हम अप्रिय चीजों में ऐसे उलझे रहते हैं कि जीवन में तनाव, बुरी यादों का अनजाने में संग्रह करते रहते हैं. अप्रिय की जुगाली एक लत की तरह मन को अस्वस्थ, खोखला करती रहती है
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हम सबको याद क्या रहता है. सबसे बड़ा सुख, रोमांच, अनूठा अनुभव या ऐसा कुछ जिसने हमारा मन खट्टा कर दिया हो! पहली नजर में आपको लग सकता है कि आप अपने सुख को नहीं भूलते, जबकि सच यही है. सुख की एक सीमा है. उसकी उम्र बहुत छोटी है. आपकी समझ से भी छोटी!
दूसरी ओर बुरा, खराब, खट्टा अनुभव हमेशा मन पर छाया रहता है. अप्रिय का घाव मन में किसी तीर की तरह समाया रहता है. खराब अनुभव हमेशा दिमाग में जुगनू की तरह मंडराते रहते हैं. वह हमारे मन का स्थाई भाव नहीं होते, लेकिन उनकी निरंतरता से मन स्वस्थ नहीं रहता. मन में विकार को एक कोना मिल जाता है. अपना ठिया बनाने के लिए. हम सब अपना स्वभाव अच्छे से जानते हैं. हमें सबकुछ बर्दाश्त है लेकिन कहीं ज़रा सा भी कुछ बना लें, तो उसे हटाना पसंद नहीं करते. इसे नहीं हटाने की आदत के कारण दिमाग में बुरे अनुभव, घटनाएं एक ऐसा घाव बना लेती हैं, जिनकी न तो सफाई हो पाती है, न ही उनसे मवाद रिसना बंद होता है.
आहिस्ता-आहिस्ता यह मवाद चेतन मन से होते हुए अवचेतन तक पहुंच जाता है. हमारे व्यक्तित्व, सोच और 'यादों की बारात' में अप्रिय की जुगाली होने लगती है. अपने घर परिवार, दोस्तों की बैठक की ओर थोड़ा झांकिए. आप आसानी से समझ जाएंगे कि जब भी चार दोस्त, परिवार में याद शहर की ओर जाते हैं उसमें खराब, अपमानित महसूस किए जाने वाले अनुभव छाए रहते हैं.
आपकी मानसिक सेहत, विचार, तनाव से मुक्ति की दिशा में जो चीजें सबसे अधिक बाधक होती हैं. उनमें से अप्रिय की जुगाली सबसे अहम है. हम अप्रिय चीजों में ऐसे उलझे रहते हैं कि जीवन में तनाव, बुरी यादों का अनजाने में संग्रह करते रहते हैं. अप्रिय की जुगाली एक लत की तरह मन को अस्वस्थ, खोखला करती रहती है.
इसे सरलता से ऐसे समझिए कि आप अपने घर में कचरा कितने दिन तक इकट्ठा करके रख सकते हैं. कचरा तो कचरा है, उसे कैसे भी सहेजिए. एक सीमा के बाद उसे संभालना संभव नहीं होता. इसलिए आपको कचरे से मुक्ति हासिल करनी जरूरी है.मन में बुरे, खराब अनुभव की जुगाली भी कचरे जैसी है! एक बार इसमें आनंद मिलने लग जाए तो ऐसा लगता है, मानों दूसरा कोई काम ही नहीं. जबकि उसमें दूसरा पक्ष आपके नियंत्रण, पहुंच से कहीं दूर अपनी चैन की नींद में डूबा है.
डियर जिंदगी: स्थगित आत्महत्या की कहानी!
हमें याद रखना होगा कि जिंदगी रेल की तरह है. वह तय समय पर स्टेशन पर आती है. कुछ देर यात्री की प्रतीक्षा करती है. उसके बाद थोड़ी मनुहार पर कुछ देर रुक भी जाती है, लेकिन अंततः आपके इंतजार में खड़ी नहीं रहती. उसे अपनी यात्रा पर जैसे, जितने यात्री मिलें आगे जाना ही होता है!
जीवन के प्रति इसी दृष्टिकोण की जरूरत हमें है. हम यादों की जुगाली के साथ उम्र नहीं गुजार सकते. चीजें आती हैं, जाती हैं. मीठे-खट्टे अनुभव होते हैं. जिंदगी के सफर में मिले अनुभव को एक 'स्टेशन' से अधिक महत्व देने की जरूरत नहीं. जैसे गाड़ी एक जगह रुकती नहीं, तमाम खराब अनुभव, चेन खींचे जाने के बाद भी अगले स्टेशन की ओर अपनी गति में निकल पड़ती है. यही नीति हमें अपनानी है.
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