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नई दिल्ली: दुनिया के ज्यादातर मजबूत देशों में इस्लाम का बिजनेस मॉडल चलाना आसान नहीं है, लेकिन भारत जैसे देश में जहां तुष्टिकरण की राजनीति होती है. इस प्रोडक्ट को बहुत आसानी से खरीददार मिल जाते हैं. इसलिए आज हम आपको बताएंगे कि भारत में तुष्टिकरण की राजनीति कब शुरू हुई थी. साल 1951 में आजाद भारत का पहला लोक सभा चुनाव हुआ था और इस चुनाव से ही तुष्टिकरण की राजनीति शुरू हो गई थी. आज हम आपको बताएंगे कि वो भारत जो सिर्फ एक साल पुराना गणतंत्र था, जहां पर 35 करोड़ की आबादी में 85 प्रतिशत लोग अनपढ़ थे, संचार का कोई माध्यम नहीं था. लोकतंत्र को लेकर लोगों में जागरूकता ना के बराबर थी. वहां पर आम चुनाव कराना कितनी बड़ी चुनौती थी? पहले आम चुनावों में क्या चुनावी मुद्दे थे और कौन-कौन से बड़े उलटफेर थे. ये सब आज हम आपको बताएंगे जिससे आपको बहुत कुछ सीखने को मिलेगा.
70 साल पहले 25 अक्टूबर 1951 को भारत में लोक सभा के पहले चुनाव शुरू हुए थे, जो 21 फरवरी 1952 यानी लगभग पांच महीनों तक चले. उस समय भारत के लोगों के लिए आजादी बिल्कुल नई चीज थी. क्योंकि हमारे पास आजादी का अनुभव तो केवल चार साल का था, लेकिन गुलामी का अनुभव 800 वर्ष लंबा था.
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू होने के बाद देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी, आजाद भारत के पहले लोक सभा चुनाव कराना. ये एक तरह का Blind Game था, जिसमें असली परीक्षा भारत के लोगों को देनी थी. उस समय 36 करोड़ की कुल आबादी में 21 साल या उससे ऊपर के 17 करोड़ 60 लाख वोटर्स थे, जिनमें से 85 प्रतिशत वोटर्स की संख्या ऐसी थी, जो लिखना पढ़ना नहीं जानती थी. पूरी दुनिया और खासकर पश्चिमी देश ये देखना चाहते थे कि भारत के अशिक्षित वोटर्स चुनावों में अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाते हैं, क्योंकि इन देशों को हमारे देश के वोटर्स पर बिल्कुल भरोसा नहीं था. और ये ऐसा सोचते थे कि भारत के अनपढ़ लोग लोकतंत्र की ताकत को कभी नहीं समझ सकते. ये पश्चिमी देश हमें संपेरों का देश कहते थे.
भारत के लोगों ने इन देशों की ये धारणा अगले कुछ महीनों में तोड़ दी. चुनाव आयोग ने देश में लोक सभा और सभी राज्यों के विधान सभा चुनाव साथ कराने का फैसला किया और इस तरह 25 अक्टूबर 1951 को देश में लोक सभा की 489 सीटों और राज्यों में विधान सभा की 3 हजार 283 सीटों पर चुनाव शुरू हुए. इसके लिए पूरे देश में 2 लाख 24 हजार पोलिंग बूथ बनाए गए. 20 लाख बैलेट बॉक्स तैयार किए गए और 6 महीनों के लिए साढ़े 16 हजार कलर्क की भर्ती की गई, जिनका काम वोटर्स की सूची तैयार करना था. इसके अलावा वोटिंग के लिए 56 हजार अधिकारियों की ड्यूटी लगाई गई, जिनकी मदद के लिए 2 लाख 80 हजार वॉलंटियर्स को भी भर्ती किया गया. कुल 2 लाख 24 हजार पुलिसकर्मियों पर चुनाव कराने की जिम्मेदारी थी.
उस समय टीवी नहीं था, इसलिए वोटर्स को अवेयर करना और उन्हें ये बताना कि वोट कैसे डालना है और कहां डालना है, बहुत मुश्किल था. इस समस्या का समाधान निकालने के लिए चुनाव आयोग ने एक फिल्म का निर्माण किया, जो देशभर के 3 हजार सिनेमा हॉल में रिलीज हुई. लोग मुफ्त में सिनेमा हॉल जाकर ये फिल्म देख सकते थे. इसके अलावा ऑल इंडिया रेडियो पर भी कई कार्यक्रम होते थे, जिसमें लोगों को चुनाव प्रक्रिया के बारे में बताया जाता था. अखबारों में भी लेख और विज्ञापनों के जरिए लोगों को जागरूक किया गया.
जागरूकता के साथ ग्रामीण इलाकों में इंफ्रास्ट्रक्चर की भी जरूरत थी. इसलिए जिन इलाकों में नदियां थीं, वहां अस्थाई पुल बनाए गए, समुद्री इलाकों में बैलेट बॉक्स पहुंचाने के लिए भारतीय नौसेना की मदद ली गई और ऊंचे पहाड़ी इलाकों में पहुंचने के लिए हजारों की संख्या में घोड़ों का इस्तेमाल हुआ. और एक कीमती जानकारी आपके लिए ये है कि उस समय स्टील के कुल 25 लाख बैलेट बॉक्स इस्तेमाल हुए थे. उस समय सभी पार्टियों के अलग-अलग बैलेट बॉक्स थे. लोग जिस पार्टी को वोट देना चाहते थे, उन्हें उस पार्टी के निर्धारित बॉक्स में बैलेट पेपर डालना होता था. इसके लिए 180 टन पेपर का इस्तेमाल हुआ, जिस पर 10 लाख रुपये खर्च हुए थे. हालांकि इन सबके बावजूद चुनाव कराना आसान काम नहीं था.
उत्तर भारत में लाखों महिलाओं ने ये मांग कर दी थी कि उनके वोटर आईडी कार्ड पर उनके नाम की जगह उनके पति या पिता का नाम लिखा जाए, लेकिन चुनाव आयोग ने इस मांग को खारिज कर दिया और इस फैसले से 28 लाख महिलाओं के नाम वोटर लिस्ट से बाहर हो गए. यानी अगर इस मांग को मान लिया जाता या ये महिलाएं अपनी जिद छोड़ देतीं तो 28 लाख महिला वोटर्स और हो सकती थीं, जिनके पास कई सीटों पर नतीजों को बदलने की ताकत थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
इसी तरह चुनाव आयोग द्वारा ये नियम बनाया गया था कि मतदान केंद्र में वोटर्स के लिए अंदर जाने और बाहर आने का रास्ता अलग अलग होगा. इस फैसले की वजह से ऐसे मतदान केंद्रों पर काफी परेशानी हुई, जहां पर एक ही गेट था. उदाहरण के लिए हिमाचल के भुटी गांव में जिस स्कूल को मतदान केंद्र बनाया गया था, वहां स्कूल के एक कमरे की खिड़की निकाल कर अलग कर दी गई और लोगों को वोट देने के बाद इसी खिड़की के रास्ते बाहर आना होता था.
आजाद भारत का ये पहला लोक सभा चुनाव था, जिसमें चुनाव आयोग के पास ना तो कोई डेटा था और ना सभी लोगों के पास फोटो आईडी कार्ड थे. 85 प्रतिशत लोग लिखना पढ़ना भी नहीं जानते थे. इसलिए चुनाव में वोटिंग कराना बड़ी चुनौती थी. इसके लिए तब के चीफ इलेक्शन अफसर सुकुमार सेन ने तय किया कि वो वोटिंग में एक खास तरह की इंक इस्तेमाल करेंगे, जो वोट देने के बाद लोगों की उंगली पर लगाई जाएगी. ये इंक एक हफ्ते तक लगी रहती थी, जिससे लोग एक से ज्यादा बार वोट नहीं कर सकते थे.
उस समय इस इंक की चार लाख शीशियां इस्तेमाल हुई थीं. हालांकि कुल 68 चरणों में हुए इन चुनावों में 1250 ऐसी घटनाएं भी हुईं, जिनमें नियमों का खुलेआम उल्लंघन हुआ. इनमें 817 घटनाओं में किसी और के नाम पर वोट डाले गए. 106 घटनाओं में बैलेट बॉक्स बदल दिए गए और 100 मामलों में मतदान केंद्र के आसपास नेताओं ने चुनाव प्रचार किया.
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