हंगामे पर संसद मौन क्यों?
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हंगामे पर संसद मौन क्यों?

संसद का सुचारू संचालन कैसे हो इस पर सरकार, सत्ता पक्ष और विपक्ष तीनों को मिल-बैठकर चर्चा करनी होगी। क्योंकि इन तीनों से मिलकर ही तो संसद है और कहीं न कहीं इस संसद और संसद में बैठे सांसदों की भारतीय लोकतंत्र के प्रति जिम्मेदारी भी तो बनती है कि संसद ठीक तरीके से अपना काम करे। इसके लिए संसद चाहे तो भगवान बुद्ध का लोकतंत्र अपनाकर आगे बढ़े या फिर 'काम नहीं तो वेतन नहीं' का फार्मूला ईजाद करे। लेकिन संसद चलनी चाहिए और तस्वीर बदलनी चाहिए।

मानसून सत्र 2015 के पहले हफ्ते में संसद के दोनों सदन लोकसभा और राज्यसभा में कोई कामकाज इसलिए नहीं हो सका। वजह यह बताई जा रही कि विपक्षी दल ललित गेट मुद्दे पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और व्यापमं घोटाले में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के इस्तीफे की मांग पर अड़ा है। वहीं, मोदी सरकार का कहना है कि वह चर्चा के लिए तैयार है लेकिन किसी का इस्तीफा नहीं होगा। इतना ही नहीं, भाजपा जो सरकार में है अपने नेताओं के इस्तीफे की मांग के जवाब में कांग्रेस के दो मुख्यमंत्री हरीश रावत और वीरभद्र सिंह के इस्तीफे की मांग करने लगे हैं। कांग्रेस सांसदों की तर्ज पर भाजपा सांसद भी संसद परिसर में गांधी की प्रतिमा के सामने धरने पर बैठे। यह बड़ी ही हास्यास्पद स्थिति है कि सत्तापक्ष धरना दे रहा है। भाजपा सांसद आखिर किससे अपनी मांग मनवाने के लिए धरना दे रहे हैं? क्या उन्हें भगवान से कुछ चाहिए? 

सवाल ये नहीं है कि किस मंत्री ने क्या भ्रष्टाचार किया और उसे इस्तीफा देना चाहिए या नहीं। संसद इसलिए नहीं बनाया गया है कि सांसद सदन से बाहर संसद परिसर में धरने पर बैठ जाएं। यहां बड़ा सवाल यह है कि सियासी दलों जिसमें सत्ताधारी और विपक्षी दलों दोनों शामिल हैं, के निहित स्वार्थों की वजह से संसद नहीं चल रही है। और संसद नहीं चल रही है तो यह विचार करना भी जरूरी होगा कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है। इसमें कोई दो राय नहीं कि संसद के सुचारू संचालन की जिम्मेदारी सरकार यानी प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडलीय समूह की होती है। लेकिन यहां तो आजादी के 68 साल बाद भी सरकार उसी ढर्रे पर चल रही है जिस ढर्रे पर ब्रिटिश सरकार भारत पर अपना रूल चलाती थी। आज भी हमारे प्रधानमंत्री को संसद की थोड़ी ही परवाह रहती है। वह सिर्फ इस गुना-भाग में जीते हैं कि अपने दल का विस्तार कैसे करें और देश जीतने के बाद अधिक से अधिक राज्यों में हमारी सरकार कैसे सत्ता में आए। देश की संसद सही काम कैसे करे इस बारे में वह न के बराबर विचार करते हैं। अपवादस्वरूप एक-दो प्रधानमंत्रियों को छोड़ दें तो आजादी के बाद से लेकर अब तक अधिकांश प्रधानमंत्रियों की संसद के प्रति शुद्ध भावना और सच्ची ईमानदारी कभी नहीं रही। और दुर्भाग्य से यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। 

अगर हम भारतीय राजनीति के प्राचीन इतिहास पर गौर करें तो पाते हैं कि भगवान बुद्ध ने जिस लोकतंत्र को अपने संघ में उतारा था उसका सूत्र आज के लोकतंत्र से एकदम भिन्न था। उनका सूत्र था- मिलो, संवाद करो और उस समय तक संवाद करते रहो जब तक सहमति न बन जाए। भगवान बुद्ध के इस सूत्र में जोर संवाद और सहमति पर था न कि विवाद, विरोध और बदले की भावना पर। दुर्भाग्य से आजादी के बाद भारतीय लोकतंत्र ने बुद्ध की दी हुई दिशा नहीं पकड़ी। दरअसल देश की राजनीति सिर्फ औपचारिता में जीने की आदी हो गई है। आपने अगर गौर किया होगा तो हर संसद सत्र से एक दिन पहले प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष सर्वदलीय बैठक बुलाते हैं और यह तय करते हैं कि संसद सत्र का सुचारू संचालन में किसी तरह का व्यवधान पैदा न हो। गौर कीजिए, ये सिर्फ औपचारिकता होती है। बैठक में मुद्दों पर मतभेद के बावजूद बैठक खत्म हो जाती है और इसका परिणाम 'संसद में हंगामा' के रूप में देश के सामने होता हैं। कहने का मतलब यह कि सर्वदलीय बैठक में जब सभी सियासी दलों के नेता आपस में ठीक से मिलना वाजिब नहीं समझते तो संवाद और फिर सहमति तो बहुत दूर की बात है।    

कहते हैं कि जितना समय और पैसा संसद खर्च करती है अगर उतना समय और पैसा अच्छे लोगों को मिल जाए तो प्रजा का उद्धार हो जाए। किसी ने सच ही कहा है कि संसद महज प्रजा का खिलौना है और वह खिलौना प्रजा को भारी खर्च में डालता है। आंकड़े बताते हैं कि बजट सत्र-2015 में लोकसभा में 122 प्रतिशत और राज्यसभा में 102 प्रतिशत प्रोडक्टिविटी थी। लेकिन मॉनसून सत्र में इस बार सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान के इस्तीफे की विपक्ष की मांग को लेकर संसद सत्र के पहले चार दिन कोई काम नहीं हो सका। इन चार दिनों में लोकसभा का 94 प्रतिशत और राज्यसभा का 88 प्रतिशत वक्त हंगामे की भेंट चढ़ गया। लोकसभा-राज्यसभा में सिर्फ चार घंटे ही कार्यवाही चल सकी और वो भी हंगामे के बीच। एक अनुमान के मुताबिक इससे कर चुकाने वाली जनता के 7.16 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।

21 जुलाई से शुरू हुआ यह मॉनसून सत्र पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अगले महीने 13 अगस्त तक चलना है। अगर हम सत्र की कार्यवाही के घंटे-मिनट और इस पर होने वाले खर्चे की बात करें तो आप चौंक जाएंगे। यहां यह बताना इसलिए जरूरी है क्योंकि देश की जनता टैक्स के रूप में जो पैसा सरकार को चुकाती है उसी पैसे से संसद की पूरी कार्यवाही को अंजाम दिया जाता है। नियमत: एक दिन में लोकसभा में औसतन 6 घंटे और राज्यसभा में 5 घंटे काम होने चाहिए। इस हिसाब से देखें तो मॉनसून सत्र के बीते चार दिनों में 44 घंटे का काम होना चाहिए था, लेकिन हंगामे के बीच काम हुआ चार घंटे से भी कम। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक एक मिनट की कार्यवाही में 29 हजार रुपए का खर्च आता है, एक घंटे में 17.40 लाख और एक दिन में 1.91 करोड़ रुपए। इस तरह से चार दिन में बर्बाद हुए 7.64 करोड़ रुपए। आगे का तो भगवान मालिक। तो ऐसे में इस तथ्य पर विचार करना निहायत जरूरी हो गया है कि संसद में भी 'काम नहीं तो वेतन नहीं' का फार्मूला लागू किया जाए।

बहरहाल, संसद का सुचारू संचालन कैसे हो इस पर सरकार, सत्ता पक्ष और विपक्ष तीनों को मिल-बैठकर चर्चा करनी ही होगी। क्योंकि इन तीनों से मिलकर ही तो संसद है और कहीं न कहीं इस संसद और संसद में बैठे सांसदों की भारतीय लोकतंत्र के प्रति जिम्मेदारी भी तो बनती है कि संसद ठीक तरीके से अपना काम करे। इसके लिए अगर 'काम नहीं तो वेतन नहीं' के फार्मूले से बात बनती है तो इसे कानून बनाकर लागू करने से भी संसद को परहेज नहीं करना चाहिए और मोदी सरकार से अपेक्षा है कि वह इस दिशा में पहल करे। और अगर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अगर भारतीय संसद भगवान बुद्ध के सूत्र- 'मिलो, संवाद करो और तब तक संवाद करो जबतक सहमति न बन जाए' को आजमा ले तो अति उत्तम। जैसे भी हो, 127 करोड़ की जनसंख्या वाले भारतीय जनतंत्र की 'संसद' चलनी चाहिए और 'तस्वीर' बदलनी चाहिए। इस देश में संसद से बड़ी कोई हस्ती नहीं है। लिहाजा हंगामे पर संसद को अपनी चुप्पी तोड़नी होगी। 

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