Matto Ki Cycle Movie Review: प्रकाश झा की एक्टिंग के लिए देखिए, बृज भाषी हों तो देखिए
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Matto Ki Cycle Movie Review: प्रकाश झा की एक्टिंग के लिए देखिए, बृज भाषी हों तो देखिए

Matto Ki Cycle: 16 सितंबर से 'मट्टो की साइकिल' फिल्म रिलीज हो रही है. देखने से पहले पढ़िए फिल्म का रिव्यू.

मट्टो की साइकिल

स्टार कास्ट: प्रकाश झा, अनीता चौधरी, आरोही शर्मा

निर्देशक:  एम गनी 

स्टार रेटिंग: 2.5

कहां देख सकते हैं: थिएटर्स में

Matto Ki Cycle Review: सुभाष घई कभी हीरो बनने आए थे, तब से अपनी हर मूवी में वो कुछ सेकंड्स के लिए आते रहे हैं. प्रकाश झा ने बड़ी यादगार फिल्में बतौर डायरेक्टर दी हैं, आज भी लोग 'गंगाजल', 'अपहरण', 'राजनीति', 'आरक्षण' आदि भूले नहीं हैं. लेकिन वो घई साहब की तरह संतोषी नहीं हैं, राजनीति से लेकर बिजनेस तक, एंकरिंग से लेकर एक्टिंग तक किसी भी क्षेत्र में कूद जाते हैं. ऐसे में एक्टिंग तो वो पहले भी कर चुके हैं, 'सांड की आंख' और 'जय गंगाजल' जैसी मूवीज में,  लेकिन इस बार ये मूवी एक्टिंग में अवार्ड के लिए की गई है. बुसान फिल्म फेस्टिवल में 2 साल पहले प्रीमियर की गई उनकी मूवी 'मट्टो की साइकिल' अब भारत में रिलीज हो रही है. 16 सितंबर से आप थिएटर्स में देख सकेंगे. 

साइकिल है जीवन की सवारी

कहानी है एक मजदूर मट्टो (प्रकाश झा) की, जिसकी 2 बेटियां हैं, और यूपी के मथुरा जिले की भरतिया पंचायत के एक गांव में रहता है. बेहद गरीब है, घर में बने मोदी सरकार के टॉयलेट यानी इज्जतघर में ताला लगाकर रखता है और खेत में शौच करने जाता है. उसके पास पैसे नहीं लेकिन हर सीन में बीड़ी फूंकता दिखता है.

 उसका घर चलाने में उसकी साइकिल का बड़ा हाथ है, चूंकि गांव काफी इंटीरियर में है, शहर से कई किलोमीटर दूर है, इसलिए मजदूरी के लिए शहर आने जाने में समय से पहुंचाने के लिए साइकिल के अलावा और कोई बेहतर साधन नहीं है. साइकिल को लेकर वो इतना इमोशनल है कि एक कार वाले तक से भिड़ जाता है. 

छोटी चीजों में खुशी ढूंढता परिवार

उसकी पत्नी के रोल में अनीता चौधरी हैं, जिनका पथरी का ऑपरेशन होना हैं, बेटी बड़ी हो गई है, लड़के वाले दहेज में बाइक मांग रहे हैं और बेटी मोतियों की माला बनाकर कुछ पैसे इकट्ठे कर रही है. उसका एक एकतरफा प्रेमी भी है, जो लगातार उसे राजी करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन मट्टो बस पैसे कमाने में लगा है. एक दिन अचानक मट्टो की साइकिल पर ट्रैक्टर चढ़ जाता है, फिर कबाड़ी उसके हाथ में 300 रुपए पकड़ा देता है. मट्टो का दोस्त कल्लू मेकेनिक उसकी मदद करता है, कुछ पैसा ठेकेदार से, कुछ साहूकार से ब्याज पर मिलता है और कुछ उसकी बेटी देती है.

साइकिल मिलने के बाद मट्टो की खुशी देखने लायक है, वो मानो हवा पर सवार हो जाता है, पूरा परिवार बेहद खुश है, अचानक से कुछ ऐसा होता है कि फिर से मट्टो की खुशियों में आग लग जाती है. 

साइकिल की खोज

हालांकि जो लोग विश्व सिनेमा में दिलचस्पी रखते हैं, उनको इटालियन फिल्मकार व्यूटोरिया डी सिका की मूवी 'बायसाइकिल थीफ' (1948) याद होगी. उसकी कहानी का मूल प्लॉट इस मूवी से काफी मिलता जुलता है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद उन्हीं लोगों को जॉब मिल रही थी, जिन पर साइकिल थी. लेकिन हीरो जिसने बमुश्किल साइकिल खरीदी थी, तब परेशान हो जाता है जब उसकी साइकिल चोरी चली जाती है, यानी साइकिल नहीं तो जॉब नहीं. 

अब बाकी की मूवी बेटे के साथ साइकिल खोजने में है और डायरेक्टर उसके जरिए यूरोप की बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, लोगों की परेशानियां दिखाता है. एक दिन तो वो किसी की साइकिल ही चुरा लेता है, फिर पकड़ा जाता है. प्रकाश झा की मूवी में यहीं थोड़ा बदलाव है, वह साइकिल खोजता है तो प्रधान और पुलिस स्टेशन के चक्कर लगाता है, जो उसके साथ बुरा बरताव करते हैं

हीरो को दिखाया गया गरीब

प्रकाश झा की मूवी बस ये दिखाती है, दुनियां भले ही सारे जहां से अच्छा गाए, गरीब की कोई नहीं सुनता, हालांकि मूवी में मट्टो के भी गरीब सही पर दो दोस्त हैं. ऐसे में ये स्पष्ट है कि मूवी कमर्शियल उद्देश्य से नहीं बनाए गई, प्रकाश झा उसको इंटरनेशनल फेस्टिवल्स में ले जाकर कोई अवार्ड लेना चाहते थे.

चूंकि हीरो को गरीब दिखाना था, सो इसके लिए बिहार के बजाय यूपी के मथुरा को चुना गया. सारे किरदार बृज भाषा बोलते हैं, हालांकि स्थानीय कलाकार फर्राटेदार तरीके से बोलते हैं, लेकिन प्रकाश झा हंभे, हैगो या भई जैसे शब्द तो बोल लेते हैं लेकिन उनके खाते में कोई लंबा डायलॉग नहीं आया. वो ज्यादातर एक्टिंग अपने गेटअप या हाव भाव से ही करते दिखे. बाकी किरदार अपने अपने रोल में ठीक ही लगे हैं, बीच में कुछ फनी सीन्स के जरिए दर्शकों को थोड़ी राहत मिलती है, वरना फर्स्ट हाफ काफी स्लो था.

हीरो से जुड़ाव करेंगे महसूस

कुल मिलाकर प्रकाश झा न हों तो आप शायद ये मूवी देखने ही न जाएं, जिसने बायसाइकिल थीफ देखी होगी, वो अगर किसी भी अवार्ड ज्यूरी में हुआ तो प्रकाश झा के लिए मुश्किल हो सकता है. हां, उन्हें नेशनल अवार्ड में जरूर मौका मिल सकता है. चूंकि आप धीरे-धीरे हीरो के साथ ऐसे जुड़ जाते हैं कि आपको उससे सुहानुभूति होने लगती है और यही प्रकाश झा की एक्टिंग और डायरेक्टर एम गनी की जीत है. 

वैसे भी फिल्म का सेट, किरदार, उनके गेट अप, भाषा आदि बिल्कुल सामान्य लगें, इसके लिए काफी मेहनत साफ दिखती है. यहां तक कि प्रकाश झा की छोटी बेटी का रोल कर रही लड़की जब मर्दाना लिंग में बात करती है कि पहले साइकिल मैं चलांगो, मैं ना दुंगो.. तो ये बात भी बृज में आम है कि गांव की कई लड़कियां लंबे समय तक लड़कों की तरह बात करती हैं, बिना लिंग भेद के. 
 

 

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