Bangladesh Violence: शेख हसीना के तख्तापलट से 3 लाख 'बिहारी मुसलमानों' का सपना चकनाचूर, ऐसी जिंदगी जी रहे कि रूह कांप जाए
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Bangladesh Violence: शेख हसीना के तख्तापलट से 3 लाख 'बिहारी मुसलमानों' का सपना चकनाचूर, ऐसी जिंदगी जी रहे कि रूह कांप जाए

Bangladesh Violence: 3 लाख बिहारी मुसलमानों को बांग्लादेश आज भी दोजख का अहसास कराता है. आज भी वे जेनेवा कैंप में जिस हाल में रह रहे हैं, भगवान न करें कि किसी को ऐसी जगह रहना नसीब हो. ऐसा कैंप जहां सूरज चाहकर भी इन लोगों को रोशनी नहीं दे सकता. 

बांग्लादेश के मोहम्मदपुर में स्थापित जेनेवा कैंप

बांग्लादेश आज जल रहा है और उस आग में 3 लाख बिहारी भी जल रहे हैं. वो पहले भी जल रहे थे और आज भी जल रहे हैं. जलना उनकी नियति बन चुकी है. बिहार छोड़ने के बाद से लेकर आज तक वे कभी बांग्लादेश के हो न सके, क्योंकि वे उर्दू जुबान के मुसलमान हैं और बांग्लादेश में बांग्ला भाषी मुसलमानों की बहुतायत है. बोली से पहचाने जाने वाले बिहारी मुसलमानों ने अपने लिए बांग्लादेश चुना और यही उनका अपराध है. विभाजन के समय बिहार से जो मुसलमान निकले, उनमें से ज्यादातर पूर्वी पाकिस्तान चले गए, क्योंकि वह बिहार से ज्यादा नजदीक है. कुछ मुसलमानों ने 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद बिहार से पलायन कर लिया. एक बार उन्होंने अपना घर बार छोड़ा तो फिर घर उनके लिए सपना बन गया और आज भी वे शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं और दोयम दर्जे का काम करके जीवन यापन करते हैं. 

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पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच उर्दू जुबान वाले मुसलमानों को पाकिस्तान में पनाह देने का करार हुआ. इसके बाद 1974 से 1992 के बीच पौने दो लाख बिहारी मुसलमानों को पाकिस्तान भेजा गया. पाकिस्तान में उन्हें कराची और आसपास के इलाकों में शरण दिया गया. वहां भी उन्हें मुजाहिर कहकर संबोधित किया जाता है और अब तक उन्हें स्वीकार नहीं किया गया है.

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बिहार से गए मुसलमानों में से जो पाकिस्तान नहीं गए, उनके लिए बांग्लादेश में आज भी शरणार्थी कैंप चलता है, जिसे जेनेवा कैंप बोला जाता है. 1971 से मुसलमान इन्हीं कैंपों में गुजारा कर रहे हैं. बांग्लादेश में इन पर यह भी आरोप लगता रहा है कि 1971 में पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच की लड़ाई में इन्होंने पाकिस्तान का साथ दिया था. जेनेवा कैंप की हालत आप देख लेंगे तो आपकी रूह कांप जाएगी. सूरज की रोशनी भी वहां नहीं पहुंचती है और साफ पीने का पानी, स्कूल और अस्पताल तो आप भूल ही जाइए.

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कुल मिलाकर बंगाली मुसलमान बिहारी मुसलमानों से नफरत करते हैं और इसी के चलते किसी भी सरकार ने इन बिहारी मुसलमानों की जिंदगी सुधारने के लिए कोई रूचि नहीं दिखाई. दोयम दर्जे का काम इनके जिम्मे है. ये बिहारी मुसलमान 1971 से ही मानवाधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं और अपने हक के लिए संघर्ष कर रहे हैं. आलम यह है कि बांग्लादेशी नागरिकता पाने में उन्हें 37 साल का समय लग गया और 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने इनके पक्ष में फैसला दिया था. यह नागरिकता भी उनको मिला, जो 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान नाबालिग थे या उसके बाद पैदा हुए थे. 

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बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने अपने शासनकाल में इन बिहारी मुसलमानों के प्रति संवेदना दिखाई थी और 2019 में ऐलान किया था कि उनकी सरकार जेनेवा कैंप में रह रहे बिहारी मुसलमानों का जीवन स्तर सुधारना चाहती है. उन्होंने बिहारी मुसलमानों को फ्लैट देने के लिए जमीन तलाशने की बात कही थी. अब बिहारी मुसलमानों का वो सपना भी टूट गया और अब उनके मुकद्दर में शरणार्थी शिविरों के बदले फ्लैट तो बिल्कुल नहीं है, क्योंकि शेख हसीना का तख्तापलट हो चुका है और वह खुद देश छोड़कर भारत में शरण पा चुकी हैं. बांग्लादेश में आज हिंदू और अन्य अल्पसंख्यक ही नहीं, उर्दू जुबान के मुसलमान भी सुरक्षित नहीं हैं.

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