आज़ादी की 70वीं वर्षगांठ: मीलों हम आए हैं, मीलों हमें जाना है...
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आज़ादी की 70वीं वर्षगांठ: मीलों हम आए हैं, मीलों हमें जाना है...

दुनिया में हम आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहे हैं वहीं उड़ीसा में एक आदिवासी अपनी पत्नी के शव को कंधे पर ले कर के जाता है. विदेशों में मेडल जीत कर देश का नाम रोशन करने वाले खिलाड़ी कई बार अपने ही देश में दो वक़्त कि रोटी को तरस जाते हैं.

आजादी की 70वीं वर्षगांठ पर लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (PHOTO : Narendra Modi/Twitter)

(हम विरोधाभासों के समय में जी रहे हैं जहाँ एक तरफ़ तो चंद्रमा और मंगल पर भी तिरंगा लहरा रहा है, वहीं कश्मीर में उसी तिरंगे को जलाया जा रहा है और उसमे लपेट कर के हमारे वीर सैनिकों की लाशें वापिस आ रही हैं.)

एक कृतज्ञ राष्ट्र बड़े धूम-धाम से आज इकहत्तरवां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. सब तरफ राष्ट्र-प्रेम का माहौल है और हर कोई इस भावना से ओत-प्रोत है. एक पाँच हज़ार पुरानी सभ्यता से निहित राष्ट्र कि आयु में सत्तर वर्ष वैसे तो कोई बहुत बड़ी अवधि नहीं है, लेकिन ये वक़्त हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था और चेतना के लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण माना जाएगा. इन सत्तर सालों में हमने अनेक चुनौतियों का सामना किया, यातनाएं सहीं, युद्ध झेले, लेकिन फिर भी आगे बढ़ते रहे और उन तमाम विदेशी विद्वानों और राजनीतिज्ञों को ग़लत साबित किया जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के वक़्त यह भविष्यवाणी की थी कि स्वतंत्र भारत अपनी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण बहुत जल्द ही खंडित हो जाएगा. 

यह किसी भी सुखद आश्चर्य से कम नहीं है कि इन सब विषम परिस्थितियों के बावजूद भी हम एक राष्ट्र-राज्य के रूप में आज भी संगठित, प्रगतिशील और लोकतान्त्रिक हैं. इसका श्रेय भारत के जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ देश के हर जवान, हर किसान, हर नागरिक को भी जाता है जिसने अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र की क़ीमत को समझते हुए उसके साथ कभी कोई समझौता नहीं होने दिया. आज़ादी के समय जिन मूल्यों और आदर्शों को हम लेकर चले थे उनके साथ हम कितना न्याय कर पाए हैं यह एक चिंतन, वाद-विवाद का विषय ज़रूर हो सकता है, लेकिन कोई भी इस बात को अस्वीकार नहीं कर सकता कि किसी भी अन्य उत्तर-औपनिवेशिक (post-colonial) राज्य की अपेक्षा हम बहुत ही बेहतर स्थिति में हैं. मसलन जिस देश में एक मामूली-सी सुई भी आयात की जाती थी आज वहां पर हवाईजहाज़ और जटिल कंप्यूटर/उपकरण भी भारी मात्रा में बनने, और यहाँ तक की निर्यात होने लगे हैं.

भारत की कहानी पूरी दुनिया से अलग तो है ही, पूरी दुनिया के लिए उदाहरण भी है. विविधता और विकास के पहियों को एक साथ समान गति से चलाना किसी भी देश के लिए आसान नहीं रहा है. जिन देशों में विकास की दौड़ में कुछ सामजिक समूह पीछे रह गए वहां गृह-युद्ध (सिविल-वॉर) की नौबत आ गई और जो देश सबको साथ लेने की कोशिश करते रहे वहां विकास नहीं हो पाया. हमने अपने संविधान के माध्यम से विविधता को सम्मिलित किया और राजनीति के माध्यम से उनको विकास की मुख्य-धारा से भी जोड़ा. लोकतान्त्रिक रूप से हम कितने प्रभावशाली रहे इसका सबसे जीता-जागता उदाहरण आज हमारे सामने है जब देश के सर्वोच्च पद पर बैठा एक व्यक्ति दलित (राष्ट्रपति श्रीमान कोविंद) और दूसरा पिछड़े वर्ग (प्रधानमंत्री मोदी) से आता है, जिन समूहों को कभी सबसे कमज़ोर और हाशिये पर माना जाता था. 

राजनीतिक-वैज्ञानिक योगेन्द्र यादव ने अपनी अवधारणा ‘सेकंड डेमोक्रेटिक अपसर्ज’ में भारतीय लोकतंत्र की इसी विशेषता के ऊपर चर्चा कर के बताया है कि नब्बे के दशक में किस तरह से क्षेत्रीय दलों और सामाजिक रूप से पिछड़ी और कमज़ोर जाति के नेताओं का उभार हुआ है, जिससे इन समूहों में लोकतंत्र के प्रति आस्था बढ़ी है जो कि लोकतान्त्रिक चेतना और सामजिक-न्याय दोनों के लिए आवश्यक है. आज भारत केवल दिल्ली नहीं है और देश का हर हिस्सा अपने आप को इसका भागीदार मानता है, फिर चाहे वो कश्मीर हो या कन्याकुमारी, कच्छ हो या कोहिमा.

लोकतंत्र के तीनों स्तंभों (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका) के ऊपर नज़र रखने वाला चौथे स्तम्भ ‘मीडिया’ (खबरपालिका) ने स्वतंत्र भारत में अपने पारंपरिक किरदार यानि पहरेदार (वॉचडॉग) होने से भी ज़्यादा योगदान दिया है. तरह-तरह की सामाजिक कुरीतियों, राजनीति के चाल-चलन, महिला सुरक्षा, हिंसा, भ्रष्टाचार आदि हर मुद्दे पर मीडिया की परिपक्व मुखरता ने देश और समाज में जागरुकता को कभी मरने नहीं दिया. पिछले कुछ दशकों में साक्षरता बढ़ने के साथ-साथ जिस तरह देश में समाचारपत्रों और उनके पाठकों की संख्या में भारी इज़ाफ़ा हुआ है उस से इतना तो तय है कि इस देश में अब कोई भी सरकार इंदिरा गाँधी द्वारा घोषित आपातकाल लगाने वाली भूल तो नहीं करेगी. 

अंग्रेजी के वर्चस्व से लोहा लेता हुआ हिंदी तथा क्षेत्रीय भाषाओं का मीडिया तेज़ी से उभरा, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को और व्यापक और तर्कसंगत बना रहा है. और इस डिज़िटल युग में सोशल मीडिया ने तो एक नई क्रांति को जन्म दिया है जिससे आज हर व्यक्ति एक पत्रकार है, और जिसके उदय से स्थापित मीडिया को भी अपने तौर-तरीक़ो को बदलना पड़ा है. अब प्रधानमंत्री से लेकर अपने नगर के विधायक तक से जनता सोशल माध्यम से जुड़ी हुई है और अपनी समस्याओं और विचारों को उन तक पहुंचा रही है.

लेकिन इस ग़फ़लत में रहना बिलकुल भी ठीक नहीं है कि देश में सब कुछ अच्छा चल रहा है, चिंता करने कि कोई बात नहीं हैं. हम विरोधाभासों के समय में जी रहे हैं जहाँ एक तरफ़ तो चंद्रमा और मंगल में भी तिरंगा लहरा रहा है, वहीं कश्मीर में उसी तिरंगे को जलाया जा रहा है और उसमे लपेट कर के हमारे वीर सैनिकों की लाशें वापिस आ रहे हैं. देश में एम्स जैसे विश्वस्तरीय स्वास्थ्य-संस्थान हैं जो दुनिया भर में मशहूर हैं, वहीं गोरखपुर में तथाकथित रूप से ऑक्सीजन की कमी से 70 बच्चों के मरने जैसी घटनाएं भी होती हैं. एक तरफ़ देश की महिलाएं खेल, विज्ञान, सेना आदि हर क्षेत्र में नया परचम लहरा रहीं है वहीं दिल्ली की सड़कों पर ही वो सुरक्षित नहीं है. आए दिन कोई न कोई बलात्कार, छेड़-छाड़, दहेज-हत्या की ख़बर आती ही रहती है जो हमे यह याद दिलाती है कि अभी भी हमें कितना लम्बा सफ़र तय करना है. 

दुनिया में हम आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहे हैं वहीं उड़ीसा में एक आदिवासी अपनी पत्नी के शव को कंधे पर ले कर के जाता है. विदेशों में मेडल जीत कर देश का नाम रोशन करने वाले खिलाड़ी कई बार अपने ही देश में दो वक़्त कि रोटी को तरस जाते हैं. इन सब विरोधाभासों को ख़त्म करना सरकार के साथ-साथ समाज की भी नैतिक ज़िम्मेदारी है. विकास की दौड़ में हम सामाजिक समता और समरसता को पीछे नहीं छोड़ सकते. स्वामी विवेकानंद, तिलक ,गाँधी, अंबेडकर आदि महान विभूतियों के सपनों के भारत को हम तब तक नहीं पूरा कर सकते जब तक हम ख़ुद को नहीं बदलते. यह कम बहुत मुश्किल नहीं है. अपने घर के सामने पड़ा कूड़ा ही आप कूड़े-दान में डाल दीजिये. शुरुआत इसी से हो जाएगी.

(लेखक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एम.फिल. के रिसर्च स्कॉलर हैं, उनसे pavanchaurasia.jnu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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