बच्चे को असफलता के लिए तैयार करें. उसे पता होना चाहिए कि असफल होने पर दुनिया का सामना कैसे करना है. सबसे नजरें कैसे मिलाना है.
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स्कूल का सबसे बड़ा नुकसान क्या है ! इस बारे में बहस की पर्याप्त गुंजाइश है. पहले तो बहुत से लोगों के लिए यह समझना ही मुश्किल हो जाएगा कि लिखा हुआ वाक्य सही है. उसके बाद जो इससे सहमत होंगे वह भी कितने आगे जाएंगे इसमें थोड़ी दुविधा है. इसलिए ‘डियर जिंदगी’ के इस लेख को इस रूप में लिया जाए कि यह लेखक के व्यक्तिगत अनुभव, ऐसे लोगों से संवाद के आधार पर लिखा गया है, जो इस पर यकीन करते हैं कि स्कूल बच्चों में नवीन दृष्टि का विकास करने में असफल साबित हुए हैं.
स्कूल पहले से तय चीजों को रटकर एक ढांचे में लिख देने की प्रक्रिया हैं. उनके भीतर नवाचार, बच्चे के हुनर को समझने की योग्यता की निरंतर कमी दिखती है. स्कूल इसलिए नहीं होते कि वह बच्चे को रटना सिखाएं, वह इसलिए हैं, ताकि बच्चे के मूल गुण का पता लगा सकें. उसे दूसरों से प्रेम, मित्रता, सद्भाव सिखा सकें. वह बता सकें कि बच्चे का मन किस ओर जा रहा है. बच्चे की अभिरुचि क्या है! उसका समय कहां खर्च होना चाहिए, यह स्कूल के लिए सबसे जरूरी चीज़ होनी चाहिए. लेकिन ऐसा होने की जगह 'गंगा' एकदम उल्टी दिशा में बह रही है.
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स्कूल बच्चों को दिशा देने में पूरी तरह असफल साबित हो रहे हैं. इसमें अकेले स्कूल की हिस्सेदारी नहीं है, बच्चों के बारे में बात, निर्णय करते हुए हम स्वयं डरे हुए हैं.
जरा सोचिए, हमारे आसपास कौन सा बच्चा सबसे अधिक सराहना हासिल करता है. वह जो संगीत, कला, खेल के क्षेत्र में अच्छा कर रहा है, संघर्ष कर रहा है या फिर वह बच्चा जो हर महीने स्कूल की परीक्षा में सबसे अच्छे अंक हासिल करता है.
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कुछ अपवाद हो सकते हैं , लेकिन अपने घर, स्कूल में ऐसे ही बच्चों के अभिभावक, शिक्षक को मुस्कुराते हुए पाते हैं, जिनकी ‘रिपोर्ट’ कार्ड में अंकों की बहार होती है.
बच्चे की परवरिश का एक बेहद सरल फॉर्मूला मुझे सूझा है. आपसे साझा करता हूं.
बच्चे को किसी गिरवी अमानत की तरह रखिए. जैसे गिरवी सामान आपके पास दूसरे की अमानत है. वैसे ही बच्चे ईश्वर की अमानत हैं. जो आपके पास निश्चित समय के लिए हैं. उसके बदले आपको दुनिया के सुख, सफलता बख्शी गई है.
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हम गिरवी सामान के साथ जैसा व्यवहार करते हैं , वैसा ही बच्चों के साथ करिए. उनका ख्याल रखिए, प्रेम कीजिए, लेकिन उनके पंख में अपनी इच्छा के धागे मत बांधिए!
हम सबने अपने जीवन में कभी न कभी हाथी जरूर देखा होगा. जब भी हम बच्चों को शक्तिशाली होने की बात समझाते हैं , हाथी सबसे सरल, सहज उदाहरण होता है.
हाथी जब छोटा होता है , तब उसे मोटी रस्सी से बांध दिया जाता है. जिसे बच्चा हाथी नहीं तोड़ पाता. धीरे-धीरे हाथी बड़ा होता जाता है, लेकिन रस्सी वैसी ही रहती है. आगे चलकर भी वह कभी रस्सी नहीं तोड़ पाता, क्योंकि बचपन से उसके दिमाग में रस्सी का डर बैठा रहता है!
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हमें इस बात को बहुत गंभीरता से समझने की जरूरत है कि हमारे बच्चे के दिमाग में किसी 'रस्सी' का डर न बैठा रह जाए ! बचपन के डर जिंदगी भर पीछा करते हैं. बच्चे के दिमाग में एक बार अगर यह घर कर गए, तो इनसे निकल पाना बहुत मुश्किल काम है.
इसलिए , माता-पिता को बच्चे को पूरी तरह से स्कूल पर निर्भर न रखते हुए उसे अपने विश्वास में रखना चाहिए. इस बारे में यह सुझाव उपयोगी हो सकते हैं.
शिक्षक अगर बच्चे को मिलने वाले नंबर के आधार पर उसकी प्रतिभा का मूल्यांकन कर रहे हैं तो उन्हें ऐसा करने से रोकिए. बच्चे को समझाइए कि आप हर स्थिति में उसके साथ हैं. खासकर तब जब उसके नंबर कम आएं. वह हमेशा हमारे लिए सबसे बढ़कर है.
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बच्चे को विविध क्षेत्रों में महानतम योगदान देने वालों के बारे में बताएं. उनके बचपन के संघर्ष के बारे में बताएं. इससे उनके भीतर संघर्षबोध बढ़ेगा.
बच्चे को असफलता के लिए तैयार करें. उसे पता होना चाहिए कि असफल होने पर दुनिया का सामना कैसे करना है. सबसे नजरें कैसे मिलाना है. हमेशा याद रहे , बच्चे आपसे हैं, आपके लिए नहीं! इस एक सूत्र वाक्य से ही बच्चों के प्रति किए जाने वाले व्यवहार में जमीन-आसमान का अंतर पैदा हो जाएगा.
जैसे भी हो , अपने बच्चे के दिमाग को सभी तरह की 'रस्सियों' की कैद से आजाद रखना है!
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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