शरीर की रिपेयरिंग तो हो भी जाती है, लेकिन अंतर्मन का क्या! हम अवचेतन मन (subconscious mind) की निरंतर उपेक्षा किए जा रहे हैं.
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'अरे! सर्विसिंग की तारीख एकदम नजदीक आ गई, ध्यान नहीं रहा.' यह एक ऐसा वाक्य है, जिसका उपयोग करोड़ों भारतीय आए दिन करते हैं. हम वाहनों की सेहत, उनकी सुरक्षा के लिए सजग रहते हैं. जिस दिन सर्विंसिंग होनी होती है, हम किसी भी तरह उसे करवाते हैं. कुल मिलाकर गाड़ी की सेहत के साथ समझौता नहीं करते. ऐसे समझौते तभी करते हैं, जब हमारी गाड़ी पुरानी हो जाती है!
अब जरा यही बात खुद अपने पर लागू करें. वह कार/बाइक जिसकी एक तय कीमत है, उसकी सेहत के लिए हम काफी जतन करते हैं, लेकिन हम खुद जो कि अनमोल हैं, उसका क्या! आखिरी बार आपने खुद को कब 'सर्विसिंग' के लिए डाला था, शायद ही याद हो! जब तक हम बीमार न हों, हमें पता ही नहीं चलता कि 'सर्विसिंग' की जरूरत है. कई बार तो यह जानकारी इतनी देर से आती है कि बहुत देर हो जाती है.
शरीर की रिपेयरिंग तो हो भी जाती है, लेकिन अंतर्मन का क्या! हम अवचेतन मन (subconscious mind) की निरंतर उपेक्षा किए जा रहे हैं. जबकि इसकी सफाई, उसकी मरम्मत सबसे जरूरी है, उस ओर हमारा ध्यान कभी जाता ही नहीं. क्योंकि दुर्भाग्य से हम उसकी आवाज को सुन ही नहीं पाते. अवचेतन के साथ हमारा रिश्ता बहुत हद तक निराकार भाव का है. उस तक पहुंचने के लिए जो भाव, एकांत और खुद से संवाद का समय चाहिए, हमारी उसमें कोई रुचि नहीं है. क्योंकि हम भौतिकता में इस कदर उलझे हैं कि जब तक साकार रूप में किसी चीज का नुकसान हमें न हो, हम उसके खतरे को भांप नहीं पाते.
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लेकिन अंतर्मन से संवाद नहीं होने, उसकी बीमारी को न समझने का परिणाम हमारे पूरे समाज को उठाना पड़ रहा है.
नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे के अनुसार देश में 13 से 17 वर्ष के करीब 98 लाख बच्चे गंभीर मानसिक परेशानियों से गुज़र रहे हैं. उन पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है. ये संख्या सिर्फ रजिस्टर्ड मामलों की है. यहां यह ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि तनाव (Depression) और अकेलेपन के बहुत सारे मामले ऐसे होते हैं जो कभी सामने नहीं आते.
अगर बातचीत में आप अभिभावक से कह दें कि आपका बेटा मानसिक रूप से कुछ परेशान दिख रहा है. उदास है, अवसाद में जाता दिख रहा है, तो वह इसे कभी सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाते. वह इसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ लेते हैं. कई बार तो माता-पिता आपस में इस पर कलह कर लेते हैं, लेकिन बच्चे को मनोचिकित्सक तक ले जाने के लिए थोड़ा-सा समय नहीं निकाल पाते.
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यह तो हुई बच्चों की बात. लेकिन हम बड़े! हमें तो लगता ही नहीं कि हम भीतर से उदास, दुखी भी हो सकते हैं. जब तब उसकी कोई आर्थिक वजह न हो. यह एक भ्रम है, बस. मनुष्य का मन, उसकी भावनाओं को प्रभावित करने में धन की बड़ी भूमिका है, लेकिन सारी भूमिका नहीं है.
समाज की सेहत, संबंधों में ताजगी और तनाव से दूरी के लिए खुद को सर्विसिंग मोड पर डालना बेहदजरूरी है. अगर आपके पास ऐसे समझदारी भरे रिश्ते हैं तो ठीक नहीं तो आप विशेषज्ञों से बात करें. लेकिन खुद की स्कैनिंग, डस्टिंग करने के साथ एंटी वायरस अपडेट करना कभी न भूलें. इसका रिमांइडर हमेशा दिमाग में सबसे पहले रखें.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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