानी से कहां निकलता है. और असली परेशानी तो पानी निकलने के बाद शुरू होती है!
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रिश्तों के बारे में आजकल अक्सर यही देखने को मिल रहा है. हमें बाढ़ का पानी घुसने के बाद ही चीजों के बिगड़ने का अंदाजा लगता है. पहले तो हम संकेत को अक्सर 'इग्नोर' करते रहते हैं. उसे मानने से इंकार करते रहते हैं. असल में दुख को आने से पहले स्वीकार ही नहीं करना चाहते.
हम मानना ही नहीं चाहते कि 'हमारे' बीच भी कुछ गड़बड़ हो सकता है. हमारे बीच भी काई जम गई है. क्योंकि उस रिश्ते पर स्नेह की बारिश होनी बंद हो गई. रिश्तों में स्नेहन बंद हो गया.
प्रेम की गली संकरी जरूर मानी गई है, फिर भी कम से कम दो लोगों के लिए उसमें भरपूर जगह होती है. पति-पत्नी के बीच बढ़ता तनाव, एक-दूसरे के बीच कम होती जगह, जीवन में 'काई' के प्रवेश की पहली कड़ी है.
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हमें कुछ नहीं करना बस इतना ध्यान रखना है कि 'काई' कैसे जमती है! नदी के स्नेह से वंचित पत्थर 'काई' की ओर मुड़ जाते हैं. रिश्तों में तनाव, मनमुटाव भी ऐसी ही कागजी नाराजगी को अनसुना करने का 'फल' है.
एक-दूसरे को 'पढ़ने' की जगह समझने की विनम्र कोशिश करें. साथ को साथ दें. रिश्तों को स्नेह दें. फिर देखते हैं, कितना हौसला बचता है, 'काई'में. एक दूजे को समझना इतना मुश्किल भी नहीं.
फिराक गोरखपुरी इस बात को कितनी खूबसूरती से कहते हैं...
'बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं.'
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