डियर जिंदगी : जब बच्‍चों के नंबर 'कम' आएं...
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डियर जिंदगी : जब बच्‍चों के नंबर 'कम' आएं...

स्‍कूल बच्‍चों के रिजल्‍ट को 'सेल' करके नई फ्रेंचाइजी बनाने में व्‍यस्‍त हैं. उनका बच्‍चों पर से ध्‍यान पूरी तरह गायब है.

डियर जिंदगी : जब बच्‍चों के नंबर 'कम' आएं...

स्‍कूल में बच्‍चों पर तनाव बढ़ रहा है/ कम हो रहा है/ स्‍कूल बच्‍चों को उदारता सिखा रहे हैं/ वह बच्‍चों के रिजल्‍ट को 'सेल' करके नई फ्रेंचाइची बना रहे हैं! स्‍कूल पर बात करते समय ऐसी और इसकी जैसी बहुत सारी बातें हमारे दिमाग में आती रहती हैं. लेकिन कितनी देर के लिए! ऐसे विचारों की आयु बमुश्किल दस मिनट भी नहीं होती. हम जिंदगी की चक्‍की पर लौटते ही वही करने लगते हैं, जिसके विरुद्ध लड़ने के लिए दिमाग हमें तैयार कर रहा होता है. इस तरह हम तर्क, सवाल करने की क्षमता से निरंतर दूर होते जाते हैं. 

इसकी कीमत सबसे ज्‍यादा जाहिर तौर पर वह बच्‍चे उठाते हैं, क्‍योंकि हम बच्‍चों के नाम पर बहुत कुछ करते हैं. यह जानते हुए भी कि यह सही नहीं है, क्‍योंकि हम दूसरों के साथ 'चलना' चाहते हैं और उनकी आंखों में 'अपने' सपने देख रहे होते हैं.  हम सपने में खोए, यथार्थ से कटे रहते हैं. हमें बच्‍चों के कम आते नंबर तो दिखते हैं, लेकिन उनकी घटती सहजता, शरारत और सहज बुद्धि पर मंडराता संकट नहीं दिखता. 

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हमारे एक दंपति मित्र हैं. उन्‍होंने बड़ी मुश्किल से बिटिया का एडमिशन एक बड़े स्‍कूल में करवाया. पहले कुछ साल सब ठीक रहा, लेकिन उसके बाद उसके नंबर कम आने शुरू हो गए, जबकि वह दूसरी चीज़ों में निरंतर अच्‍छा कर रही थी, लेकिन उसके अभिभावक खासकर मां नंबर को लेकर उसके साथ लगभग युद्ध की स्थिति में आ गईं. हालात यहां तक आ पहुंचे कि बिटिया के आठवीं में पहुंचते तक दोनों में संवाद लगभग शून्‍य हो गया है. 

असल में इसकी जड़ कहीं और है. 

बिटिया की मां एक छोटे शहर से आईं. वह डॉक्‍टर बनना चाहती थीं, लेकिन पिता ने किसी तरह एमकॉम की अनुमति दी. अब वह बेटी को डॉक्‍टर बनाना चाहती हैं, ताकि अपने सपने पूरे कर सकें , जबकि वह अपनी जिंदगी में कुछ और ही रंग भरना चाहती है! 

हम 'डियर जिंदगी' में निरंतर कह रहे हैं कि बच्‍चे के कोमल मन पर सबसे पहले पड़ने वाले प्रभाव के बारे में हमें सतर्क रहने की जरूरत है. अगर निराशा, उदासी, अकेलेपन के बीज उसके मन की गीली मिट्टी में ही बो दिए गए तो आगे चलकर उसे संभालना बहुत मुश्किल हो जाता है. 

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इसलिए हम सबको यह समझने की सख्‍त जरूरत है कि बच्‍चे की समझ बढ़े. शिक्षा की ओर उसकी रूचि बढ़े. वह संबंध, समाज को समझे. इस प्रक्रिया में उसके नंबर अगर कम भी हो जाएं तो कोई गम नहीं होना चाहिए. हमें चिंता तब होनी चाहिए, अगर बच्‍चा अनमना हो! वह तनाव में हो. अपने को व्‍यक्‍त न कर पा रहा हो! तब हमें चिंतित होना चाहिए. 

हम सब शबाना आजमी से अच्‍छी तरह परिचित हैं. वह बेहतरीन अभिनेत्री हैं. उनके जीवन का एक किस्‍सा सुनते चलिए. उनका जन्‍म हैदराबाद में हुआ. उसके कुछ समय बाद उनका परिवार मुंबई आ गया. वहां जिस स्‍कूल में उनका दाखिला कराया गया. वह उन्‍हें पसंद नहीं आया, लेकिन अभिभावक इस बात को समझ नहीं रहे थे. 

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इसी दौरान जब उनका रिजल्‍ट आया तो उसमें सभी विषयों में उनके शून्‍य अंक आए. स्‍कूल, परिवार से लेकर सब स्‍तब्‍ध. तब उनकी मां शौकत आजमी जो सुपरिचित थिएटर, फि‍ल्‍म कलाकार भी थीं. समझ गईं कि कुछ गड़बड़ तो है. 

उन्‍होंने पति और मशहूर शायर, कवि कैफी आजमी साहब को समझाया कि यह शबाना के विरोध का तरीका है, क्‍योंकि स्‍कूल उसे पसंद नहीं आ रहा है. उसे समझ नहीं आ रहा है. जल्‍द स्‍कूल बदल दिया गया, उस बदलाव ने उनके जीवन में जो भूमिका निभाई, उसके लिए अब किसी प्रमाण की जरूरत नहीं.  

बच्‍चे से इतनी गहरी आत्‍मीयता रखनी होगी. उसकी सांसों की धड़कन को स्‍नेह से समझना होगा. उसके साथ अबोला करके, उसे डराने से हमें कुछ हासिल नहीं होने वाला.

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