समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाने से पहले अगर आपको डर लगता है, आप सोचते हैं कि आप अकेले क्या कर सकते हैं तो बापू की 151वीं जयंती के मौके पर हम आपको एक ऐसा किस्सा बताने जा रहे हैं, जिसे जानकर आप ये समझ जाएंगे कि लड़ाई की शुरुआत लोगों से पहले खुद से होती है, अगर आप तैयार हैं तो लोग आपके पीछे आएंगे.
Trending Photos
नई दिल्ली: इंग्लैंड (England) में पढ़ाई पूरी करने के बाद जब मोहनदास करमचंद गांधी (Mohandas Karamchand Gandhi) जहाज से बंबई उतरे तो उन्हें बेहद दुखद समाचार मिला. उनकी मां तब चली बसीं थीं जब वो इंग्लैंड में पढ़ाई कर रहे थे. लेकिन उन्हें ये खबर नहीं दी गई, ताकि वो अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें. इंग्लैंड से लौटने के बाद मोहनदास कुछ समय तक राजकोट में ही रहे, फिर एक दिन मन बनाकर उठे और बंबई जाकर वकालत करने का फैसला किया.
बंबई में रहकर उन्होंने कुछ दिन वकालत की लेकिन कोर्ट के माहौल से वो जल्द ही परेशान हो गए. अदालतों में रिश्वतखोरी, झूठी दलीलों और साजिश से उकताकर उन्होंने वहां से भी जाने का फैसला किया. वो वापस राजकोट लौट आए और किसी बेहतर मौके की तलाश करने लगे, और उन्हें वह मौका जल्द भी मिल गया.
दक्षिण अफ्रीका (South Africa) में मौजूद भारतीय मुस्लिम फर्म दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी (Abdulla Seth of Dada, Abdulla &Co.) ने अपने मुकदमे की पैरवी के लिए दक्षिण अफ्रीका में आने का न्यौता भेजा. मोहनदास को ये प्रस्ताव काफी पसंद आया वो साल 1893 के अप्रैल महीने में दक्षिण अफ्रीका चले गये.
जहाज में 6 हफ्ते के लंबे सफर के बाद मोहनदास डरबन पहुंचे जहां अब्दुल्ला सेठ ने उनका स्वागत किया. डरबन पहुंचने के बाद मोहनदास ने देखा कि यहां पर ज्यादातर व्यापारी मुसलमान थे या पारसी थे. मुसलमान खुद को अरब कहलाना पसंद करते थे और पारसी खुद को पर्शियन.
लेकिन यूरोपियन लोगों के लिए ये सभी सिर्फ 'कुली' थे, यूरोपीय लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि मुसलमान और पारसी कितना बड़ा काम करते हैं और किस धर्म से हैं. इसलिए मोहनदास भी जल्द ही 'कुली बैरिस्टर' के नाम से पहचाने जाने लगे.
अपने रंग की वजह से ट्रेन से मोहनदास को उतारे जाने का किस्सा ज्यादातर लोगों को पता है, लेकिन कम लोगों को ही मालूम होगा कि इससे पहले भी उन्हें रंगभेद का शिकार होना पड़ा था. वो भी एक कोर्ट के मजिस्ट्रेट ने किया था.
किस्सा कुछ यूं है कि एक बार कोर्ट में केस की सुनवाई के दौरान मोहनदास अपनी सीट पर बैठे हुए थे. तभी मजिस्ट्रेट ने उनकी तरफ इशारा किया और कठोरता से कहा
'तुम्हें अपनी पगड़ी उतारनी होगी'
गांधी जी चौंक गए. उन्होंने आस-पास देखा तो कई मुसलमान और पारसी लोगों ने पगड़ी पहनी हुई है, उन्हें समझ नहीं आया कि सिर्फ उनको ही क्यों पगड़ी उतारने के लिए कहा गया.
गांधी जी ने कहा 'सर, मुझे पगड़ी उतारने की कोई वजह समझ नहीं आती, मैं पगड़ी नहीं उतारुंगा'
मजिस्ट्रेट गुस्से से चिल्लाता हुआ बोला 'तुम इसे अभी उतारो'
इस पर गांधी जी अपनी सीट से उठे और कोर्ट से बाहर आ गए, अब्दुल्ला उनके पीछे पीछे भागे और गलियारे में उन्हें रोका और कहा- 'तुम समझे नहीं, मैं तुम्हें समझाता हूं कि ये गोरे लोग काले लोगों के साथ ऐसा बर्ताव क्यों करते हैं'
अब्दुल्ला ने कहा कि 'ये गोरे लोग भारतीयों को निचले दर्जे का मानते हैं और उन्हें कुली समझते हैं. जहां तक पारसी और मुसलमानों की बात है तो उन्हें पगड़ी पहनने की इजाजत इसलिए मिलती है क्योंकि उनके धर्म में ऐसा है'
अब्दुल्ला की बात सुनकर गांधी जी गुस्से से भर गए और बोले- 'मजिस्ट्रेट ने मेरा अपमान किया है, इस तरह का कोई भी कानून किसी आजाद मनुष्य के लिए अपमान है. मैं डरबन प्रेस में ऐसे अपमानजनक कानून के खिलाफ लिखूंगा.'
गांधी ने इस कानून के खिलाफ प्रेस में लिखा, जिसके छपते ही चारों तरफ इस अपमानजनक कानून की चर्चा होने लगी. रंगभेद नीति के खिलाफ इसे गांधी जी पहली लड़ाई माना जाता है. हालांकि अफ्रीका में उन्हें इसके बाद कई बार अपमान सहना पड़ा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. महात्मा गांधी ने डरबन में भारतीयों के लिए लड़ाई की शुरुआत की, जिनसे मताधिकार का हक छीना जा रहा था.
दरअसल, गांधी जी ने जब डरबन छोड़कर जाने का फैसला किया तो वहां के भारतीयों ने उन्हें रोक लिया. लोगों ने उनसे वहीं वकालत करने की अपील की. इसके बाद गांधीजी ने अपने आपको जनसेवा में समर्पित कर दिया. नाताल के सर्वोच्च न्यायालय में काफी परेशानियां झेलने के बाद अंत में उन्हें वहां के प्रमुख न्यायाधीश ने वकील के रूप में शपथ दिलाई. संघर्ष करके गांधीजी काले-गोरे का भेद मिटाकर सर्वोच्च न्यायालय के वकील बन गये.
ये भी पढ़ें: बापू ने इन कारों में सफर कर बना दिया यादगार, देखिए कौन सी हैं ये कारें