पिछले 73 वर्षों में बाढ़ हर साल बिहार के ज्यादातर इलाकों को डुबा देती है, राजधानी पटना जैसे शहरों की सड़कें पानी में डूब जाती हैं. गरीबों से उनके घर और खेत छिन जाते हैं. लेकिन तस्वीरें नहीं बदलतीं.
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नई दिल्ली: भारत के 9 राज्य इस समय बाढ़ का सामना कर रहे हैं. बिहार और असम में हालात सबसे ज्यादा खराब हैं. लेकिन ये स्थिति पहली बार नहीं हुई है बल्कि सिस्टम की नाकामी का बांध पिछले 73 वर्षों से इस बाढ़ को रोकने में असफल रहा है. आज हम ये समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर बाढ़ भारत की वार्षिक समस्या क्यों बन गई है?
हिंदी के सबसे प्रभावशाली और महान साहित्यकारों में से एक का नाम है-फणीश्वर नाथ 'रेणु'. फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म बिहार में हुआ था और वर्ष 1948 में 26 जनवरी के दिन उनकी एक रचना साप्ताहिक पत्र- जनता में प्रकाशित हुई थी. इस रचना का शीर्षक है- डायन कोसी. उन्होंने ये रचना रिपोर्टिंग के अंदाज में लिखी थी और बिहार की कोसी नदी में हर साल आने वाली बाढ़ और उससे होने वाले नुकसान का वर्णन उन्होंने अपनी इस रचना में किया था. कोसी नदी में हर साल आने वाली बाढ़ फणीश्वर नाथ 'रेणु' की कई मशहूर कथाओं का हिस्सा हैं. ये बाढ़ कैसे बिहार के लोगों का जीवन बर्बाद कर देती है. इस व्यथा को फणीश्वर नाथ 'रेणु' ने आज से 73 वर्ष पहले समझ लिया था. लेकिन दुख की बात ये है कि जिस बिहार में चार-चार स्मार्ट सिटीज बनाने की योजना है उस बिहार के लोग आज भी बाढ़ से मुक्ति पाने में सफल नहीं हो सके हैं.
फणीश्वर नाथ 'रेणु' ने 73 साल पहले किया बाढ़ का जिक्र
पिछले 73 वर्षों में बाढ़ हर साल बिहार के ज्यादातर इलाकों को डुबा देती है, राजधानी पटना जैसे शहरों की सड़कें पानी में डूब जाती हैं. गरीबों से उनके घर और खेत छिन जाते हैं. लेकिन तस्वीरें नहीं बदलतीं. फणीश्वर नाथ 'रेणु' का सबसे मशहूर उपन्यास है- मैला आंचल. इस उपन्यास में कोसी नदी पर बांध बनाने की सरकारी योजना और इस दौरान किसानों के हिस्से की जमीनें छिन जाने का भी जिक्र है. जिसमें अपना सब कुछ गंवा चुका एक किसान अपनी व्यथा बताते हुए कहता है कि सरकार ने कोसी मैया को तो बांध दिया है. लेकिन हमारे धीरज को कौन बांधेगा?
फणीश्वर नाथ रेणु के इस उपन्यास को पढ़कर पता चलता है कि बिहार के लोगों के लिए बिहार की त्रासदी कितनी बड़ी है.
यानी ये किसान कहता है कि सब कुछ गंवाने के बाद वो अब साल भर बेगारी करता है. खंजड़ी यानी एक तरह का वाद्य यंत्र बजाता है और फटकनाथ गिरधारी यानी निर्धन अवस्था में जीवन यापन कर रहा है.
ये सारी बातें एक लेखक ने अपने उपन्यास में आज से कई दशक पहले लिख दी थीं. लेकिन आज भी स्थिति नहीं बदली है और देश के उन राज्यों में लोग आज भी अपना सब कुछ गंवाने के बाद ऐसी ही निर्धन और दीन हीन अवस्था में जी रहे हैं जहां बाढ़ एक वार्षिक समस्या बन चुकी है.
बाढ़ की चपेट में 9 राज्य
इस समय सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि देश के 9 राज्य बाढ़ की चपेट में हैं. इनमें सबसे बुरी स्थिति बिहार और असम की है, जबकि गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में भी स्थिति धीरे-धीरे खराब होने लगी है.
बिहार के 8 जिले ऐसे हैं जहां बाढ़ लोगों के लिए परेशानी और विस्थापन का कारण बन गई है. इन 8 जिलों में 4 लाख से ज्यादा लोग बाढ़ की वजह से इस समय बहुत ज्यादा परेशानी में हैं. मौसम विभाग ने अलर्ट जारी किया है कि दरभंगा, सीतामढ़ी, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण और वैशाली में हालात और ज्यादा खराब हो सकते हैं.
बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित बिहार
बिहार भारत का वो राज्य है जो बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित होता है. बिहार की 76 प्रतिशत से ज्यादा आबादी ऐसे इलाकों में रहती है. जहां कभी भी बाढ़ आ सकती है. नेपाल और बिहार की सीमाएं आपस में मिलती हैं और जब पूर्वी नेपाल के पहाड़ी इलाकों में भारी बारिश होती है तो पानी पहाड़ों से बहकर नारायणी गंडक, बागमती और कोसी जैसी नदियों में पहुंच जाता है और इन नदियों का जल स्तर तेजी से बढ़ने लगने लगता है. इन नदियों का पानी आसपास रहने वाले लोगों के लिए परेशानी ना बने इसके लिए बिहार में पिछले कुछ दशकों में 3 हजार से ज्यादा तटबंध बनाए गए हैं. इन तटबंधों को कई बार पुश्ता भी कहा जाता है. ये पुश्ते इस तरह से बनाए जाते हैं कि नदियों में पानी का स्तर बढ़ने के बाद भी पानी ज्यादा मात्रा में बाहर ना आए. लेकिन हैरानी इस बात की है कि इन सबके बावजूद बिहार में बाढ़ की घटनाएं पहले के मुकाबले ढाई गुना बढ़ गईं हैं.
उत्तरी बिहार में मौजूद जो 8 नदियां इस बाढ़ का सबसे बड़ा कारण बनती हैं उनके नाम हैं घाघरा, गंडक, बूढ़ी गंडक, कमला, बागमती, भुतही बालन, कोसी और महानंदा.
विशेषज्ञों का कहना है कि बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ को रोकने के लिए जो तटबंध बनाए गए हैं उनमें से कई के डिजाइन सही नहीं हैं और यही वजह है कि बिहार में बाढ़ नियंत्रण में आने की बजाय हर साल बेकाबू हो जाती है.
बिहार का शोक कहलाती है कोसी
कोसी नदी को बिहार का शोक कहा जाता है. लेकिन इन दिनों एक नदी और ऐसी है जिसने बिहार के एक बड़े इलाके को बाढ़ में डुबा दिया है. इस नदी का नाम है नारायणी गंडक. ये नदी नेपाल से बिहार के पश्चिमी चंपारण में प्रवेश करती है. इस नदी के पानी को नियंत्रित करने लिए भारत-नेपाल सीमा पर गंडक बैराज बनाया गया है. जिसे वाल्मीकि बैराज भी कहते हैं. जिसमें पानी के बहाव को नियंत्रित करने वाले 36 फाटक हैं इनमें 18 भारत और 18 नेपाल के हिस्से में आते हैं और इन्हीं फाटकों से पिछले कुछ दिनों में 4 लाख 40 हजार क्यूसेक से ज्यादा पानी बिहार में प्रवेश कर चुका है.
ये भी कहा जा रहा है कि लॉकडाउन की वजह से नेपाल ने अपने हिस्से में आने वाले 18 फाटकों की मरम्मत करने की इजाजत नहीं दी और अगर इन फाटकों पर दबाव बढ़ा तो बांध टूटने जैसी घटना भी हो सकती हैं. हालांकि अब भारत के इंजीनियर्स ने इस बांध की मरम्मत शुरू कर दी है.
बाढ़ का सामना करना हमें नहीं आता
कोई भी देश बाढ़ का सामना कर पाएगा या नहीं, ये इससे पता चलता है कि बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के लिए किसी देश का रिएक्शन टाइम क्या है? उस देश में प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए किन तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है और उस देश का सिस्टम अपनी गलतियों से कितनी जल्दी सीखता है? हमें बड़े ही दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि भारत का सिस्टम बाढ़ के नाम पर रस्म अदायगी करने में तो चैंपियन है लेकिन बाढ़ का कारगर तरीके से सामना करना हमें नहीं आता है.
भारत में जब बाढ़ का पानी गांव में घुस आता है और लोगों के घरों को डुबा देता है, तब जाकर प्रशासन गहरी नींद से जागता है. इसके बाद अधिकारी गांवों को खाली करवाते हैं. बाढ़ पीड़ितों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने के दावे किए जाते हैं.
कई बार ऐसा भी होता है कि लोग प्रशासन का इंतजार करते रह जाते हैं और उन्हें भोजन तक नहीं मिल पाता.
बाढ़ के बाद शुरू होता है हवाई सर्वेक्षण
इसके बाद नेताओं के हवाई सर्वेक्षण शुरू होते हैं, अगर बाढ़ का पानी इतना ज्यादा है कि आप उसमें डूब सकते हैं तो हमारे नेता हवाई सर्वेक्षण को प्राथमिकता देते हैं. हेलीकॉप्टर में बैठकर बाढ़ प्रभावित इलाकों का निरीक्षण करते हैं. बाढ़ पीड़ितों को खाने के पैकेट हेलीकॉप्टर से गिराकर दिए जाते हैं.
लेकिन अगर पानी घुटनों तक है तो नेता कभी-कभी पैदल भी बाढ़ के निरीक्षण पर निकल जाते हैं, और तस्वीरें खिंचवाने के बाद फिर अपने आरामदायक घरों और दफ्तरों में लौट आते हैं.
लेकिन दुनिया के कई देश ऐसे हैं जिन्होंने आपदाओं का सामना करना और इससे अपने लोगों को बचाना सीख लिया है. इसे आप नीदरलैंड्स के उदाहरण से समझ सकते हैं.
नीदरलैंड्स से हमें सीखना चाहिए
एक समय था जब नीदरलैंड्स का 66 प्रतिशत इलाका बाढ़ से प्रभावित होता था लेकिन अब ऐसा नहीं है क्योंकि नीदरलैंड्स ने बाढ़ से निपटने के लिए एक अलग सोच अपनाई और वो सोच ये कहती है कि पानी के साथ जीना सीखो, उससे लड़ो मत. इसी सोच के साथ नीदरलैंड्स ने नदियों के किनारों पर रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर बसाया. साथ ही नदियों के किनारों को इतना चौड़ा कर दिया कि बाढ़ आने की स्थिति में भी कोई नुकसान ना हो. नीदरलैंड्स ने नदियों पर बने बांधों के ऊपर कॉलोनियां बसाईं और जरूरत के मुताबिक ऐसे घर भी बनाए जो बाढ़ आने पर तैर सकें.
हालांकि नीदरलैंड्स का उदाहरण भारत में लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि यहां और वहां के हालात में जमीन आसमान का अंतर है. लेकिन इस उदाहरण से ये सीखा जा सकता है कि अगर कोशिश की जाए तो बड़ी से बड़ी प्राकृतिक आपदा का मुकाबला किया जा सकता है और बाढ़ को वार्षिक आपदा बनने से रोका जा सकता है.
ऊपर हमने आपसे साहित्यकार फणीश्वर नाथ 'रेणु' का जिक्र किया था और बताया था कि कैसे हर साल बिहार में आनेवाली बाढ़ उनकी कई कहानियों की केंद्रीय किरदार रही है. 1950 के दशक में जब कोसी नदी पर डैम बनाया जा रहा था तब फणीश्वर नाथ 'रेणु' ने कोसी नदी को साधने की चेष्टा पर अपना एक मशहूर उपन्यास परती परिकथा लिखा था. जिसका अर्थ होता है एक बंजर भूमि की कहानी. इस उपन्यास का अंत एक नाटक के मंचन के साथ होता है. जिसके एक दृश्य में कोसी पर बनाए जा रहे बांध का वर्णन किया गया है. लेकिन अफसोस ये है कि 7 दशक बीत जाने के बाद भी भारत अपनी ज्यादातर नदियों को साधने में असफल रहा है.