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नई दिल्ली: आज हम सबसे पहले एक ऐसे वीडियो की बात करेंगे, जिसमें आपके लिए एक बड़ी सीख छिपी है. ये वीडियो म्यांमार का है और इस वीडियो में आप एक महिला को एरोबिक्स एक्सरसाइज करते हुए देख सकते हैं, जो म्यांमार में एक फिजिकल एजुकेशन टीचर हैं.
जिस समय ये महिला हर रोज की तरह वहां एक्सरसाइज कर रही थी, उसी दौरान सेना की कुछ गाड़ियां उसके पीछे से जाती हुई दिखाई दीं. असल में ये गाड़ियां उस समय म्यांमार के राष्ट्रपति को हिरासत में लेने के लिए जा रही थीं और जब दुनिया को इसकी जानकारी मिली तो ये वीडियो चर्चा का विषय बन गया. लेकिन कुछ ही घंटों में इस वीडियो को लेकर एक फेक न्यूज़ भी तेज़ी से फैली कि ये वीडियो नकली है. सोचिए Fake News की बीमारी कितनी ख़तरनाक है.
Una mujer hizo su clase de aerobic sin darse cuenta de que estaban dando el golpe de Estado en Myanmar. Y pues puede verse como el convoy de militares llega al parlamento. pic.twitter.com/fmFUzhawRe
— Àngel Marrades (@VonKoutli) February 1, 2021
इस फेक न्यूज़ के बाद वीडियो को देखने वाले लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी. यानी जब सही जानकारी के साथ ये वीडियो आया तब इसकी पहुंच सीमित लोगों तक थी लेकिन जब इसमें फेक न्यूज़ की मिलावट हुई तो इसे देखने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ने लगी और नौबत ये आ गई कि इस महिला को सामने आकर सफाई देनी पड़ी कि ये वीडियो फेक नहीं है.
जैसे भारत में हर एक खबर को लेकर फेक न्यूज़ फैलाई जाती है, ठीक वैसे ही म्यांमार का ये वीडियो भी फेक न्यूज़ की बीमारी का शिकार हो गया.
हमें पूरी उम्मीद है कि इस वीडियो से जुड़ी फेक न्यूज़ आप समझ गए होंगे इसलिए अब हम आपको इस वीडियो के पीछे की ऐसी खबर के बारे में बताना चाहते हैं, जिसने दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों को चिंता में डाल दिया है और ये खबर भारत के पड़ोसी देश म्यांमार से आई है, जहां सेना ने एक बार फिर तख़्तापलट कर देश की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया है और वहां के राष्ट्रपति और स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची को हिरासत में ले लिया है.
आप कह सकते हैं कि म्यांमार में इस समय लोकतंत्र की विजिबिलिटी शून्य हो चुकी है और स्थितियां बेहद नाजुक हैं. भारत समेत कई देशों को जब ये लग रहा था कि म्यांमार में लोकतंत्र का फ्यूचर ब्राइट है, ऐसे समय में लोकतांत्रिक मूल्यों का पतन बताता है कि अब भी म्यांमार के DNA में लोकतंत्र की बहुत कमी है.
आज हम आपसे ये भी कहना चाहते हैं कि शुक्र मनाइए आप म्यांमार में नहीं है. आप भारत में हैं, जहां की संवैधानिक व्यवस्था दुनिया के लिए एक आदर्श है. इसलिए आज आपको म्यांमार के राजनीतिक संकट से ये भी समझना चाहिए कि किसी भी देश के लिए लोकतंत्र का महत्व कितना बड़ा होता है और इसे समझने के लिए पहले आपको म्यांमार का लोकतांत्रिक संकट समझना होगा. ये संकट हम आपको सिर्फ 5 पॉइंट्स में समझाएंगे.
पहली बात - म्यांमार में तख़्तापलट से सिर्फ दो महीने पहले ही वहां आम चुनाव हुए थे और इन चुनावों में आंग सान सू की की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी को 498 में से 396 सीटें मिली थीं और वो दूसरी बार सरकार बनाने में कामयाब हुई थीं. लेकिन दो ही महीनों में उनसे सत्ता छीन ली गई और उन्हें हिरासत में ले लिया गया.
दूसरी बात - आंग सान सू ची चुनाव तो जीत गईं लेकिन वहां की सेना ने चुनावों में धांधली के आरोप लगाने शुरू कर दिए. तब ये भी कहा गया कि म्यांमार के चुनाव आयोग ने आंग सान सू ची को जिताने में मदद की है. सेना के आरोपों के बाद से ही वहां टकराव की स्थितियां बनने लगी थीं और इस दौरान वहां रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर जो नरम रुख दिखाया गया, उसका भी विरोध हुआ.
तीसरी बात - चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही सेना ने विरोध शुरू कर दिया और इसी टकराव के बीच म्यांमार में तख़्तापलट हो गया और वहां के राष्ट्रपति और स्टेट काउंसलर सू ची को हिरासत में ले लिया गया.
चौथी बात - म्यांमार में 2011 में ही लोकतंत्र बहाल हुआ था. इससे पहले वहां 50 वर्षों तक सेना का शासन था और एक बार फिर से वहां की सत्ता पर सेना ने कब्ज़ा कर लिया है.
और सबसे आख़िरी और महत्वपूर्ण बात ये कि म्यांमार में एक साल के लिए इमरजेंसी लगा दी गई है और इसके तहत सेना ने देश की सत्ता को अपने नियंत्रण में ले लिया है. यानी अगले एक साल तक म्यांमार की सत्ता Commander In Chief of Defence Services जनरल मिन औंग लैंग के पास रहेगी.
म्यांमार में इस समय हालात काफी तनावपूर्ण हैं और वहां संसद जाने वाले रास्ते पर सेना ने टैंकों की तैनाती कर दी है. इसके अलावा वहां एक सरकारी टेलीविजन और रेडियो ने भी काम करना बंद कर दिया है और कई प्रांतों में टेलीफोन और इंटरनेट की सेवाएं ठप कर दी गई हैं.
म्यांमार में हुए इस सैन्य तख़्तापलट का ज़्यादातर देशों ने विरोध किया और इनमें भारत भी शामिल है. भारत के अलावा यूरोपियन यूनियन, ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों ने हिरासत में लिए गए नेताओं को तुरंत रिहा करने की मांग की है और अमेरिका ने तो कड़े कदम उठाने के भी संकेत दिए हैं.
लेकिन यहां एक समझने वाली बात ये है कि इस पूरे मामले पर चीन की प्रतिक्रिया बाकी देशों से अलग है. चीन ने सिर्फ इतना कहा है कि वो इस मामले में जानकारियां इकट्ठा कर रहा है और इसी वजह से अब चीन की भूमिका को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं और कहा जा रहा है कि म्यांमार में जो कुछ हुआ उसके पीछे चीन हो सकता है.
इस पर हमने कुछ महत्वपूर्ण रिसर्च की है, जो चीन को लेकर संदेह पैदा करती हैं.
-म्यांमार में सबसे ज्यादा निवेश करने वाला देश चीन है.
-China Myanmar Economic Corridor के तहत चीन ने म्यांमार में 38 प्रोजेक्ट का प्रस्ताव रखा है, जिनमें से 29 प्रोजेक्ट्स को मंज़ूरी भी मिल चुकी है.
-म्यांमार के पावर सेक्टर में चीन का कुल निवेश 57 प्रतिशत के आसपास है.
-ऑयल, गैस और खनन के क्षेत्र में चीन का निवेश 18 प्रतिशत है.
-इसके अलावा चीन म्यांमार के एक मेगा सिटी प्रोजेक्ट पर भी काम कर रहा है, जिस पर उसका खर्च 10 हजार 950 करोड़ रुपये होगा.
-अब आप समझ सकते हैं कि म्यांमार में हुए तख़्तापलट के पीछे चीन की भूमिका को लेकर संदेह क्यों जताया जा रहा है.
ये भी कहा जा रहा है कि इस तख्तापलट के पीछे एक मकसद ये भी हो सकता है कि चीन को छोड़ कर म्यांमार के दूसरे सहयोगी देशों को किनारे किया जा सके और इसका पूरा फायदा चीन को हो और इन देशों में भारत सबसे अहम है.
इसकी वजह ये है कि म्यांमार भारत का पड़ोसी देश है और वहां की राजनीतिक स्थिरता का असर दोनों देशों के संबंधों और सीमावर्ती इलाकों की शांति पर पड़ सकता है. यही नही म्यांमार की सीमा जिन पांच देशों से लगी हुई है, उनमें चीन प्रमुख है. इसलिए भी भारत के लिए म्यांमार की सरकार ज्यादा अहम हो जाती है.
भारत के चार राज्यों की सीमाएं म्यांमार से लगती हैं और ये सीमा 1600 किलोमीटर लंबी है. ये राज्य हैं, मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड और सबसे अहम ये कि इनमें अरुणाचल प्रदेश की सीमा चीन से भी लगती है, जिसकी वजह से म्यांमार भारत के लिए काफी अहम हो जाता है.
यहां एक समझने वाली बात ये भी है कि चीन और म्यांमार की सेनाओं के बीच संबंध अच्छे माने जाते हैं. ऐसे में म्यांमार की सेना का शासन आने से भारत की चिंताएं बढ़ सकती हैं.
अब यहां ये समझिए कि इन परिस्थितियों में भारत के लिए जरूरी बातें क्या हैं?
हमें किसी भी हालत में म्यांमार से बातचीत नहीं रोकनी चाहिए. हो सकता है कि इसके लिए भारत की आलोचना हो कि वो ऐसे देश से रिश्तों को महत्व दे रहा है, जहां सैनिक तानाशाही है. लेकिन भारत को इस पक्ष को किनारे रख कर म्यांमार के साथ राजनयिक रिश्ते बना कर रखने चाहिए क्योंकि, अगर लोकतंत्र कमज़ोर होने के नाम पर पश्चिमी देश म्यांमार पर प्रतिबंध लगाते हैं तो म्यांमार, चीन के साथ समझौता कर लेगा. आप कह सकते हैं कि वो चीन की गोद में जाकर बैठ जाएगा जो भारत के लिए रणनीतिक तौर पर अच्छी स्थिति बिल्कुल नहीं हो सकती क्योंकि, म्यांमार ने आतंक के खिलाफ लड़ाई में हमेशा भारत का साथ दिया है और जब भारत ने म्यांमार में उग्रवादी संगठनों पर कार्रवाई की तो वो भारत के साथ एक अच्छे दोस्त की तरह हमेशा खड़ा रहा है.
आपमें से शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि जब 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ, तब बर्मा पर भी ब्रिटिश शासन की पकड़ कमजोर होने लगी थी. म्यांमार को तब बर्मा कहा जाता था और भारत को आजादी मिलने के सिर्फ 142 दिन बाद 4 जनवरी 1948 को ही अंग्रेजों ने बर्मा को भी आजाद कर दिया था.
वर्ष 1824 से 1885 के बीच हुए तीन युद्ध के बाद बर्मा पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया था और 1886 में अंग्रेजों ने बर्मा को भारत का एक प्रांत घोषित कर दिया था. हालांकि पहले विश्व युद्ध के बाद 1920 में वहां ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया और उस समय भारत में भी स्वतंत्रता के लिए आंदोलन हो रहे थे.
बर्मा को आजादी दिलाने के लिए वहां के एक छात्र नेता आंग सान ने बड़ी भूमिका निभाई और आंग सान सू ची उन्हीं की बेटी हैं.
भारत की तरह बर्मा में भी आजादी के लिए कई आंदोलन हुए लेकिन जिस तरह दूसरे विश्व युद्ध ने भारत की आजादी का रास्ता तैयार किया, ठीक वैसा ही बर्मा में भी हो रहा था क्योंकि, दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों की ताकत कम हुई थी इसलिए भारत और बर्मा दोनों देशों को इसका फायदा मिला और 15 अगस्त 1947 को पहले भारत आजाद हुआ और फिर 4 जनवरी 1948 को बर्मा को आजादी मिल गई.
आप कह सकते हैं कि तब अंग्रेजों ने इन देशों को आजाद करने का मन बना लिया था और इसकी बड़ी वजह थी, खजानों का खाली होना और लगातार होने वाले आंदोलन.
आंग सान सू ची के पिता और बर्मा की स्वतंत्रता के नायक आंग सान के नेतृत्व में ही देश के संविधान की रचना शुरू हुई लेकिन ये काम पूरा होता उससे पहले ही विपक्ष के एक नेता के उकसावे पर आंग सान और उनकी कैबिनेट के कई सदस्यों की गोली मारकर हत्या कर दी गई.
तो म्यांमार सिर्फ भारत का पड़ोसी देश नहीं है, बल्कि दोनों देशों ने आजादी का संघर्ष, अत्याचार और अन्याय एक साथ देखा है. हालांकि आजादी के बाद भारत लोकतंत्र के रास्ते पर चल पड़ा लेकिन म्यांमार में लोकतंत्र की जड़ें कभी मज़बूत नहीं हो पाईं.
अब आप संक्षेप में समझिए कि म्यांमार की स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची का अब क्या होगा? म्यांमार में सैन्य शासन की शुरुआत को उनके राजनीतिक करियर का अंत माना जा रहा है और इसकी तीन वजह हैं.
- सू ची इस समय 75 वर्ष की हैं.
- उनके स्वास्थ्य को लेकर भी सवाल उठाए जा रहे हैं.
- और म्यांमार की सेना अब सू ची पर भरोसा नहीं करती है. इस समय म्यांमार की सेना के जनरल वहां के शासन पर अपना पूरा नियंत्रण स्थापित कर चुके हैं.
वर्ष 1947 में आंग सान सू ची के पिता की हत्या कर दी गई थी. वर्ष 1960 के दशक में आंग सान सू ची ने भारत में ही अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. आगे की पढ़ाई के लिए वो ऑक्सफोर्ड गईं और वर्ष 1988 में अपने पिता का सपना पूरा करने के लिए वो वापस म्यांमार आईं. उनके पिता ने एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश का सपना देखा था और वहां पर उन्हें राष्ट्रपिता की तरह सम्मान दिया जाता है.
म्यांमार देश को पहले बर्मा नाम से जाना जाता था. लेकिन ये नाम 1989 में बदल कर म्यांमार कर दिया गया और इसी तरह म्यांमार के सबसे बड़े शहर रंगून का नाम भी बदल कर बाद में यंगून किया गया था.
भारत के अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर की कब्र इसी यंगून शहर में है. जिन्हें भारत में 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ हुए विद्रोह के बाद बंदी बनाकर बर्मा भेज दिया गया था और यहीं पर उनकी मौत हो गई थी. मौत से पहले बहादुर शाह जफर ने कुछ पंक्तियां लिखी थीं और ये पंक्तियां इस तरह थीं...
कितना बदनसीब है ज़फर दफ्न के लिए... दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में...