कश्मीरी पंडितों का असली गुनहगार कौन? 10 साल में ऐसे तैयार हुई दंगों की पृष्ठभूमि
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कश्मीरी पंडितों का असली गुनहगार कौन? 10 साल में ऐसे तैयार हुई दंगों की पृष्ठभूमि

कश्मीरी पंडितों पर फिल्म को सिनेमा ना मान कर Propaganda बताया जा रहा है. कई लोग कह रहे हैं कि इस नरसंहार के लिए जम्मू कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन जिम्मेदार थे. लेकिन आज हम तथ्यों के साथ आपको ये बताएंगे कि कश्मीरी पंडितों पर हुए इस जुल्म के लिए असली जिम्मेदारी कौन था?

प्रतीकात्मक फोटो

नई दिल्ली: आज देशभर में कश्मीरी पंडितों के दर्द पर बनी फिल्म The Kashmir Files की बात हो रही है. दशकों के बाद ऐसा हुआ है, जब एक फिल्म, जिसमें बड़ी Starcast नहीं है, कोई बड़ा बजट नहीं है. इसे किसी बड़े फिल्म निर्माता और निर्देशक ने नहीं बनाया है और ना ही इस फिल्म के पीछे कोई बहुत बड़ा प्रोडक्शन हाउस है. इसकी कोई पब्लिसिटी और Marketing भी नहीं हुई है, लेकिन इस सबके बावजूद ये फिल्म एक बहुत बड़ी ब्लॉकबस्टर साबित हुई है. अब तक ये फिल्म 86 करोड़ रुपये कमा चुकी है. इससे पता चलता है कि अगर Content अच्छा हो, और अगर वो दिल को छू जाए तो उसे कोई भी नहीं रोक सकता.

  1. द कश्मीर फाइल्स को बताया जा रहा है प्रोपेगेंडा
  2. तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन को बताया जा रहा है जिम्मेदार
  3. 10 साल पहले ही बनाई गई थी दंगों की पृष्ठभूमि

10 साल पहले से तैयार हुई पृष्ठभूमि

ये बात सच है कि कश्मीरी पंडितों का पलायन 19 जनवरी 1990 को शुरू हुआ. लेकिन उससे भी बड़ा सच ये है कि, इस पलायन की पृष्ठभूमि पिछले 10 वर्षों में तैयार हुई थी. इन 10 वर्षों में 9 साल 11 महीने तक देश में कांग्रेस की सरकार थी. लेकिन कांग्रेस का कहना है कि इस नरसंहार के लिए उसके 9 साल 11 महीने जिम्मेदार नहीं है. बल्कि वी.पी. सिंह की सरकार का एक महीना ही इस पूरी स्थिति के लिए जिम्मेदार था.

साल 1982 से ही हो गई शुरुआत

इसकी शुरुआत साल 1982 से मानी जाती है. उस समय श्रीनगर में कश्मीर पंडितों के खिलाफ नफरत का माहौल पैदा किया जा रहा था. Jammu Kashmir Liberation Front नाम का आंतकवादी संगठन कश्मीर के आम मुसलमानों के दिमाग में ये जहर भर रहा था कि जब तक कश्मीरी पंडित कश्मीर से नहीं जाएंगे, तब तक उन्हें उनका हक और नौकरियां नहीं मिलेंगी. ये उस दौर की बात है, जब देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारुख अब्दुल्लाह थे.

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कश्मीर में 1984 में भी दंगे हुए

कश्मीरी पंडितों के खिलाफ धीरे धीरे नफरत इतनी बढ़ गई कि 3 फरवरी 1984 को ब्रिटेन में भारत के राजनयिक रविंद्र महात्रे को JKLF के आतंकवादियों ने अगवा कर लिया और वो JKLF के संस्थापक और आतंकवादी मकबूल भट्ट की रिहाई की मांग करने लगे. जब ये मांग पूरी नहीं हुई तो आतंकवादियों ने रविंद्र महात्रे की हत्या कर दी और बाद में 11 फरवरी 1984 को मकबूल भट्ट को भी दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गई. इससे कश्मीर में दंगे शुरू हो गए और कश्मीरी पंडितों के घरों को निशाना बनाया. ये सबकुछ तब हुआ, जब देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी. कश्मीर में 1984 में भी दंगे हुए थे और तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं.

जगमोहन, इंदिरा गांधी के थे करीबी 

इंदिरा गांधी जम्मू कश्मीर में फारुख अब्बदुल्लाह की सरकार गिरा कर, गुलाम मोहम्मद शाह को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थीं. इसीलिए उन्होंने अप्रैल 1984 को जगमोहन मल्होत्रा को जम्मू कश्मीर का राज्यपाल बना कर भेजा. यानी जो लोग ये कह रहे हैं कि उस समय जगमोहन BJP में थे, ये बात गलत है. जगमोहन, इंदिरा गांधी के करीबी थे और उन्होंने उनके कहने पर ही गुलाम मोहम्मद शाह की सरकार का गठन करवा दिया था.

मंदिर तोड़ मस्जिद बनाने के दिए थे आदेश

ये वही गुलाम मोहम्मद शाह हैं, जिन्हें 1986 में कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हुई हिंसा के लिए जिम्मेदार माना जाता है. उस समय जम्मू के New Civil Secretariat Area में मुसलमान कर्मचारी नमाज पढ़ने की मांग कर रहे थे. इसके लिए वो वहां बने एक प्राचीन मन्दिर को तुड़वाना चाहते थे. ये बात जैसे ही गुलाम मोहम्मद शाह को पता चली, उन्होंने मन्दिर को तोड़ कर मस्जिद बनाने का आदेश दे दिया, जिससे तनाव बढ़ गया और दक्षिण कश्मीर के इलाकों में विरोध करने वाले कश्मीरी पंडितों के घर जला दिए गए.

राजीव गांधी चाहते तो दंगों को रोक सकते थे

ये सब भी तब हुआ, जब देश में राजीव गांधी की सरकार थी. लेकिन राजीव गांधी ने इन दंगों को रोकने के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया. बल्कि वो उस समय मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति में व्यस्त थे और चर्चित शाह बानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने की बात कर रहे थे. यानी राजीव गांधी चाहते तो 1986 के दंगों के समय ही कश्मीर को लेकर बड़े कदम उठा सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया.

साल 1989 से बिगड़ने लगे हालात

साल 1989 में जब हालात काफी बिगड़ गए और कश्मीरी पंडितों की हत्या की जाने लगीं, तब भी राजीव गांधी का ध्यान कश्मीर की तरफ नहीं था. बल्कि वो उस समय के लोक सभा चुनाव में व्यस्त थे. वो किसी भी तरह सरकार बनाने की सोच रहे थे. जबकि कश्मीर में हालात बिगड़ते जा रहे थे. जम्मू कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने उस समय राजीव गांधी को दो चिट्ठियां लिखी थीं. जिसका जिक्र उन्होंने अपनी पुस्तक, My Frozen Trubulence In Kashmir में किया है.

राज्यपाल जगमोहन ने लिखी पीएम को चिठ्ठी

8 अप्रैल 1989 को उन्होंने अपनी पहली चिट्ठी में बताया था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्लाह ने कश्मीर को उसके हाल पर छोड़ दिया है. इस चिट्ठी के आखिर में वो ये भी लिखते हैं कि अगर राजीव गांधी ने आज कोई कदम नहीं उठाया तो बहुत देर हो जाएगी और बाद में ऐसा ही हुआ. राजीव गांधी ने इस चिट्ठी को गम्भीरता से नहीं लिया. जगमोहन ने इसके एक महीने बाद 14 मई 1989 को उन्हें एक और चिट्ठी लिखी और कश्मीर के तनावपूर्ण हालात के बारे में बताया, लेकिन तब भी राजीव गांधी इस पर चुप रहे.

जब राजीव गांधी कश्मीर के हालात को नजरअंदाज कर रहे थे, उसी दौरान जुलाई 1989 को जगमोहन का राज्यपाल के तौर पर पांच साल का कार्यकाल पूरा हो गया और वो जम्मू कश्मीर से दिल्ली लौट आए. इसके बाद कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर जुल्म का सिलसिला शुरू हो गया. 14 सितंबर 1989 को कट्टरपंथी जेहादियों ने पंडित टीका लाल टपलू की खुलेआम हत्या कर दी. ये कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से भगाने के लिए की गई पहली हत्या थी. उस समय कश्मीर के राज्यपाल, जगमोहन नहीं थे. बल्कि उनकी जगह K. V. Krishna Rao कार्यभाल सम्भाल चुके थे. तब देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे और जम्मू कश्मीर में फारुख अब्दुल्लाह की सरकार थी.

19 जनवरी 1990 को पंडितों से कश्मीर छोड़ने के लिए कहा

सितंबर से जनवरी के बीच कई कश्मीरी पंडितों की हत्याएं हुई. फिर 19 जनवरी 1990 की रात को कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए कह दिया गया. लेकिन इसी दिन दो और बड़ी घटनाएं हुई थीं. पहली घटना ये थी कि, श्रीनगर में कश्मीरी पंडितों का कत्ले-आम शुरू होने से पहले फारुख अब्दुल्लाह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. लेकिन देश में आज तक किसी ने उनसे ये सवाल नहीं पूछा कि आखिर उनके इस्तीफे के बाद कश्मीरी पंडितों पर संगठित तरीके से हमले कैसे हुए? क्या उन्हें इसकी जानकारी पहले से हो गई थी. दूसरी बात जनवरी 1989 में ही फारुख अब्दुल्लाह London चले गए थे और ऐसा कहा जाता है कि जब कश्मीर जल रहा था, वो London में Glof खेल रहे थे.

जगमोहन को 19 जनवरी को ही बनाया गया था राज्यपाल

दूसरी बात इसी दिन जगमोहन को फिर से जम्मू कश्मीर का राज्यपाल बना कर वहां भेज दिया गया था. अब सोचने वाली बात है कि इन दंगों की पृष्ठभूमि पिछले 10 वर्षों से तैयार हो रही थी, जब इंदिरा गांधी और राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे, लेकिन कांग्रेस के मुताबिक इस नरसंहार के लिए जिम्मेदार वो नहीं हैं, बल्कि इसके लिए जिम्मेदार जगमोहन हैं, जिन्हें 19 जनवरी को ही दंगों वाले दिन फिर से राज्यपाल बनाया गया. और वी.पी. सिंह की वो सरकार जिम्मेदार है, जो दंगों से एक महीने पहले ही दिसम्बर 1989 में बनी थी.

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वैसे उस समय दौर में कांग्रेस और जम्मू कश्मीर के नेताओं के लिए एक बात काफी बोली जाती थी. कहा जाता था कि इन पार्टियों के नेता श्रीनगर में साम्प्रदायिक होते हैं. जम्मू में Communist होते हैं और दिल्ली में आते ही ये धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं और ये स्थिति आज भी है. एक और बात हम आपको स्पष्ट कर दें कि जगमोहन वर्ष 1994 के बाद बीजेपी में शामिल हुए थे. इससे पहले वो राज्यपाल थे और कांग्रेस का हिस्सा हुआ करते थे.

'कश्मीर का मुद्दा समझ नहीं आता'

जगमोहन अपनी इस पुस्तक में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु की भी कुछ चिट्ठियों का जिक्र करते हैं, जो उन्होंने 1950 के दशक में लिखी थीं. इन चिट्ठियों में नेहरु लिखते हैं कि जब बाकी मुद्दों की बात आती है तो उनका पक्ष स्पष्ट होता है. लेकिन जब बात कश्मीर की आती है, तो उन्हें समझ ही नहीं आता कि उन्हें क्या करना चाहिए और उनका पक्ष क्या होना चाहिए. नेहरु ये बात वर्ष 1952 में उस समय के जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्लाह को लिखते हैं. सोचिए, नेहरु के प्रधानमंत्री रहते हुए कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में गया, इस पर पाकिस्तान के साथ युद्ध, एक तिहाई कश्मीर पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया और अनुच्छेद 370 लागू किया गया. ये सबकुछ नेहरु के समय हुआ. लेकिन नेहरु कहते हैं कि उन्हें कश्मीर का मुद्दा समझ में ही नहीं आता.

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