DNA ANALYSIS: क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया परिवार के DNA में ही बीजेपी है?
Advertisement
trendingNow1652261

DNA ANALYSIS: क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया परिवार के DNA में ही बीजेपी है?

मध्य प्रदेश की राजनीति ने एक और इतिहास दुहराया है. 53 वर्ष पहले भी कांग्रेस की सरकार सत्ता से बाहर हुई थी. उस समय इसकी वजह थीं- विजया राजे सिंधिया. यानी ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी. तब मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे द्वारका प्रसाद मिश्र. तब राजमाता विजया राजे सिंधिया और मुख्यमंत्री डीपी मिश्र के बीच टिकट बंटवारे को लेकर अनबन हो गई. विजया राजे सिंधिया के साथ कांग्रेस के 36 विधायक थे. इन बागी विधायकों ने जन क्रांति दल के नाम से पार्टी बनाई और गोविंद नारायण सिंह को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया. यानी बिल्कुल दादी की तरह पोते ने भी कांग्रेस का बंटवारा कर दिया. 

DNA ANALYSIS: क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया परिवार के DNA में ही बीजेपी है?

आज ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस में शामिल होने के बाद लोग ये पूछ रहे हैं कि क्या सिंधिया परिवार के DNA में ही बीजेपी है? ऐसा इसलिए है क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजया राजे ने भी अपने करियर की शुरुआत कांग्रेस के साथ की थी लेकिन 1967 में वो भी जन संघ में शामिल हो गईं. 1967 में उनके बेटे माधव राव सिंधिया भी जन संघ में शामिल हो गए और मां बेटे की ये जोड़ी 1971 में इंदिरा गांधी की लहर को रोकने में जुट गई थी. लेकिन आपातकाल के बाद माधव राव सिंधिया जनसंघ से अलग हो गए और उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया. लेकिन विजया राजे की बेटी, वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत बीजेपी के साथ की और दोनों आज भी बीजेपी में ही हैं.

2018 में कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को सीएम नहीं बनने दिया और 1993 में उनके पिता को भी सीएम बनने से रोका गया था. मध्य प्रदेश की राजनीति में कैसे अलग-अलग गुट एक दूसरे का रास्ता रोकते रहे हैं. ये हम आपको आगे बताएंगे लेकिन पहले आप ये सुनिए कि ज्योतिरादित्य की बुआ और बीजेपी नेता यशोधरा राजे ने इस घटना क्रम पर क्या कहा? लेकिन पहले ये जान लीजिए कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के इतने बड़े फैसले की वजह क्या रही. 

असल में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इस आने वाले संकट की तरफ आंखें मूंदकर बैठा था और अपने ही नाराज़ नेताओं को लेकर गंभीर नहीं था. ज्योतिरादित्य सिंधिया लगातार पिछले कुछ समय से अपनी नाराज़गी का इजहार कर रहे थे लेकिन पार्टी में उनकी सुनी नहीं गई. इसकी शुरुआत मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से ही हो गई थी. चुनाव से ठीक पहले राहुल गांधी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया से वादा किया था कि चुनाव जीतने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा. लेकिन चुनाव जीतने के बाद कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया. सूत्रों के मुताबिक, सिंधिया के नाम पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को आपत्ति थी क्योंकि वो नहीं चाहती थी कि कोई ऐसा युवा नेता बड़े पद पर आए जिसके आगे उनके बेटे राहुल गांधी का कद छोटा लगने लगे.

राहुल गांधी ने चुनाव जीतने के बाद सिंधिया को उप मुख्यमंत्री पद का ऑफर दिया था लेकिन सिंधिया ने इससे इनकार कर दिया. इसकी जगह सिंधिया चाहते थे कि वो अपने किसी करीबी को उप मुख्यमंत्री पद के लिए आगे कर दें लेकिन तब राहुल गांधी ने शर्त रख दी कि फिर कमलनाथ की तरफ से भी एक उप मुख्यमंत्री होगा. पार्टी के कुछ नेताओं का ये भी कहना है इसी वजह से सोनिया गांधी ने 2017 के बाद लोकसभा में उप नेता का पद खाली रखा. जिसमें सिंधिया की दिलचस्पी थी. सिंधिया को नज़र अंदाज करने का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी को चुनाव जिताने की जिम्मेदारी दे दी गई. जबकि पार्टी जानती थी कि वहां कांग्रेस का कोई चांस नहीं है और हार का सारा ठीकरा सिंधिया पर ही फूटेगा. यानी कांग्रेस ने जान बूझकर सिंधिया को ऐसी जिम्मेदारी दी थी, जिससे उनके राजनीतिक कद में गिरावट आ जाए.

पिछले कुछ दिनों से ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के सामने ये मांग रख रहे थे कि उन्हें मध्य प्रदेश में पार्टी का प्रमुख बना दिया जाए और राज्यसभा की टिकट दी जाए. कांग्रेस उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए तो तैयार थी लेकिन राज्यसभा भेजने के लिए तैयार नहीं थी. माना जा रहा है कि बीजेपी उन्हें राज्यसभा में भेजेगी और केंद्र में मंत्री भी बनाएगी और इन्हीं शर्तों के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस का साथ छोड़ा है. बीजेपी इसे सिंधिया की घर वापसी बता रही है क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधव राव सिंधिया ने भी अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत जनसंघ से की थी. जनसंघ की आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी बन गई. दूसरी तरफ कांग्रेस-बीजेपी पर तोड़फोड़ का आरोप लगाकर सिंधिया को गद्दार बता रही. यहां आपके लिए मध्य प्रदेश की राजनीति में फैली गुटबंदी को समझना भी जरूरी है. संक्षेप और आसान शब्दों में आप इसे ऐसे समझिए कि राज्य में बड़े नेताओं के अपने-अपने गुट रहे हैं. किसी ज़माने में अर्जुन सिंह का गुट हावी रहता था. अब दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के अपने-अपने गुट हैं. लेकिन खास बात ये है कि सिंधिया परिवार के खिलाफ बाकी सारे गुट हमेशा एकजुट हो जाते हैं.

1993 में मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत मिली थी. मुख्यमंत्री की रेस में सबसे आगे माधवराव सिंधिया थे. लेकिन तब अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह का गुट एकजुट हो गया था. दिग्विजय सिंह उस समय मध्य प्रदेश में कांग्रेस के अध्यक्ष थे. अर्जुन सिंह केंद्र सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री थे. दोनों ने मिलकर कांग्रेस के विधायक दल की बैठक में किसी नेता का नाम फाइनल नहीं होने दिया. मामला दिल्ली तक पहुंचा. वहां माधवराव सिंधिया की जगह दिग्विजय सिंह का नाम फाइनल हो गया. कहा जाता है कि दिग्विजय सिंह को मुख्यमंत्री बनवाने में अर्जुन सिंह की बड़ी भूमिका रही. यहीं से माधव राव सिंधिया का असंतोष शुरू हुआ और 1996 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ भी दी थी.

इतिहास ने पच्चीस साल बाद खुद को करीब-करीब ऐसे ही दुहराया. वर्ष 2018 में चुनाव नतीजों के बाद मध्य प्रदेश में फिर एक बार सिंधिया गुट के खिलाफ बागी खेमे एकजुट हो गए. इस बार माधव राव सिंधिया की जगह उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया को रोकना था. दृश्य में दिग्विजय सिंह फिर एक बार थे. लेकिन उनके साथ इस बार अर्जुन सिंह की जगह कमलनाथ थे. कमलनाथ 2018 के चुनाव से पहले तक कांग्रेस के अला-कमान से नाराज़ चल रहे थे. क्योंकि कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ सदस्य होने के बावजूद दलित वोट बैंक को साधने के लिए पार्टी ने लोकसभा में कमलनाथ की जगह मल्लिकार्जुन खड़गे को अपना नेता बना दिया था. 
कमलनाथ को ये भी लगता था कि मनमोहन सिंह की सरकार में उन्हें कोई अहम मंत्रालय नहीं मिला. कहते हैं कि दिग्विजय सिंह ने एक तीर से दो राजनीतिक चाल चल दी. एक तरफ तो उन्होंने नाराज कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनवाने का भरोसा दिला दिया. दूसरी तरफ कांग्रेस आलाकमान की इस इच्छा को भी हवा दे दी कि किसी युवा को मुख्यमंत्री बनाना, राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य के लिए ठीक नहीं है. और इस तरह से मध्य प्रदेश का चुनाव जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री नहीं बन सके. ठीक उसी तरह जैसे 1993 में माधवराव सिंधिया मुख्यमंत्री नहीं बन पाए थे.

मध्य प्रदेश की राजनीति ने एक और इतिहास दुहराया है. 53 वर्ष पहले भी कांग्रेस की सरकार सत्ता से बाहर हुई थी. उस समय इसकी वजह थीं- विजया राजे सिंधिया. यानी ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी. तब मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे द्वारका प्रसाद मिश्र. जिनके पुत्र बृजेश मिश्र बाद में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान सचिव बने. संक्षेप में ये किस्सा कुछ ऐसा है कि 1967 में जब मध्य प्रदेश में विधानसभा और लोकसभा चुनाव होने वाले थे, तब राजमाता विजया राजे सिंधिया और मुख्यमंत्री डीपी मिश्र के बीच टिकट बंटवारे को लेकर अनबन हो गई. इसके बाद विजया राजे सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ दी और स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर गुना संसदीय सीट से चुनाव जीत गईं. जैसे आज कांग्रेस के 22 विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ हैं, तब विजया राजे सिंधिया के साथ कांग्रेस के 36 विधायक थे. इन बागी विधायकों ने जन क्रांति दल के नाम से पार्टी बनाई, और गोविंद नारायण सिंह को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया. यानी विजया राजे सिंधिया की वजह से डीपी मिश्र को इस्तीफा देना पड़ा और मध्य प्रदेश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी. यानी बिल्कुल दादी की तरह पोते ने भी कांग्रेस का बंटवारा कर दिया. 

ज्योतिरादित्य सिंधिया एक राज परिवार से हैं. लेकिन, ये हमारे लोकतंत्र की ताकत है कि राजघरानों ने भी जनता की शक्ति को स्वीकार कर लिया. लोकसभा की गुना सीट को सिंधिया राजघराने का किला कहते हैं. 2019 के चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया इसी सीट से हार गए. उन्हें बीजेपी के उम्मीदवार केपी यादव ने हराया. केपी यादव कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया के सांसद प्रतिनिधि हुआ करते थे. ज्योतिरादित्य सिंधिया के चुनाव प्रचार के दौरान उनकी पत्नी प्रियदर्शिनी राजे सिंधिया ने अपने फेसबुक वॉल पर एक तस्वीर शेयर की थी. इस तस्वीर में ज्योतिरादित्य सिंधिया गाड़ी के अंदर बैठे हुए हैं. जबकि बाहर केपी यादव खड़े हैं और सेल्फी ले रहे हैं. सिंधिया परिवार शायद ये दिखाना चाहता था कि कभी उनके साथ सेल्फी लेने वाले को बीजेपी ने अपना उम्मीदवार बना दिया. ये फेसबुक पोस्ट आत्म-मुग्ध राजनीति का उदाहरण था. लेकिन, चुनाव में हार के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया को जनता की ताकत का अहसास हो गया होगा. यहीं से उन्हें समझ में आ गया होगा कि जनता की नब्ज को पकड़ना ज़रूरी है.

शायद यही वजह है कि अनुच्छेद 370 पर उन्होंने अपनी पार्टी लाइन से अलग हटकर केंद्र सरकार के फैसले की सराहना की थी. ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा कांग्रेस के युवा नेता दीपेंदर हुड्डा ने भी जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने का समर्थन किया था. हो सकता है कांग्रेस के पुराने और बुज़ुर्ग नेता इतनी हिम्मत ना दिखा पाएं. लेकिन, युवा नेताओं ने एक शुरुआत कर दी है.

Breaking News in Hindi और Latest News in Hindi सबसे पहले मिलेगी आपको सिर्फ Zee News Hindi पर. Hindi News और India News in Hindi के लिए जुड़े रहें हमारे साथ.

TAGS

Trending news