दूसरों को नीचा दिखाने, छोटी-छोटी बात पर एक-दूसरे की जान लेने पर आमादा, हर दूसरे वाक्य में मां-बहन की गाली देने वाले लोग कौन हैं! यह समाज का वही हिस्सा है, जिसकी आंखों में आंसू का उतरना वर्जित है. इनकी आंखों में 'नमी' के साथ, स्नेह, प्रेम और आत्मीयता भी घटती जा रही है.
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हमें कुछ इस तरह तैयार किया गया है कि अगर बेटे की आंख में आंसू हैं, तो उसे कहा जाएगा कि क्या लड़कियों की तरह रोते हो. रोना तुम्हारा काम नहीं. पुरुष\लड़के कभी नहीं रोते. इस समझ का विकास करने वालों ने रोने का कॉपीराइट भी जेंडर के आधार पर तय किया हुआ है.
जरा ठहरिए. दुनिया की छोड़िए, भारत पर आइए. यहां दिल, दिमाग की जितनी बीमारियों के आंकड़े सामने हैं. उन पर नजर दौड़ाइए. आपको मिलेगा कि उनका दिल, दिमाग कहीं अधिक सेहतमंद है, खुशमिजाज है, जिन्हें आंसू बहाने से यह कहकर नहीं रोका जाता कि क्या लड़कियों की तरह रोते हो!
सुख-दुख और भावना का सीधा संबंध है. यह व्यक्तियों के आधार पर तो अलग-अलग हो सकता है, लेकिन इसे जेंडर के आधार पर ‘शिक्षित’ किया गया है. इस शिक्षा का असर देखिए कि लड़कों की आंखों में 'नमी' के साथ ही शर्म भी हर दिन कम होती जा रही है.
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दूसरों को नीचा दिखाने, हिंसा में एक-दूसरे की जान लेने पर आमादा, बात-बात पर मां-बहन की गाली देने वाले और इसे संस्कृति का हिस्सा बताने वाले लोग कौन हैं!
यह समाज का वही हिस्सा है, जिसकी आंखों में आंसू का उतरना वर्जित है.
रोना, कमजोरी नहीं. सहज अभिव्यक्ति है. आपको किसी की बात से दुख हुआ, बुरा लगा, मन भारी हुआ तो आपकी आंखें भर आईं. इसका स्त्री-पुरुष से कोई संबंध नहीं.
एक छोटा सा किस्सा सुनते चलिए…
एक दिन मैं सपरिवार किसी के यहां आमंत्रित था. वहां मेरे बेटे जिसकी उम्र छह बरस से कम है. वहां किसी बात पर उनकी हमउम्र बेटी से लड़ बैठा और रोने लगा. मेजबान ने दोनों की बात बेहद आत्मीयता से सुनी. उसके बाद बेटे को समझाते हुए बोले, ‘तुम लड़कियों की तरह क्यों राते हो! रोया मत करो'. उसके बाद अपनी बेटी से बोले, 'क्या हमेशा रोती रहती हो, अपने भाई (उनके बेटे) की तरह मजबूत बनो!’
उनकी अनुराग, स्नेह भरी वाणी के आगे मुझे कुछ सूझा नहीं. मैंने बस इतना ही कहा कि रोने में बेटे-बेटी का कैसा भेद. उसके बाद उन्होंने वही कहा, जहां से इस लेख का आरंभ है. जैसा हम सभी सुनते हैं.
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हम बच्चों को किस तरह तैयार कर रहे हैं. किसी बात पर दुखी होकर मन ही मन कुढ़ते रहने, अवचेतन मन में भावना को दबाते रहने से हमारी कठोरता नहीं बढ़ती. बल्कि कुंठा बढ़ती है. दिल का ‘वजन’ बढ़ता जाता है. और जैसा हम जानते हैं, जरूरत से ज्याादा वजन सेहत के लिए हानिकारक है.
इसलिए, रोने से पहले, भावना को आंखों में उतरने से रोकिए. आंसू दुख, भावना के उबाल और पीड़ा से मुक्ति का मार्ग हैं. बिना रोए मन हल्का करना संभव नहीं. हमारे जीवन का आरंभ ही रुदन से हुआ है. डॉक्टर जन्म लेने के बाद जिस एक चीज के लिए सबसे ज्यादा परेशान होते हैं, वह बच्चे का रोना ही तो है...
और बच्चे के घर आते ही हम उसकी सहजता को जेंडर के धागे से बांध देते हैं. यह धागा जिंदगीभर उसकी आत्मा से चिपका रहता है. जाहिर है, कोई भी चिपकी चीज लंबे सफर के लिए ठीक नहीं होती.
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इसलिए बच्चों को खूब हंसने और रोने दीजिए. और उससे भी जरूरी जब कभी आपको तन्हाई, उदासी की धुंध अपने आगोश में लेने लगे तो खुद को रोकिए मत. रोने, दुख को उतार फेंकने से डरिए नहीं.
डॉक्टर आपके जख्म, फोड़े का इलाज करते समय आपसे हौसला बनाए रखने को कहता जरूर है, लेकिन क्या वह आंसुओं की मनाही करता है. नहीं, वह करे तो भी कौन उसकी परवाह करता है.
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है. रिश्तों, संबंधों में समय के साथ आने वाले खतरनाक मोड़, घुमावदार रास्तों पर लागू होती है.
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आंसू नई ‘यात्रा’ का आरंभ हैं. वह नई मंजिलों का शुभंकर हैं. बस इतना ख्याल रहे कि जिस पीड़ा को बहा दिया गया उसका पुन: प्रवेश वर्जित होना चाहिए. जिंदगी धागों के उलझने का नहीं, सुलझाने का नाम है...
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