देश को दिलाया पहला ओलंपिक पदक, इस तरह मुश्किल से मिला था ट्रायल का मौका
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देश को दिलाया पहला ओलंपिक पदक, इस तरह मुश्किल से मिला था ट्रायल का मौका

वह भारत के पहलवानों के लिए प्रेरणा हैं. अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए शुरू हुए भारत छोड़ो आंदोलन से भी वह बहुत कम उम्र में सक्रिय रूप से जुड़ गए थे. पहलवान होने के कारण जिंदगी में मेहनत उनकी आदत बन गई. 

देश को दिलाया पहला ओलंपिक पदक, इस तरह मुश्किल से मिला था ट्रायल का मौका

नई दिल्ली (सत्येन्द्र पाल सिंह) : खशाबा दादासाहेब जाधव. आजाद भारत के ओलंपिक के पहले वैयक्तिक पदक विजेता, खिलाड़ी और स्वतंत्रता सेनानी. चाहे मैदान हो या आजादी की लड़ाई, देश की आन-बान और शान के लिए सब कुछ दांव पर लगाने वाले गजब जीवट वाले अदभुत योद्धा. एक ऐसे पहलवान जिन पर भारत की कुश्ती को तो गर्व है ही, देश की आजादी के लिए सब कुछ होम करने वाला हर सेनानी भी उन पर गर्व करता है.

वह भारत के पहलवानों के लिए प्रेरणा हैं. अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए शुरू हुए भारत छोड़ो आंदोलन से भी वह बहुत कम उम्र में सक्रिय रूप से जुड़ गए थे. पहलवान होने के कारण जिंदगी में मेहनत उनकी आदत बन गई. हालांकि अफसोस यह है कि हेलसिंकी ओलंपिक में भारतीय ओलंपिक दल में चुने जाने तक के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी थी.

15 जनवरी, 1926 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के कराड तालुका के गोलेश्वर गांव मे जन्मे आजाद भारत के ओलंपिक के पहले वैयक्तिक पदक विजेता पहलवान खशाबा जाधव को भारत ने 14 अगस्त 1984 को एक दुखद सड़क हादसे में खो दिया था. बदकिस्मती से खशाबा जाधव का अपने घर के करीब ही एक सड़क दुर्घटना में 58 बरस की उम्र में निधन हो गया.

ओलंपिक में जाने के लिए करना पड़ा आर्थिक तंगी का सामना
खशाबा जाधव को 1948 में लंदन ओलंपिक में शिरकत करने के लिए पैसों की व्यवस्था करने के लिए खासी दिक्कत पेश आई. कुछ रुपए तो कोल्हापुर के महाराज ने दिए तो कुछ आर्थिक मदद गांव वालों ने कर दी.

इसी के बूते ही वह पहली बार लंदन ओलंपिक में शिरकत कर पाए. तब उन्होंने लंदन ओलंपिक में फ्लाईवेट फ्री स्टाइल में 52 किलोग्राम वजन वर्ग में शिरकत की. जब 1952 में हेलसिंकी ओलंपिक बेंटमवेंट फ्रीस्टाइल 57 किलोग्राम में जाने की बारी आई तो एक बार पैसों की जुगत बड़ी समस्या थी. एक बार फिर बेशक गांव वालों ने उनके हेलसिंकी ओलंपिक में शिरकत करने जाने के लिए हाथ बढ़ाए लेकिन उनकी यह मदद नाकाफी थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री ने भी मदद से साफ इनकार कर दिया. आखिर जाधव ने अपना घर गिरवी रख कर ओलंपिक जाने के लिए पैसे जुटाए.

लंदन ओलंपिक में छोड़ी अपनी छाप
खशाबा जाधव महज पहलवान ही नहीं, बल्कि भारत की आजादी के सिपाही रहे. वह अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़े रहे और आजादी के सिपाहियों को अपने घर में शरण भी दी. महज पांच वर्ष की उम्र में पहलवानी शुरू कर दी खशाबा जाधव ने. उन्होंने भारत के लिए सबसे पहले 1948 में लंदन ओलंपिक में फ्लाईवेट फ्री स्टाइल मे 52 किलोग्राम वजन वर्ग में शिरकत की और दो मुकाबले जीते.

पूर्व लाइट वेट विश्व चैंपियन पहलवान गार्डनर का मार्गदर्शन जाधव के बहुत काम आया और लंदन ओलंपिक में छठे स्थान पर रहने के बावजूद वह अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे. लंदन ओलंपिक में अपनी फुर्ती से खशाबा जाधव ने वहां हर किसी को अपना मुरीद बना लिया. लंदन ओलंपिक में उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के धुरंधर पहलवान बर्ट हैरिस को आनन फानन में हराकर हर किसी को हैरान कर दिया था. फिर उन्होंने अमेरिका के बिली जैमिगन को हराया लेकिन ईरान के मंसूरी रइसी से हारकर टूर्नामेंट से बाहर हो गए.

हेलसिंकी में कांस्य पदक जीत रचा इतिहास
अपने छोटे कद और गजब की फुर्ती के कारण खशाबा जाधव कुश्ती की दुनिया में 'पॉकेट डायनेमो के नाम से मशहूर हो गए. आजाद भारत को हेलसिंकी ओलंपिक में पहला कांस्य पदक दिलाने वाले पहलवान रहे खशाबा दादासाहेब जाधव 1952 में हेलसिंकी ओलंपिक में बेंटमवेंट फ्रीस्टाइल 57 किलोग्राम में कांस्य पदक जिता कर महान गौरव हासिल कर इतिहास रच
दिया था. उनके कांसा जीतने पर जब स्टेडियम में भारत का तिरंगा लहराया तो मानो उनकी ही नहीं, पूरे आजाद भारत की एक बड़ी साध पूरी हो गई थी.

कुंवर दिग्विजय सिंह बाबू की अगुवाई में भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने हेलसिंकी में स्वर्ण पदक जीत कर आजाद भारत की ओलंपिक हॉकी में श्रेष्ठता बरकरार रखी थी. भारतीय हॉकी टीम ने आजादी के बाद लगातार दूसरी और कुल पांचवीं बार हॉकी खिताब जीता था. भारत ने आजादी से पहले लगातार तीन बार हॉकी में स्वर्ण पदक जीता था. 

1952 हेलंसिकी ओलंपिक के लिए खशाबा जाधव ने पूरी तैयारी की. तत्कालीन कुश्ती चयनकर्ताओं ने पहले तो उन्हें ट्रायल में ही नहीं रखा था. तब पटियाला के तत्कालीन महाराज से गुहार के बाद खशाबा जाधव का ओलंपिक के लिए ट्रायल हुआ और वह सभी को धूल चटा कर यह ट्रायल जीत गए. इसी जीत से हेलसिंकी ओलंपिक के लिए भारतीय टीम में उनकी जगह बनी. हेलसिंकी में खशाबा जाधव ने अपने शुरू के मुकाबले आसानी से आनन फानन में जीत लिए.

फिर उनका सामना जापान के सूची इशी से जमकर संघर्ष हुआ लेकिन इसमें उन्हें मात मिली. इस हार के बावजूद जाधव के पास फाइनल में पहुंचने का मौका था. नियमों के मुताबिक इस कुश्ती से पहले आधा घंटे का आराम मिलना चाहिए था लेकिन उन्हें तुरंत ही तत्कालीन सोवियत संघ कश राशिद ममादबियोव के खिलाफ कुश्ती लड़ने को मजबूर कर दिया गया और इसमें उन्हें हार झेलनी पड़ी.

आखिरकार खशाबा जाधव को हेलसिंकी ओलंपिक में कांस्य पदक पर ही संतोष करना पड़ा. अगर भारतीय अधिकारियों ने नियमों का हवाला देकर यह मुकाबला आधा घंटे बाद कराने के लिए आवाज उठाई होती तो बहुत मुमकिन था कि खशाबा यादव यह मुकाबला जीत कर फाइनल में पहुंच गए होते.

कुश्ती में खशाबा जाधव की परंपरा 
पहलवान खशाबा जाधव के हेलसिंकी में साल 1952 में भारत को कांस्य के रूप में पहला वैयक्तिक पदक दिलाने के 44 बरस बाद लिएंडर पेस ने 1996 के ओलंपिक में टेनिस में यही कामयाबी दोहराई. 2008 में अभिनव बिंद्रा दो कदम आगे बढ़ते हुए पेइचिंग ओलंपिक में 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण पदक जीत कर ओलंपिक में पहला वैयक्तिक स्वर्ण पदक पाने वाले भारतीय खिलाड़ी बन गए. 2008 ओलंपिक में पहलवान सुशील कुमार ने कुश्ती में कांस्य और 2012 में एक कदम और आगे बढ़ रजत पदक जीतकर देश को गर्व महसूस करवाया.

दरअसल, इन्होंने खेलों के महाकुंभ में वैयक्तिक पदक जीतने की खशाबा की परंपरा को ही आगे बढ़ाया. अब पूर्व अंतरराष्ट्रीय पहलवान संग्राम सिंह, खशाबा जाधव के जीवन पर एक फिल्म बनाने जा रहे हैं. ​कहा जा रहा है कि इसके लिए संग्राम सिंह ने खशाबा जाधव के पुत्र रंजीत जाधव से इसके अधिकार भी हासिल कर लिए हैं. संग्राम सिंह के लिए बतौर पहलवान खशाबा जाधव आदर्श हैं.

मुश्किल में गुजरे आखिरी दिन
 खशाबा जाधव ने करीब तीन दशक तक महाराष्ट्र पुलिस में नौकरी की लेकिन उन्हें अपनी पेंशन के लिए काफी चक्कर काटने पड़े. उनके आखिरी दिन मुफलिसी में गुजरे. जाधव को मरणोपरांत जरूर अर्जुन अवॉर्ड से नवाजा गया. लेकिन जब उनका निधन हुआ तब उनकी पत्नी को कोई आर्थिक मदद नहीं मिली. देश की आजादी की पूर्व संध्या पर महान पहलवान और देश की आजादी के सिपाही खशाबा जाधव को नमन.

(लेखक सत्येन्द्र पाल सिंह कई मीडिया संस्थानों में खेल संपादक रह चुके हैं.  इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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