समय की नाव तो हमें, संबंधों को नए, अलग तटों की यात्रा कराना चाहती है, लेकिन हम भीतर के विरोध से इतने भरे हैं कि ‘चश्मे’ के आगे कुछ देखना ही नहीं चाहते!
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समय के बारे में अक्सर हम ऐसे बात करते हैं, जैसे हमारी उम्र हजार बरस से कम न हो. जैसे हम सदियों को टीवी पर लाइव देखते रहे हों, सबकुछ हमारी आंखों के सामने ही घटा हो! इसलिए हम अक्सर ऐसी बातें सुनते रहते हैं कि पहले का जमाना कुछ और था. अब तो कुछ और है. यहां बात जमाने से अधिक ‘चश्मे’ की है. जिसने जैसे चश्मे पहने हुए हैं, उसी के हिसाब से बातें करते हैं.
मुझे मेरे बचपन के दिन सबसे भले, प्यारे लगते हैं तो पिताजी कह सकते हैं कि उन दिनों में वह बात कहां थी, जो उनके दिनों में थी. यहां तक बात ठीक है, लेकिन जब मेरी बेटी बात करती है, तो वह हम दोनों को खारिज कर देती है. वह भी कैसे दिन थे. बच्चों को ऐसे ‘ट्रीट’ किया जाता था. टीचर गुस्से में भरे हुए रहते थे, अक्सर पिटाई होती थी. और भी बहुत कुछ! लेकिन उस समय के किसी टीचर से मिलिए, तो वह आज की सारी कहानी को कचरा साबित कर देंगे. तो इस तरह समय की नदी में सब तैर रहे हैं, अपनी-अपनी नाव और चश्मे लिए.
यह दूसरा वाला 'चश्मा' बेहद नुकसानदायक है. नजर का चश्मा तो शायद एक बार लगने के बाद उतर भी जाए, लेकिन जिंदगी को देखने, समझने का 'चश्मा' अक्सर एक बार लग जाने के बाद कभी नहीं उतरता. हमने रिश्तों, चीजों, सवालों को देखने का एक खास पैटर्न बना लिया है.
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इसलिए, समस्या जिस रूप में भी हमारे सामने आए. हम उसे खास तरह से ही देखने की कोशिश करते हैं. उसी नजरिए, चश्मे से जिससे हम अब तक देखते आए हैं.
कहने को हम बड़े होते जा रहे हैं. हर बर्थ-डे सेलिब्रेशन के साथ हमारी उम्र बढ़ती जा रही है, लेकिन हमारी समझ, चीजों को देखने का नजरिया! उसका क्या? वह तो मानिए जैसे ठहरा हुआ पानी हो गया है. कोई ताजगी नहीं, खुश्बू नहीं बस स्थिरता की काई मन के हर कोने में जमी है.
ऐसे मन का क्या कीजिएगा! वह कहां तक आपको ले जाएगा. हो सकता है, ऐसे लोग जिनका चीजों को देखने का नजरिया, जीवन के प्रति दृष्टिकोण, सोच ‘छोटी’ दिखे, हालांकि वह आर्थिक रूप से संपन्न हो सकते हैं, तो इनसे घबराने की जरूरत नहीं है.
यह असल में संपन्न तो हो सकते हैं, लेकिन सुखी नहीं. दूसरों को तनाव की नदी में झोकने वाले, ईर्ष्या, क्रोध से भरे मन कभी दूसरों के जीवन में छांव का काम नहीं कर सकते. उनकी यात्रा अक्सर स्वयं से आरंभ होकर स्वयं पर ही समाप्त हो जाती है.
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अब चलिए आज की ‘डियर जिंदगी’ के शीर्षक की तरफ. जिसमें कहा गया है कि ‘खुश नहीं हैं, तो बताना चाहिए…’ आप कह सकते हैं कि इसमें नया क्या है. नहीं मैं यहां आपको रोकूंगा.
हम भारतीय, भले ही किसी भी आय, सामाजिक वर्ग से आते हों, हमेशा रिश्तों को लेकर एक खास 'चश्मा' रखते हैं. यह चश्मा चीजों को साफ देखने से ही नहीं रोकता, बल्कि अक्सर 'नजर' को कमजोर भी कर देता है.
हमें बचपन से सिखाया ही नहीं गया कि अपनी नापसंद भी जाहिर करनी है.
अरे! खुश नहीं हैं, तो बताइए न! कहिए न. मन के भीतर उबलने से कोई 'चावल' नहीं पकने वाला. बल्कि इसमें भीतर का अमृत, सौंदर्य जलकर खाक हो जाता है.
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हमें हमेशा समझाया गया कि माता-पिता बिना बोले सब जान लेते हैं. मां मन की बातें यूं ही समझ लेती है. पति-पत्नी का रिश्ता तो जन्म-जन्म का है, वहां तो आंखों में ही बात होनी चाहिए. सास-बहू, ननद और भाभी के रिश्ते तो सामान्य हो ही नहीं सकते.
यह सब 'चश्मे' हैं, जो सदियों से हमें एक-दूसरे से सहज संवाद से रोकते हैं. इन्हें उतारकर, फेंककर दिल की नजर से रिश्तों को देखना शुरू करिए, आप पाएंगे कि दुनिया बदली हुई है.
समय की नाव तो हमें, संबंधों को नए, अलग तटों की यात्रा कराना चाहती है, लेकिन हम भीतर के विरोध से इतने भरे हैं कि ‘चश्मे’ के आगे कुछ देखना ही नहीं चाहते!
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