आजादी पर लिखी अटल बिहारी वाजपेयी की ऐसी कविता, जिससे आज तक चिढ़ता है पाकिस्तान
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आजादी पर लिखी अटल बिहारी वाजपेयी की ऐसी कविता, जिससे आज तक चिढ़ता है पाकिस्तान

15 अगस्त 1947 को देश तो आजाद हो गया, दिन भर हर्षोल्लास भी रहा, लेकिन कहा जाता है कि कानपुर में डीएवी कॉलेज के हॉस्टल में अटलजी निराश थे. वो अखंड भारत की आजादी चाहते थे, बंटवारे के खिलाफ थे. तब उन्होंने एक कविता लिखी- ‘स्वतंत्रता दिवस की पुकार’.  

(फाइल फोटो)

नई दिल्ली: अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) की यूं तो तमाम कविताएं उनके विरोधी भी गुनगुनाते हैं. लेकिन उनकी 2 कविताएं ऐसी हैं, जो केवल राष्ट्रवादी खेमे को भाती हैं. उनकी इन दोनों कविताओं को लेकर विरोधी खेमे में खासी एलर्जी रही है, यहां तक कि पाकिस्तानियों को काफी चिढ़ होती है. इनमें से एक कविता है- ‘तन मन हिंदू मेरा परिचय..’ जबकि दूसरी कविता अटलजी ने उस वक्त लिखी थी, जब उन्हें कोई जानता तक नहीं था. ये कविता उन्होंने एक बड़े ही खास दिन लिखी थी. 

वो दिन था आजादी का, 15 अगस्त 1947 का दिन. देश तो आजाद हो गया, दिन भर हर्षोल्लास भी रहा, लेकिन कहा जाता है कि कानपुर में डीएवी कॉलेज के हॉस्टल में अटलजी निराश थे. वो अखंड भारत की आजादी चाहते थे, बंटवारे के खिलाफ थे. तब उन्होंने एक कविता लिखी- ‘स्वतंत्रता दिवस की पुकार’.  

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आप इस पूरी कविता को यहां पढ़ सकते हैं और पढ़ने के बाद आपको अंदाजा हो जाएगा कि पाकिस्तानी और टुकड़े-टुकड़े गैंग वाजपेयी की इस कविता से क्यों चिढ़ता है-

‘पन्द्रह अगस्त का दिन कहता, आजादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ न पूरी है॥
जिनकी लाशों पर पग धर कर, आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश, गम की काली बदली छाई॥
कलकत्ते के फुटपाथों पर, जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥
हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते, यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो, सभ्यता जहां कुचली जाती॥
इंसान जहां बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है।
इस्लाम सिसकिया भरता है, डॉलर मन में मुस्काता है॥
भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है गमगीन गुलामी का साया॥
बस इसीलिए तो कहता हूं आजादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊं मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएंगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएंगे॥
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएं, जो खोया उसका ध्यान करें॥ 

अटल बिहारी वाजपेयी ने ये कविता कई बार स्टेज से सुनाई और उनकी किताब ‘मेरी इक्यावन कविताएं’ में शामिल की गई. अगर आप इस कविता को अटलजी की आवाज में सुनना चाहें, तो आप यहां क्लिक कर सुन सकते हैं.

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