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पुलिस अपनी छवि कब सुधारेगी? या पुलिस की छवि कब सुधरेगी? यह स्वाभाविक यक्ष प्रश्न जवान से लेकर बुजुर्ग हर उस इंसान के जहन में ज़रूर कौंधता होगा जो अपने जीवन-काल में चौकी और थाने की चौखट देख आया हो या फिर किसी ना किसी रूप में खादी वर्दी से उसका वास्ता पड़ा हो। अमूमन ज्यादातर लोग गंभीर घटनाओं और आपराधिक वारदातों से पहले सिर्फ इसलिए वर्दी वालों के दहलीज पर कदम नहीं रखते, क्योंकि वहां आरोपी से ज्यादा सख्ती पीड़ित के साथ दिखाई जाती है।
यह मात्र संयोग नहीं बल्कि व्यवस्थागत खामी का एक अहम पहलू है कि अपराधियों के खौफ के साथ-साथ पुलिस की उदासीनता का भय भी लोगों में सिहरन पैदा कर देता है। बात जब उत्तर प्रदेश को लेकर की जाए तो आपराधिक मामलों के साथ ही यहां पुलिस की असहिष्णुता, उदासीनता और खौफनाक चेहरे के कई किस्से आपके जहन में ताजा हो उठेंगे।
उत्तम प्रदेश बनाने का सपना संजोए युवा मुख्यमंत्री चाहे कानून-व्यवस्था की लाख दुहाई दे लें। पुलिस की तारीफ में कसीदें पढ़ लें, लेकिन उनके सरकारी मुलाजिम और जनता के रक्षक अपने व्यवहार और उदासीन छवि की वजह से जनता से कोसों दूर हो गए हैं। आम जनता की धारणा बन गई है कि छोटा-मोटा शोषण और ज्यादती सह लेंगे लेकिन पुलिस में शिकायत पानी सिर के ऊपर आने वाली स्थिति में ही करेंगे। यह धारणा पुलिस के व्यवहार और उदासीन रवैये से और भी बढ़ रही है। पुलिस स्टेशन जाने पर आप देखेंगे की आरोपी दामाद की तरह बैठ जाते हैं और पीड़ित गुनहगार की तरह गिड़गिड़ाते रहते हैं। पुलिस शिकायतकर्ता को ही खटघरे में खड़ा करके सवालों की झड़ी लगा देती है। एक शब्द मुंह से निकला नहीं की उसपर आंख चढ़ा ली जाती है। अगर शिकायतकर्ता अनपढ़ और डरपोक किस्म का हो तो पुलिस वालों की मौज आ जाती है।
उससे इंतजार कराया जाता है। बात-बात पर झिड़का जाता है और कई मामलों में तो कागज लेने के लिए एक किलोमीटर दूर तक भेज दिया जाता है। जो पुलिस आम आदमी को कागज नहीं दे सकती वह अपना कर्तव्य किस तरह पूरा निभाती होगी वो ही जाने। अगर इस बार उत्तर प्रदेश पुलिस से सामना नहीं होता तो ना ही यह शब्द लिखे जाते और ना ही इसे विमर्श का विषय बनाया जाता। गौतम बुद्ध नगर में पैर रखने से कतराने वाले युवा मुख्यमंत्री के पुलिस महकमे के पीसीआर में स्वस्थ्य और जवान पुलिसकर्मियों की कमी है। अस्वस्थ्य, शरीर से काफी कमजोर किडनी के मरीज पुलिसकर्मी पीसीआर से गश्त कर रहे हैं। सेक्टर 55 क्षेत्र के एक पीसीआर (8800199...) में तैनात पुलिसकर्मी ने शुक्रवार (16 अक्टूबर) को खींजते हुए कहा कि वह किडनी का मरीज होते हुए भी मेरी शिकायत पर दो बार आया।
उम्रदराज और शरीर से काफी कमजोर पुलिसकर्मी ने अपने कर्तव्य को मेरे ऊपर किया अहसान बताने की कोई कसर नहीं छोड़ी। जब शिकायत लेकर 56 चौकी के इंचार्ज कश्मीर सिंह (पूछने पर यही नाम बताया था) के पास गया तो मेरी शिकायत लेना दूर मेरी बात सुनने से ही साफ इंकार कर दिया गया। काफी देर तक खड़े रहने पर जब मैंने विकल्प पूछा तो एक बार मेरी तरफ देखकर कश्मीर सिंह जी अपने दूसरे कागजी काम में तल्लीन हो गए। काफी देर बाद जब मीडियाकर्मी के तौर पर परिचय दिया तो मुझसे कहा गया अखबार में छाप दो। जब मैंने पूछा ‘सर अखबार क्या कानून है?’ मुझे कोई जवाब नहीं दिया गया। शिकायत नहीं लेने की वजह स्पष्ट नहीं की गई।
दूसरे दारोगा को फोन करने के लिए कहा गया। नंबर मांगने पर काफी देर टाल मटोली की गई और फिर जाकर झिड़कते हुए 9810915...नंबर दिया गया। कश्मीर सिंह की इस तरह की प्रतिक्रिया ने मेरे अंदर सिहरन पैदा कर दी। ऐसा महसूस हो रहा था अगर मैं अकेला होता तो चौकी में बैठे जनता के ये रक्षक मेरी जमकर कुटाई करते फिर जाकर आगे देखते। लेकिन, मेरे साथ एक प्रतिष्ठित पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और मेरा दोस्त था, जो बाहर बैठे हुए थे जिसकी वजह से मेरे अंदर थोड़ा हिम्मत बधी हुई थी।
उसके बाद भी पुलिस से असुरक्षा की प्रबल भावना मेरे अंदर घर कर रही थी। दारोगा (98109150..) ने शिकायत पत्र लेकर सेक्टर 56 के कम्युनिटी हॉल आने को कहा। वहां पहुंचने पर दारोगा जी ने फोन नहीं उठाया और काफी देर बाहर खड़े रहने के बाद दोस्त का फोन आया दारोगा जी चौकी पहुंच गए हैं। मेरे छोटे भाई को शराब के नशे में धुत्त उस व्यक्ति के साथ फर्श पर बैठाया गया जिसे मेरी शिकायत पर पुलिस चौकी लाया गया था। मेरे विरोध करने पर उसे उसके बगल से हटाया गया। क्या वो बच्चा खुद को अपराधी महसूस नहीं कर रहा होगा?
शिकायत पत्र की रिसिविंग नहीं दी गई। इससे पहले मुझे खुद ही नशे में धुत उस व्यक्ति को पकड़ कर लाने के लिए कहा गया जो हुड़दंग मचा रहा था। मेरे साथ थाने से कोई पुलिसकर्मी चलने को तैयार नहीं हुआ। काफी मशक्कत और बहसबाजी के बाद उस व्यक्ति को पकड़कर चौकी लाया गया। उस पर मुझे ही समझाते हुए मीडिया की धौंस नहीं जताने के लिए कहा गया जबकि मेरे साथ गए दो लोग इस बात के गवाह हैं कि मैं एक मीडियाकर्मी नहीं आम इंसान के हैसियत से चौकी गया था और जब हमें बिल्कुल नहीं सुना गया तब मजबूरन अपने पेशे का परिचय देना पड़ा। दारोगा (यादव) का स्वभाव जरूर थोड़ा नरम था और उनसे जब मैंने कश्मीर सिंह के व्यवहार के बारे में पूछा तो उन्होंने अपनी राय रखने में असमर्थता जता दी।
इस तरह करीब 3 घंटे से ज्यादा चौकी में गुजारने के बाद शिकायत का निराकरण हुआ। उस दिन महसूस हुआ जब एक प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान में काम करने पर भी मेरे अंदर पुलिस के नाम से इस तरह का खौफ व्याप्त हो सकता है तो आम इंसान के अंदर क्यों नहीं होता होगा? अगली बार पुलिस स्टेशन में शिकायत कराने से पहले मैं किसी क्राइम रिपोर्टर को फोन करुंगा, किसी बड़े अधिकारी से चौकी इंचार्ज से मेरी शिकायत सुनने की गुहार लगवाऊंगा...संभव हो तो दो-तीन लोगों को लेकर जाऊंगा.. अगर में ऐसा करुंगा तो आखिर क्यों? क्या ऐसा नहीं हो सकता मैं एक आम इंसान की तरह जाऊं और पुलिस मेरी शिकायत सुने और उसपर कार्रवाई करे!