पश्चिम बंगाल की राजनीति में रसगुल्ले का बहुत महत्व है. किसी भी राजनीतिक दल का अभियान बिना रसगुल्ले की तस्वीर के नहीं दिखता. आज हम आपको रसगुल्ले से जुड़े उस इतिहास के बारे में बताएंगे, जो शायद आप न जानते हों.
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नई दिल्ली: आजकल आपको पश्चिम बंगाल में हो रहे विधानसभा चुनावों के बारे में बहुत सी राजनीतिक बातें सुनने को मिल रही होंगी. प्रदेश में बन चुकी और बनने वाली सरकार के बारे में बातें बताई जा रही होंगी, पर हम अब जो आपको पश्चिम बंगाल की राजनीति के बारे में बताने जा रहे हैं वो शायद आपको किसी ने नहीं बताया होगा.
वर्ष 1967 के विधानसभा चुनाव में इलेक्शन से ठीक पहले कांग्रेस को छोड़ कर नई पार्टी बनाने वाले अजय मुखर्जी (Ajoy Mukherjee) प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. इससे पहले प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और प्रफुल्ल चंद्र सेन मुख्यमंत्री थे. वो लोकप्रिय नेता थे पर उन्हें जनहित मे कड़े फैसले लेने वाले नेता के तौर पर जाना जाता था.
1965 में प्रफुल्ल चंद्र सेन को पता चला कि पश्चिम बंगाल में लोगों को पीने के लिए जरूरी मात्रा में दूध नहीं मिल पा रहा है. कारण पता किए गए तो मालूम चला कि छेने की मिठाई बनाने में दूध का इस्तेमाल ज्यादा हो रहा है. इसलिए उन्होंने दूध से बनने वाली मिठाइयों पर पाबंदी लगा दी. इसकी वजह से बंगाल में लोकप्रिय रसगुल्ला बनना बंद हो गया. रसगुल्ले के शौकीन नाराज हो गए, और इसी दौरान चुनाव हुए तो रसगुल्ले की वजह से प्रफुल्ल चंद्र सेन को हार का मुंह देखना पड़ा.
आज भी पश्चिम बंगाल की राजनीति में रसगुल्ले का बहुत महत्व है. किसी भी राजनीतिक दल का अभियान बिना रसगुल्ले की तस्वीर के नहीं दिखता. इसी रसगुल्ले पर आज हमने आपके लिए एक ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की है.
मिट्टी की कटोरी, उसमें रस से भरा 'रोसोगुल्ला', बंगाल की पहचान सिर्फ उसकी संस्कृति ही नहीं उसकी मिठास भी है और इसी मिठास का दीवाना पूरा देश है. आज हम आपको कोलकाता के चितपुर की उस दुकान के बारे में बताएंगे जिसे बंगाली रसगुल्ला की जन्मस्थली कहा जाता है. ये वही जगह है, जहां पहली बार वर्ष 1868 में नवीन चंद्र दास ने 'रोसोगुल्ला' तैयार किया था.
रसगुल्ला के स्वाद ने देशभर में बंगाली मिठाई के नाम से प्रचलित दुकानों के लिए जगह तैयार की. भारत में वैसे तो हर इलाके की अपनी मिठाई होती है, पर उन सबके बीच छेने से बनी मिठाई का स्थान रहता है. मिठाई की दुनिया में सबकी सहमति से रसगुल्ले ने अपनी जगह बनाई है.
रसगुल्ले की सबसे पुरानी दुकान को शुरू करने वाले नवीन चंद्र दास की 5वीं पीढ़ी के धीमन दास बताते हैं, 'चितपुर रोड पर नवीन चंद्र दास की दुकान थी. लोग यहां से मिठाई खरीदते थे. ड्राई स्वीट्स मिलती थीं. लेकिन ग्राहकों की शिकायत थी कि ये मिठाईयां गले में फंसती हैं. फिर नवीन चंद्र दास ने प्रयोग करना शुरू किया और 2-3 साल की मेहनत के बाद एक दिन रसगुल्ला बन गया'.
धीमन दास ने बताया कि नवीन चंद्र दास की पत्नी ने उन्हें रसगुल्ला बनाने की प्रेरणा दी थी.
यहां की फैक्ट्रियों में बड़े पैमाने पर रसगुल्ला बनाया जाता है. रसगुल्ला बनाने के लिए मशीनें भी हैं, लेकिन रसगुल्ले को हाथों से बनाने की पुरानी कला आज भी लोग भूले नहीं हैं. ये आज भी यहां की पहचान है. कोलकाता में नवीन चंद्र दास ने 1866 से रसगुल्ला बनाने की कोशिशें शुरू की थीं. करीब 2 साल बाद ये कोशिश कामयाब हुई, लेकिन अब इस फैक्ट्री में चंद घंटों में रसगुल्ला बनकर तैयार हो जाता है.
यहां ये भी बता दें कि भले ही पूरे देश में रसगुल्ले का रंग सफेद हो, लेकिन बंगाल में 'रोसोगुल्ला' की मिठास के कई रंग मिलते हैं. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि रसगुल्ला बनाने वाले परिवार ने ही रसमलाई नाम की प्रसिद्ध मिठाई को भी जन्म दिया.
पश्चिम बंगाल में रसगुल्ला एक मिठाई नहीं एक भावना है और इसी के इर्द-गिर्द यहां की राजनीति भी घूमती है. पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में पार्टियां अपने पोस्टर्स में भी रसगुल्ले को जगह जरूर देती हैं. उन्हें भी मालूम है, रसगुल्ला मतलब पश्चिम बंगाल. रसगुल्ला को अपना बताने के लिए पश्चिम बंगाल और ओडिशा के बीच कई साल तक कानूनी लड़ाई चली, लेकिन रसगुल्ला का GI टैग पश्चिम बंगाल को ही मिला.