डियर जिंदगी : प्रसन्‍नता मंजिल नहीं, सफर है...
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डियर जिंदगी : प्रसन्‍नता मंजिल नहीं, सफर है...

हम खुश रहने के तरीके की खोज में आधी जिंदगी बिता देते हैं. जब खुशी मिल जाती है, तब जाकर समझ आता है कि असल में हम इसके लिए तो निकले ही नहीं थे.

डियर जिंदगी : प्रसन्‍नता मंजिल नहीं, सफर है...

डियर जिंदगी के 200वें अंक की शुभकामना के साथ एक प्रेरणादायक संदेश मिला. उप्र के झांसी से अमर तिवारी ने लिखा, 'हम हमेशा सुख के साथ क्‍यों रहना चाहते हैं! सुख के साथ रह रहे हैं, यहां तक तो ठीक है. लेकिन अगर इसी रास्‍ते दुख मिल गया तो उससे इंकार कैसे कर सकते हैं. हमेशा सुख के साथ रहने की चाह कुछ वैसे ही है, जैसे हर मौसम में बसंत की कामना. जैसे हमेशा बसंत नहीं है, वैसे ही हमेशा सुख नहीं है. ऐसे में एक ही रास्‍ता है, प्रसन्‍नता. डियर जिंदगी, जीवन को समभाव से देखने की दूरबीन है. हमें ऐसी खूब सारी दूरबीन चाहिए.'

अमर ने हमारी हर दिन की जिंदगी के एक ऐसे हिस्‍से को छुआ है, जिसे हम जानते हुए भी अनदेखा कर देते हैं. हम खुश रहने के तरीके की खोज में आधी जिंदगी बिता देते हैं. जब खुशी मिल जाती है, तब जाकर समझ आता है कि असल में हम इसके लिए तो निकले ही नहीं थे. हमारी मंजिल तो कुछ और थी, हम कहीं और ही पहुंच गए. क्‍योंकि हमने जीवन को मील का पत्‍थर बना लिया है. जो हर किमी पर दूरी कम होने की सूचना तो देता है, लेकिन वह कहीं पहुंचाता नहीं.

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विडंबना है कि खुश होने के लिए हमने अनेक मील के पत्‍थर गढ़ लिए हैं. प्रसन्‍नता, जीवन का स्‍थाई भाव होना चाहिए. उसे स्‍थि‍तियों पर छोड़ना जीवन को विकलांग बनाने जैसा है. अपनी नजर के आगे दीवार बनाने जैसा है. हम बच्‍चों को जीवन संघर्ष के लिए तैयार करते समय सबकुछ सिखाते हैं, सिवाए इसके कि तुम खुश रहना कभी मत छोड़ना. असल में इसके पीछे मूल कारण हर चीज़ के पीछे दौड़ते, उसे हासिल करने की मृगतृष्‍णा है. हम वह सबकुछ पाने के लिए बेकरार हैं, जो दूसरे के पास है. जबकि दूसरे की नजर तो हमारी प्रसन्‍नता की मुरीद है. वह हमारी आरजू में जिए जा रहा है. और हम उसकी 'चाह' में मरे जा रहे हैं.

हर हाल में प्रसन्‍न. सुख में प्रसन्‍नता बड़ी बात नहीं. बड़ी बात है, सुख की प्रतीक्षा में प्रसन्‍नता. दुखों को सहते हुए जीवन के पड़ावों को पार करते हुए प्रसन्‍नता. प्रसन्‍नता को घर, नौकरी, प्रमोशन और चीज़ों के हासिल करने से जोड़ने की आदत ने हमें सबसे अधिक दुखी बनाया है. कोई यह कहते नहीं दिखता कि मैं यूं ही प्रसन्‍न हूं. मुझे प्रसन्‍न होने के लिए कारण की चाह नहीं, मैं तो अकारण ही प्रसन्‍न रहता हूं. यह कहना जितना सरल है, इसे निभाना उतना ही जटिल. लेकिन मनुष्‍य के लिए, मनुष्‍यता के लिए इससे बढ़कर सरल, सहज उपाय दूसरा नहीं है. जो प्रसन्‍न नहीं, वह जीवन से नाराज हैं. उनकी जीवन और प्रकृति पर आस्‍था नहीं. जिसकी जीवन के प्रति आस्‍था नहीं, वह किसी के प्रति आस्‍थावान नहीं रह सकता. इसलिए चित्‍त की प्रसन्‍नता पर सबसे अधिक जोर देना जरूरी है.

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यह अकारण प्रसन्‍नता ही जिंदगी का सबसे बड़ा वरदान है. इससे सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि हम खुद पर अपेक्षा का भार कम कर लेते हैं. हम प्रसन्‍न होते हुए असल में डरने लगते हैं कि कोई यह न पूछ बैठे कि अरे, तुम आज इतने खुश क्‍यों नजर आ रहे हो! कुछ तो बात है, बता क्‍यों नहीं रहे. कुछ तो कहो. कुछ तो बताओ, ताकि हम भी प्रसन्‍न रह सकें. जैसे ही आप कहते हैं कि यह तो स्‍वभाव है, तो लोग अचरज में पड़ जाते हैं, अरे! यह कैसा स्‍वभाव! ऐसे भी कोई करता है, क्‍या.

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अरे, यही तो करना है, प्रसन्‍न रहना है. इस प्रसन्‍नता को आत्‍मा के भीतर तक भर लेना है. जहां जिंदगी के छोटे-मोटे उतार-चढ़ाव आपके दिमाग, मन और दिल तक न पहुंचे. हमेशा याद रखें, जीवन का मार्ग शरीर से होकर ही जाता है. जिंदगी में कुछ ऐसा नहीं, जिसे बिना शरीर के पाया जा सके. इसलिए शरीर को सबसे पहले स्‍वस्‍थ रखें. उसे प्रसन्‍न रखें. तभी बात आगे जाएगी. इससे ही मन मजबूत होगा, दिमाग में चीजें साफ रहेंगी. मन सुलझा, साफ रहेगा. वह तनाव और डिप्रेशन के खतरों से मीलों दूर रहने के साथ एक ऐसे आंगन में रहेगा, जहां से जिंदगी हसरतों की गुलाम नहीं होगी. वह सपनों की ओर दौड़ेगी जरूर, लेकिन अपनी आंखें खुली रखकर. मन, हृदय के द्वार में दूसरों के लिए संवदेना के साथ, मुस्‍कराते हुए.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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