Trending Photos
ZEE News Time Machine: ज़ी न्यूज की स्पेशल टाइम मशीन में आज हम आपको ले चल रहे हैं साल 1963 में. जब देश को आजादी मिले 16 साल हो गए थे. जब भारत ने अपना पहला रॉकेट लॉन्च किया था. इसी साल गणतंत्र दिवस के मौके पर RSS को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने परेड में शामिल होने का न्योता दिया था. ये वही साल था जब देशभक्ति का सबसे बड़ा गाना सिगरेट के एक कागज पर लिखा गया था. इसी साल जम्मू-कश्मीर से हजरत मोहम्मद पैगंबर साहब की आखिरी निशानी गायब हो गई थी. इसी साल भारत ने मोर को अपना राष्ट्रपक्षी चुना था. आइये आपको बताते हैं साल 1963 की 10 अनसुनी अनकही कहानियों के बारे में..
सिगरेट के फॉयल पेपर पर लिखा गया 'ऐ मेरे वतन के लोगों'!
मशहूर देशभक्ति गीत, ऐ मेरे वतन के लोगों, भारत-चीन युद्ध के बाद लिखा गया था. ये गाना भारत के सबसे मशहूर देशभक्ति गीतों में एक है. 27 जनवरी 1963 को जब लता मंगेशकर ने इसे राष्ट्रपति डॉक्टर एस. राधाकृष्णन और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की मौजूदगी में दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में गाया था तब नेहरू की आंखें नम हो गईं थीं. उस वक्त नेहरू ने कहा था कि हर सच्चा भारतीय इस गीत से प्रभावित होगा. लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी कि पहली बार में लता मंगेशकर ने ऐ मेरे वतन के लोगों गीत को गाने से इनकार कर दिया था. तब आशा भोसले को इसे गाने के लिए बुलाया गया. जब आशा भोसले ने ये गीत सुना तो उन्होंने लता से कहा था कि वही इस गाने को बेहतर ढंग से गा सकती हैं. इस गाने से जुड़ा एक और दिलचस्प किस्सा है. इस गीत को लिखने वाले कवि प्रदीप ने बताया कि जब ये गाना मेरे दिमाग में आया था, तब मैं बॉम्बे के माहिम बीच पर टहल रहा था. उस वक्त मेरे पास कोई कलम या कागज नहीं था, इसलिए मैंने वहां से गुजर रहे एक अजनबी शख्स से कलम मांगी और सिगरेट की डिब्बी की एल्युमिनियम फॉयल पर इस गाने की पंक्तियां लिख ली थीं.
नेहरू के न्योते पर गणतंत्र परेड में शामिल हुई RSS
1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान RSS यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा सीमा पर किए गए कार्यों से पंडित जवाहर लाल नेहरू काफी प्रभावित थे. इसी वजह से उन्होंने RSS कार्यकर्ताओं को 26 जनवरी 1963 को होने वाली गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने का न्योता भेजा था. 1963 में पंडित नेहरू ने कई सामाजिक संगठनों को गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था. लेकिन चीन के हाथों हार से नाराज कई संगठनों ने नेहरू का न्योता ठुकरा दिया और गणतंत्र दिवस परेड में हिस्सा नहीं लिया. गणतंत्र दिवस परडे से 2 हफ़्ते पहले नेहरू ने RSS को भी न्योता भेजा था. जिसके बाद RSS के करीब 3000 कार्यकर्ता गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल हुए थे.
हजरतबल दरगाह से पैगंबर की निशानी चोरी!
बंटवारे के बाद से ही जम्मू-कश्मीर की राजनीति में उठा-पटक जारी थी. लेकिन 1963 में एक ऐसी घटना हुई, जिससे कश्मीर ही नहीं, बल्कि पूरा हिंदुस्तान, पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान भी दहल उठा. हुआ यूं कि श्रीनगर की हजरतबल दरगाह में रखी पैगंबर मोहम्मद साहब की आखिरी निशानी ‘मू-ए-मुकद्दस’ अचानक गायब हो गई. 26 और 27 दिसंबर, 1963 की रात दरगाह से हजरत मोहम्मद पैगंबर साहब की आखिरी निशानी के तौर पर रखा उनकी दाढ़ी का मुकद्दस बाल जिसे ‘मू-ए-मुकद्दस’ के नाम से जाना जाता है, वो रहस्यमय ढंग से गायब हो गया. ये घटना बहुत बड़ी थी, लिहाजा पूरा कश्मीर सुलग उठा. घटना के अगले ही दिन 50 हजार लोग काले झंडे लेकर दरगाह के सामने इकट्ठा हो गए. कश्मीरी नेताओं ने लाल चौक पर सभाएं कीं, जिनमें एक लाख लोग जुटे. गुस्साए लोगों ने कश्मीर रेडियो स्टेशन जलाने की भी कोशिश की. पूर्वी पाकिस्तान जिसे अब बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है, वहां दंगे भड़क गए जिनमें तकरीबन 400 लोग मारे गए. जान खतरे में देख हजारों हिंदुओं ने भारत की ओर पलायन कर दिया. पाकिस्तान के कराची में जिन्ना की मजार तक जुलूस निकाला गया.एक हफ्ते तक हिंसा और हंगामे के बाद आखिरकार चार जनवरी, 1964 को ‘मू-ए-मुकद्दस’ वहीं से मिला, जहां से चोरी हुआ था. लेकिन तब से लेकर आज तक ये रहस्य बना हुआ है आखिर उसे चोरी किसने किया था, सरकार ने भी कभी 'मू-ए-मुकद्दस' के चोरों के नाम जाहिर नहीं किए.
जब मोर बना राष्ट्र पक्षी
1963 में मोर को भारत का राष्ट्रपक्षी चुना गया था. राष्ट्रपक्षी के चयन की तैयारी 1961 से ही शुरू कर दी गई थी. 1961 में भारतीय वन्य प्राणी बोर्ड की मीटिंग में राष्ट्रीय पक्षी के चयन के लिए सारस, ब्राह्मिणी, बस्टर्ड और हंस के नामों पर चर्चा हुई, लेकिन इन सब में मोर को सर्वश्रेष्ठ मानकर उसका नाम चुना गया था. मोर को राष्ट्रपक्षी चुनने के कई कारण थे. राष्ट्रीय पक्षी उसे चुना जाना था जो देश के सभी हिस्सों में मौजूद हो. आम आदमी जिस पक्षी को आसानी से पहचान लें. वो पक्षी भारतीय संस्कृति और परंपरा का हिस्सा हो. मोर केवल एक सुंदर पक्षी ही नहीं है बल्कि इसे हिंदू धर्म और मान्यताओं में काफी ऊंचा दर्जा हासिल है. मोर को भगवान कार्तिकेय का वाहन माना जाता है. मोर बहुत ही शांत और शर्मीला पक्षी है. सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के राज्य में जो सिक्के चलते थे, उनके एक तरफ मोर बना होता था. मुगल बादशाह शाहजहां जिस तख्त पर बैठते थे, उसका आकार भी मोर जैसा था.इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए 26 जनवरी 1963 के दिन मोर को भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया था.
जब फैला डक प्लेग
1963 में पश्चिम बंगाल में एक ऐसा प्लेग फैला था, जिसने किसानों को तंगी के अंधकार में धकेल दिया था. उस प्लेग का नाम था, डक प्लेग यानी कि बतख प्लेग. आजादी के बाद पश्चिम बंगाल में किसानों की आजीविका का मुख्य साधन बतख पालन था. बतख पालन किसानों के लिए फायदेमंद व्यवसाय था, इससे किसानों की अच्छी कमाई होती थी. बतख पालन कम खर्चीला था और बतखों को बहुत देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती थी. इस रोजगार में किसानों को बतख और अंडा दोनों बेचकर अच्छी कमाई होती थी. लेकिन 1963 में बतख पालन के धंधे पर प्लेग का साया पड़ गया. बतखों में फैले इस प्लेग को डक प्लेग के नाम से जानते हैं. इस बीमारी की वजह से एक ही दिन में हजारों बतखों की मौत हो रही थी. पश्चिम बंगाल में 1963 में फैले डक प्लेग की वजह से लाखों बतखों की जान चली गई थी.
भारतीय वायु सेना को मिला पहला मिग-21
1963 में भारतीय वायु सेना को मिला आसमान का प्रहरी मिकोयान गुरेविच मिग 21 जिसे मिग 21 के नाम से भी जाना जाता है. 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद भारतीय सेना की ताकत बढ़ाने के लिए भारत ने सोवियत संघ से मिग-21 फाइटर प्लेन खरीदे. उस वक्त भारत के पास मिराज-थ्री और द स्टारफाइटर जैसे लड़ाकू विमान खरीदने के भी विकल्प थे, लेकिन भारत ने मिग-21 को चुना. क्योंकि मिग 21 की निर्माण लागत कम थी. इसमें टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण का प्रावधान था. मिग 21 सोवियत संघ के उन्नत लड़ाकू विमानों में एक है. इसका वजन दूसरे लड़ाकू विमानों के मुकाबले कम था और इसकी मारक क्षमता भी औरों से अच्छी थी. आधुनिक टेक्नॉलजी और बेहतर क्वॉलिटी का विमान होने की वजह से भारत ने उस वक्त कुल 874 मिग-21 विमानों को अपने बेड़े में शामिल किया था. इनमें से ज्यादातर विमानों को भारत में ही बनाया गया था.
देश का पहला रॉकेट साइकिल से लॉन्चपैड तक पहुंचा था
1963 में भारत ने अपना पहला रॉकेट लॉन्च किया था. हालांकि भारत में रॉकेट सिस्टम पर रिसर्च 1962 में ही शुरू हो गई थी. तब ये प्रोजेक्ट होमी जहांगीर भाभा और विक्रम साराभाई के नेतृत्व में शुरू हुआ था. इस प्रोजेक्ट को सफलता मिली 21 नवंबर 1963 को जब भारत ने थुम्बा से अपना पहला रॉकेट लॉन्च किया. आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत ने पहले रॉकेट को लॉन्च करने के लिए, नारियल के पेड़ों से लान्च पैड तैयार किया था. उस समय तिरुवनंतपुरम के सेंट मैरीज चर्च को मुख्य कार्यालय बनाया गया था और वैज्ञानिकों की प्रयोगशाला के तौर पर बिशप हाउस का इस्तेमाल किया गया था. उस समय अनुंसधान के क्षेत्र में ना तो ज्यादा साधन होते थे और ना ही ज्यादा सुविधाएं मिलती थीं. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिकों ने पहले राकेट को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए साइकिल का इस्तेमाल किया था और दूसरा रॉकेट जो कि काफी बड़ा और भारी था, उसे लाने के लिए बैलगाड़ी का प्रयोग किया गया था. हालांकि तमाम मुश्किलों के बावजूद भारत ने अपना पहला सॉउन्डिंग रॉकेट सफलतापूर्वक लॉन्च किया था.
63 में चमकी चांदनी!
1963 में जन्म हुआ उस चांदनी का, जिसकी चमक के आगे फिल्मों का सुनहरा पर्दा भी फीका पड़ गया. 1963 में जब सिनेमा बदलाव के दौर से गुजर रहा था, उसी दौर में जन्म हुआ अम्मा येंगर अयप्पन यानी श्रीदेवी का. महज 4 साल की उम्र से ही श्रीदेवी ने फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया था. हिंदी फिल्मों में आने से पहले श्रीदेवी तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम फिल्मों में काम कर चुकी थीं. चार दशकों तक सिल्वर स्क्रीन पर अपने सौंदर्य और अदाकारी की चांदनी बिखेरने वाली श्रीदेवी ने हिंदी फिल्मों में लीडिंग हीरोइन के तौर पर फिल्म सोलहवां सावन से शुरुआत की थी. लेकिन एक अदाकारा के तौर पर श्रीदेवी के बड़ी पहचान दिलाई फिल्म सदमा ने. उसके बाद तो श्रीदेवी के करियर ने वो रफ्तार पकड़ी कि उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. श्रीदेवी ने खुदा गवाह, मिस्टर इंडिया, चांदनी, हिम्मतवाला, तोहफा, नगीना, औलाद, हीर रांझा, रूप की रानी चोरों का राजा, लाडला, जुदाई और इंगलिश विंगलिश जैसी यादगार फिल्में दीं. श्रीदेवी 50 वर्षों तक अभिनय की दुनिया में सक्रिय रहीं और इस दौरान उन्होंने करीब 300 फिल्मों में काम किया. 24 फरवरी 2018 को श्रीदेवी का दुबई में निधन हो गया.
आजाद भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री!
1963 में यूपी में कांग्रेस के दो धड़े हो गए. एक तरफ कमलापति त्रिपाठी तो दूसरी तरफ चंद्रभानु गुप्ता. चंद्रभानु गुप्ता को सीएम पद से हटा तो दिया गया लेकिन उनकी धाक, उनकी पकड़ प्रदेश की राजनीति में इतनी ज़्यादा थी कि सीएम वही बनता, जिसे वे चाहते. ऐसे में कांग्रेस एक ऐसे चेहरे की तलाश थी जिसपर सहमति बनाई जा सके. क्योंकि चंद्रभानु गुप्ता ये नहीं चाहते थे कि UP का अगला मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी गुट का हो. वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल रिचर्ड ब्रास ने अपनी किताब An Indian Political Life: Charan Singh and Congress Politics, 1937 to 1961 में लिखा है कि, 'आचार्य कृपलानी को दिल का दौरा पड़ा और वो अस्पताल में थे...उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी भी उनके साथ थीं. चंद्रभानु गुप्ता अस्पताल में उन्हें देखने गए थे. चंद्रभानु गुप्ता की परेशानी देख आचार्य कृपलानी ने सुचेता की ओर इशारा किया और कहा कि आप मेरी पत्नी को पार्टी का नेता चुनकर सीएम बनवाइये. चंद्रभानु गुप्ता भी जानते थे कि जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी सहित दिल्ली में कांग्रेस के बड़े नेताओं को जवाब देने का इससे अच्छा विकल्प नहीं मिल सकता. चंद्रभानु को आचार्य कृपलानी की सलाह इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि सुचेता किसी गुट में शामिल नहीं थीं और कांग्रेस भी उन्हें एक सुरक्षित विकल्प के रूप में देखती थी.' इसके बाद सुचेता कृपलानी देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और 1963 से 1967 तक पद पर बनी रहीं.
भारत की सबसे बड़ी कृत्रिम झील
6 जनवरी 1963 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रिहन्द बांध का उद्घाटन किया था और तब उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पंडित गोविंद वल्लभ पंत के नाम पर इस बांध का नाम गोविंद वल्लभ पंत सागर रखा गया था. रिहन्द बांध सोनभद्र में पीपरी के पहाड़ों के बीच रिहंद नदी पर बनाया गया है. इसका जलाशय 30 किमी लम्बा व 15 किमी चौड़ा है. रिहंद बांध का निर्माण बिजली बनाने के लिए किया गया. इस बांध का जलग्रहण क्षेत्र उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में फैला हुआ है. बांध बनाने के लिए आसपास के गांवों से एक लाख लोगों को हटाकर दूसरी जगह बसाया गया.
यहां देखें VIDEO: