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B'Day Majrooh Sultanpuri: क्यों बाल ठाकरे के हाथों से अवॉर्ड लेने से किया मना, सुनिए अनसुनी कहानियां

मजरुह सुल्तानपुरी (Majrooh Sultanpuri) ने जहां एक ओर राज कपूर की फिल्मों में सेंटीमेंटल गीत दिए वहीं नासिर हुसैन की फिल्मों के गीतों से नौजवान दिलों को धड़काया. 

जब तात्कालिक प्रधानमंत्री नेहरू पर कसा तंज

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जब तात्कालिक प्रधानमंत्री नेहरू पर कसा तंज

मजरूह अपने व्यक्तित्व को दो हिस्सों में बांटकर रखते थे. एक तो था उनका असली रूप शायर का और दूसरा था बॉलीवुड गीतकार का. दोनों मजरूह में इतना अंतर है कि आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि यह एक ही लेखक की कलम है. जब बॉलीवुड वाले मजरूह कहते हैं, 'ओ मेरे दिल के चैन...' तो कोई कैसे अंदाजा लगा सकता है कि यही इंसान जब मुशायरे में बोलता है तो तात्कालिक प्रधानमंत्री को भी ललकारने के पीछे नहीं हटता और कहता है,  

'मन में ज़हर डॉलर के बसा के, फिरती है भारत की अहिंसा.  खादी की केंचुल को पहनकर,  ये केंचुल लहराने न पाए, मार लो साथी जाने न पाए,  कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू, मार लो साथी जाने न पाए.'

धर्मनिरपेक्षता के लिए बाल ठाकरे से नहीं लिया अवॉर्ड

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धर्मनिरपेक्षता के लिए बाल ठाकरे से नहीं लिया अवॉर्ड

मजरूह सुल्तानपुरी को साझी संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक के रूप में भी जाना जाता है. इसका सबूत है वह किस्सा जिसे आज भी याद किया जाता है. मजरूह ने बालासाहब ठाकरे के हाथों से उस दौर का फिल्मी दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण अवॉर्ड लेने से यह कहते हुए मना किया था कि जिन फिरकापरस्त ताकतों का हमने जीवन भर विरोध किया उनके हाथ से सम्मानित होना हमें कतई गवारा नहीं. ये उस दौर की बात है जब मुंबई और पूरे महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के विरोध में कोई एक शब्द भी नहीं कहता था. 

राज कपूर ने इस गाने के लिए दिए थे 1000 रुपए

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राज कपूर ने  इस गाने के लिए दिए थे 1000 रुपए

क्या आप जानते हैं कि मजरूह सुल्तानपुरी के एक गीत की राज कपूर ने 1000 रुपए कीमत अदा की थी. ये उस दौर की बात है जब एक गीत के लिए 10 से 50 रुपए ही मिला करते थे. तो आप भी सोच रहे होंगे कि आखिर ऐसा कौन सा गीत था कि राज कपूर ने कई सौ गुना पैसा मजरूह को यूं ही दे दिया. तो बात कुछ ऐसी है कि मजरूह अपने बागी शेरों के कारण सरकार की नजर में आ गए थे. उन्हें अपने वामपंथी विचारों के कारण जेल तक जाना पड़ा. मजरूह को सरकार ने सलाह दी कि अगर वे माफी मांग लेते हैं, तो उन्हें जेल से आजाद कर दिया जाएगा, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी इस बात के लिए राजी नहीं हुए और उन्हें दो वर्ष के लिए जेल भेज दिया गया. इस वजह से उनके परिवार की माली हालत खराब हो गई. वह काफी आर्थिक तंगी में आ गए. राज कपूर ने मदद करनी चाही तो आत्म सम्मान के मजबूत मजरूह ने साफ तौर पर मना कर दिया. जिसके बाद राज कपूर ने उनसे एक गाना लिखने को कहा और उसके लिए 1000 रुपए दिए. ये गाना था 'इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...' राज कपूर ने 1975 में इस गीत का अपनी फिल्म 'धरम करम' में उपयोग किया. 

साहिर के साथ झगड़ा और दोस्ती का किस्सा

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साहिर के साथ झगड़ा और दोस्ती का किस्सा

मजरूह सुल्तानपुरी यारों के यार थे. उनकी दोस्ती का एक किस्सा मोहम्मद मेहदी ने भी अपने इंटरव्यू में सुनाया था. यह किस्सा मजरूह और साहिर के झगड़े को लेकर है. मेहदी कहते हैं, 'साहिर कि मां की बीमारी का तार उन्हें मिला. उन दिनों वह किसी फिल्म के गाने लिखने में व्यस्त थे, जब उन्हें कुछ नहीं सूझा तो वो मजरूह के पास पहुंचे और कहा कि तुम मेरी फिल्म के बाकी बचे दो-तीन गाने लिख दो और गानों की रिकॉर्डिंग के वक्त स्टूडियो में डायरेक्टर कि मदद के लिए हाजिर रहना. साहिर कि मां की बीमारी की बात थी तो मजरूह ने भी कहा कि ठीक है तुम जाओ मैं तुम्हारा काम संभाल लूंगा'.

इसके आगे मेहदी ने बताया, 'साहिर कुछ ज्यादा ही दिन के लिए मां के पास रुक गए. वापस आये और जब उन्हें उनके फिल्मी गीतों का पेमेंट मिला तो वो पैसे लेकर मजरूह के पास गए और उन्हें उनके लिखे तीन गानों के पैसे देने लगे, मजरूह ने साफ मना कर दिया कि नहीं मैं पैसे नहीं लूंगा.'

बात बढ़ गई तो फिर मेहदी को बीच में आना पड़ा. मेहदी ने कहा, 'साहिर और मजरूह दोनों ही अड़े हुए थे. जब झगड़ा काफी बढ़ गया तो दोनों मेरे पास आए, साहिर कहने लगे देखो मेहदी ये मुझसे पैसे नहीं ले रहा है. मैंने सारा किस्सा सुना और कहा कि साहिर मजरूह अगर पैसे नहीं ले रहा है तो क्या गलत कर रहा है, आखिर उसने अपने दोस्त की मदद ही की है. अब तुम उसे पैसे दोगे तो ये तो बहुत गलत बात है.' इसके बाद दोनों का ये प्यार वाला झगड़ा खत्म हुआ. 

इस शायर ने बॉलीवुड में लिखने के लिए मनाया

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इस शायर ने बॉलीवुड में लिखने के लिए मनाया

मजरूह के फिल्मी करियर की बात करें तो यह फिल्म 'शाहजहां' (1946) से शुरू होता है. ये किस्सा भी बड़ा दिलचस्प है, जिसका जिक्र खुद जिगर मुरादाबादी ने अपने एक इंटरव्यू में किया था. बात है 1945 की है जब मजरूह सुल्तानपुरी एक मुशायरे के लिए मुंबई आए. इस मुशायरे में उन्होंने अपनी गजलों ने महफिल लूट ली, उनके नाम की धूम मच गई. इसी मुशायरे में फिल्म निर्माता कारदार भी श्रोता बनकर आए थे. मुशायरा खत्म हुआ तो कारदार साहब ने जिगर मुरादाबादी से मजरूह के बारे में बात करते हुए उनसे गीत लिखवाने कि इच्छा जताई. जिगर ने मजरूह को यह संदेशा पहुंचाया तो मजरूह ने सिरे से इस बात को नकार दिया. बोले,  'नहीं मैं फिल्मों के लिए नहीं लिखूंगा'. इसके बाद जिगर मुरादाबादी ने समझाया कि इसमें काफी पैसे मिलते हैं तो मजरूह समझ गए और इस तरह नौशाद-मजरूह कि जोड़ी ने 'शाहजहां' में एक साथ काम किया और बॉलीवुड के कभी न भुलाए जाने वाले गीत दिए. 

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