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आजादी! जी हां, एक ऐसा शब्द जो जीवन के हर पल को बेहतर बनाने की ताकत देता है इस उम्मीद के साथ कि हमारा जीवन बेहतर और ताकतवर होगा तो ही हम अपने परिवार, समाज और फिर देश को उसके मुकाम पर पहुंचाने में सक्षम होंगे। आज हम आजादी के 69वें वर्ष में प्रवेश कर गए हैं। हर साल की तरह इस साल भी देश आजादी के जश्न में डूबा हुआ है, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं जश्न-ए-आजादी में डर का भाव गहरा रहा है, सियासत, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी, आतंकवाद, उग्रवाद और अपराधजनित गुलामी के जाल में लगातार देश लगातार फंसता जा रहा है।
जमाने से हम सब यह सुनते और कहते आ रहे हैं कि स्वतंत्रता हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। रामायण में तुलसीदास जी ने भी अपनी एक चापाई में कहा है, 'पराधीन सपनेहुं सुखनाहीं' यानी पराधीनता सपने में भी सुख नहीं देती है। कहने का तात्पर्य यह कि पराधीनता हर किसी के लिए सिर्फ अभिशाप है। बावजूद इसके जैसे-जैसे आजाद भारत की परिपक्वता बढ़ रही है, हम जश्न-ए-आजादी के बीच तमाम विकृतियों की गुलामी की जकड़न में फंसते ही जा रहे हैं।
68 वर्षों में देश के सियासतदानों ने देश का सत्यानाश कर दिया है। इस बात की पुष्टि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र को संबोधित किए भाषण से भी होती है। राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में प्रकट रूप में खंडित राजनीति और संसद को लेकर चिन्ता जताई। उन्होंने कहा, 'जीवंत लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं लेकिन पत्तियां कुम्हलाने लगी हैं। कुछ नया करने का यही समय है।' अपने संबोधन में राष्ट्रपति ने कहा कि संसद चर्चा की बजाय लड़ाई का मैदान बन गई है। बड़ा सवाल यह है कि देश की सवा सौ करोड़ जनता कब तक सियासत का मोहरा बनकर शोषित होती रहेगी। हर पांच साल पर तरह-तरह के जुमले छोड़कर नेता लोग वोट जुटा लेते हैं और फिर जनता किस हाल में जी रही है, सत्ता पर कुंडली मारकर बैठे सियासतदानों को मतलब नहीं होता। आजाद भारत में ये किस तरह की राजनीतिक गुलामी है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के 68 साल में देश की जो प्रगति होनी चाहिए थी, नहीं हो पायी। कहते हैं कि इसके पीछे भ्रष्टाचार की गुलामी सबसे बड़ी वजह है। आजादी के एक दशक बाद से ही भारत भ्रष्टाचार के दलदल में धंसता नजर आने लगा था। इतिहास इस बात का गवाह है कि 21 दिसम्बर 1963 को भारत में भ्रष्टाचार के खात्मे पर संसद में हुई बहस में डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत में जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं हुआ है। डॉ. लोहिया के इस वक्तव्य के पांच दशक से अधिक समय हो चुके हैं और इन पांच दशकों में देश में भ्रष्टाचार की जकड़न लगातार बढ़ी है। और यही वजह है कि आज 18 हजार से अधिक गांवों में बिजली नहीं पहुंची है और लोग अंधेरे की गुलामी झेल रहे हैं।
बात देश में उग्रवाद के बढ़ने की करें, बात गरीबी के मकड़जाल की करें, बात बेतहाशा बढ़ती महंगाई डायन की करें, बात अपराध की करें, बात महिला सशक्तिकरण की करें, बात बेरोजगारी की करें तो इस सबके पीछे लगातार क्षीण होती राजनीतिक इच्छाशक्ति और भ्रष्टाचार की विकरालता सबसे अहम वजहें हैं। सियासत और भ्रष्टाचार का यह गठजोड़ आज ऐसे मुकाम पर आ खड़ा हुआ है जिसने 68 साल पहले मिली आजादी के सारे मायने ही बदल दिए हैं।
आजाद भारत में गुलामी की जकड़न के मुख्य कारणों में से एक यह भी है कि लोग अपने इतिहास और भूगोल के प्रति सजग नहीं रहते हैं। राजनीति और समाज की समझ का आधार इतिहास होता है। ज्यादातर ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जिन्हें भारत के इतिहास और भूगोल की कोई खास जानकारी नहीं है। कहते हैं कि जिस देश के लोगों को अपने इतिहास की जानकारी नहीं होती, वह देश धीरे-धीरे स्वयं की संस्कृति, धर्म, देश की सीमा और देशीपन को खो देता है।
बीते 68 वर्षों में देश के लगभग हर हिस्से में अलोकतांत्रिक व्यवहार, धरना, प्रदर्शन और हिंसा के चलते लोकतंत्र का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। आजाद भारत में आजादी से घूमना अब मुश्किल होता जा रहा है। अलगाववाद, आतंकवाद, प्रांतवाद, सांप्रदायिकता जैसी प्रवृत्तियां पनप रहीं हैं और देश को विखंडित किए जाने का एक दुष्चक्र चल रहा जो आज अपने चरम पर पहुंच गया लगता है। क्या आजादी का यही मतलब है कि हम नए तरीके से गुलाम होने या विभाजित होने के रास्ते खोजें? आखिर हम किन मायनों में आजाद हैं, वर्तमान में यह शोध का विषय है। शोध का विषय यह भी है कि हम असली आजादी के मायने और महत्व जानते भी हैं या नहीं। और अगर जानते हैं तो उसे महसूस क्यों नहीं कर पाते हैं हम।