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पटना: बिहार में 1971 के आसपास वाला दौर था. कर्पूरी ठाकुर राज्य के सीएम थे. एक दिन उनका कोई रिश्तेदार सीएम ऑफिस पहुंचा. मकसद था कि कर्पूरी ठाकुर कहीं सिफारिश करके नौकरी लगवा दें.
कर्पूरी ठाकुर ने 50 रुपये जेब से निकाल कर दिये, कहा-जाइये उस्तरा खरीद लीजिये और पुश्तैनी धंधा शुरू कीजिए. ऐसा था कर्पूरी ठाकुर का व्यक्तित्व. सीएम होने का कोई गलत लाभ न ले इसका उन्होंने हमेशा ख्याल रखा.
कर्पूरी ठाकुर की बात इसलिए क्योंकि आज उनकी जयंत है. इस मौके पर जानिए उनकी खास बातें.
1952 में पहली बार बने विधायक
24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्में कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे. 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे.
बिहार के पहले गैर कांग्रेसी सीएम
अपने दो कार्यकाल में कुल मिलाकर ढाई साल के मुख्यमंत्रीत्व काल में उन्होंने जिस तरह की छाप बिहार के समाज पर छोड़ी है, वैसा दूसरा उदाहरण नहीं दिखता. ख़ास बात ये भी है कि वे बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे.
कर्पूरी डिवीजन हुए पास
1967 में पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया. इसके चलते उनकी आलोचना भी ख़ूब हुई लेकिन हक़ीक़त ये है कि उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया. इस दौर में अंग्रेजी में फेल मैट्रिक पास लोगों का मज़ाक 'कर्पूरी डिविजन से पास हुए हैं' कह कर उड़ाया जाता रहा.
मालगुजारी टैक्स किया बन्द
1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों को बड़ी राहत देते हुए उन्होंने गैर लाभकारी जमीन पर मालगुजारी टैक्स को बंद कर दिया. बिहार के तब के मुख्यमंत्री सचिवालय की इमारत की लिफ्ट चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के लिए उपलब्ध नहीं थी, मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने चर्तुथवर्गीय कर्मचारी लिफ्ट का इस्तेमाल कर पाएं, ये सुनिश्चित किया.
जब मांग कर पहना फटा कोट
1952 में कर्पूरी ठाकुर पहली बार विधायक बने थे. उन्हीं दिनों उनका आस्ट्रिया जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में चयन हुआ था. उनके पास कोट नहीं था. तो एक दोस्त से कोट मांगा गया. वह भी फटा हुआ था. खैर, कर्पूरी ठाकुर वही कोट पहनकर चले गए. वहां यूगोस्लाविया के मुखिया मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी जी का कोट फटा हुआ है, तो उन्हें नया कोट गिफ़्ट किया गया. आज जब राजनेता अपने महंगे कपड़ों और दिन में कई बार ड्रेस बदलने को लेकर चर्चा में आते रहते हों, ऐसे किस्से अविश्वसनीय ही लग सकते हैं.
जब दरवाजा लगा छोटा
प्रधानमंत्री चरण सिंह उनके घर गए तो दरवाज़ा इतना छोटा था कि चौधरी जी को सिर में चोट लग गई. पश्चिमी उत्तर प्रदेश वाली खांटी शैली में चरण सिंह ने कहा, ‘कर्पूरी, इसको ज़रा ऊंचा करवाओ.’ जवाब आया, ‘जब तक बिहार के ग़रीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा?’
आठवीं तक कि शिक्षा मुफ्त
1970 में 163 दिनों के कार्यकाल वाली कर्पूरी ठाकुर की पहली सरकार ने कई ऐतिहासिक फ़ैसले लिए. आठवीं तक की शिक्षा मुफ़्त कर दी गई. उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्ज़ा दिया गया. सरकार ने पांच एकड़ तक की ज़मीन पर मालगुज़ारी खत्म कर दी. जब 1977 में वे दोबारा मुख्यमंत्री बने तो एस-एसटी के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला सूबा बना.
विरासत में कुछ भी नहीं
राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था. ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए. उनकी ईमानदारी के किस्से हैं.
सादगी के पर्याय कर्पूरी ठाकुर लोकराज की स्थापना के हिमायती थे. उन्होंने अपना सारा जीवन इसमें लगा दिया. 17 फरवरी 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने से उनका देहांत हो गया.