क्लास में जुमे की नमाज के क्या मायने, अब धर्म के आधार पर चलेंगे देश के स्कूल?
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क्लास में जुमे की नमाज के क्या मायने, अब धर्म के आधार पर चलेंगे देश के स्कूल?

स्कूल या शिक्षण संस्थान पढ़ाई के लिए होते हैं और अगर वहां धार्मिक कामकाज होने लगेंगे तो मंदिर या मस्जिद की जरूरत ही क्या है. किसी भी शिक्षण संस्थान में समानता का सिद्धांत लागू होना बेहद जरूरी है ताकि वहां पढ़ने वाले छात्रों के मन में भेदभाव पैदा न हो सके.

क्लास में जुमे की नमाज के क्या मायने, अब धर्म के आधार पर चलेंगे देश के स्कूल?

नई दिल्ली: जब आप स्कूल में पढ़ते थे, तो आपके किसी साथी ने या आपके किसी दोस्त ने, स्कूल के प्रिंसिपल से ये जिद की थी कि, उसे क्लास में नमाज पढ़ने की इजाजत दी जाए या पूजा-पाठ करने की इजाजत दी जाए?. जब आप स्कूल में पढ़ते थे, तब क्या आपने कभी ये जानने की कोशिश की कि डेस्क पर आपके साथ जो दूसरा बच्चा बैठा है, वो किस धर्म का है और किस जाति का है?

  1. स्कूलों में धार्मिक कट्टरता कौन फैला रहा?
  2. शिक्षण संस्थानों के लिए समानता बहुत जरूरी
  3. क्या अब धर्म के आधार पर चलेंगे स्कूल?

छात्रों ने स्कूल में पढ़ी नमाज

जहां तक मुझे याद है स्कूल में सभी बच्चे एक ही यूनिफॉर्म पहन कर आते हैं और जाति,  धर्म और अमीरी-गरीबी की बजाय, ये यूनिफॉर्म ही उनकी पहचान होती है. लेकिन कर्नाटक के एक स्कूल में कुछ मुस्लिम छात्रों ने स्कूल प्रशासन पर ये दबाव बनाया कि उन्हें क्लास में नमाज पढ़ने की इजाजत दी जाए. इसके बाद इस स्कूल में क्लास के अन्दर ही नमाज पढ़ी जाने लगी. 

इसी तरह कर्नाटक के एक और इंटर कॉलेज में कुछ लड़कियों ने ये मांग की कि वो हिजाब पहन कर Classes Attend करना चाहती हैं. लेकिन जब उन्हें स्कूल की यूनिफॉर्म में आने के लिए कहा गया तो वो धरने पर बैठ गईं. ये एक बहुत खतरनाक स्थिति है, जहां एक खास विचारधारा वाले लोग स्कूली बच्चों में भी धार्मिक कट्टरवाद पैदा कर रहे हैं. कल्पना कीजिए कि अगर देश की पाठशालाएं, धर्म की प्रयोगशालाएं बन गईं तो हमारे समाज में कितना बड़ा विस्फोट होगा.

कर्नाटक के कोलार जिले का मामला

21 जनवरी को कर्नाटक के एक सरकारी स्कूल में कुछ बच्चों द्वारा, क्लास में जुमे की नमाज पढ़ी गई. ये स्कूल कर्नाटक के कोलार जिले में है और आरोप है कि बच्चों को नमाज पढ़ने की इजाजत स्कूल प्रबंधन द्वारा दी गई थी. हमें इस घटना का एक वीडियो भी मिला है, जिसमें कुछ बच्चे टोपी पहने हुए हैं और सामूहिक रूप से नमाज पढ़ रहे हैं. एक पल के लिए ये वीडियो देख कर आपको ऐसा लगेगा कि ये नमाज किसी मस्जिद में पढ़ी जा रही है. लेकिन सच ये है कि ये धार्मिक अनुष्ठान, एक स्कूल में हुआ, जो अब तक समाज में समानता की मिसाल पेश करते थे.

आरोप है कि पिछले लगभग दो महीने से इस स्कूल में ये बच्चे इसी तरह हर शुक्रवार को जुमे की नमाज पढ़ रहे थे. इसकी जानकारी यहां के प्रिंसिपल और दूसरे शिक्षकों को भी थी. इसके अलावा कुछ बच्चों का ये भी कहना है कि, जब उन्होंने इसका विरोध किया तो उन्हें ये कहा गया कि नमाज, एक पवित्र प्रार्थना है और बच्चों को नमाज पढ़ने से रोकना एक तरह से पाप होगा. 

कब खत्म होगी ये समस्या?

यानी नमाज पढ़ने वाले बच्चों को इसके लिए प्रोत्साहित किया गया और जिन बच्चों ने इसका विरोध किया, उन्हें भी भ्रमित करने की कोशिश की गई. फिलहाल इस मामले में जिला शिक्षा विभाग द्वारा स्कूल से स्पष्टीकरण मांगा गया है और मामले की जांच भी की जा रही है. लेकिन पुलिस का कहना है कि उसने कोई FIR दर्ज नहीं की है. यानी हो सकता है कि ये मामला थोड़े दिनों के बाद दब जाए. लेकिन क्या मामला दब जाने से ये समस्या खत्म हो जाएगी?

इसे आप एक और खबर से समझिए, जो कर्नाटक के उडुपी जिले की है. एक जनवरी को वहां के एक इंटर कॉलेज में 6 लड़कियां हिजाब पहन कर पहुंची थीं, जिसके बाद उन्हें क्लास में प्रवेश देने से मना कर दिया गया. इस घटना के बाद ये सभी छात्राएं, कॉलेज की सीढ़ियों पर धरने पर बैठ गईं और ये मांग करने लगीं कि संविधान उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता देता है और उन्हें हिजाब पहन कर कॉलेज आने से कोई नहीं रोक सकता. ये सभी छात्राएं 11वीं और 12वीं कक्षा में पढ़ती हैं.

अफगानिस्तान में हुआ था विवाद

इस मामले में कर्नाटक सरकार ने एक एक्सपर्ट कमिटी बनाई है, जो कॉलेज यूनिफॉर्म को लेकर आने वाले दिनों में विस्तृत गाइडलाइंस जारी करेगी. हालांकि ये छात्राएं, अब भी इस बात को लेकर अड़ी हुई हैं कि हिजाब पहन कर कॉलेज आना, उनका संवैधानिक हक है. वो ऐसे किसी भी दिशा-निर्देशों को नहीं मानेंगी. लेकिन, क्या वाकई में ऐसा है? क्या हमारे संविधान में ऐसी किसी भी बात का उल्लेख है? हम आपको इसके बारे में बताएंगे. 

पिछले वर्ष जब अफगानिस्तान में तालिबान का शासन आया था, तब वहां ये आदेश जारी किया गया था कि लड़कियों को बिना हिजाब के स्कूल और कॉलेजों में प्रवेश नहीं दिया जाएगा. तब वहां बहुत सी लड़कियों ने सोशल मीडिया के जरिए इसका विरोध किया था. लेकिन, अब आप सोचिए भारत किस दिशा में जा रहा है?

स्कूली व्यवस्था में घोला जा रहा जहर

एक तरफ धर्मनिरपेक्ष भारत में कुछ छात्राएं ये मांग कर रही हैं कि वो हिजाब पहन कर अपने कॉलेज आना चाहती हैं. जबकि अफगानिस्तान में इस कट्टरता का विरोध हो रहा है. ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि भारत की स्कूली व्यवस्था में कैसे जहर घोला जा रहा है. देश की पाठशालाओं को धर्म की प्रयोगशालाओं में बदलने की कोशिश की जा रही है.

अभी तक हमारे देश में स्कूलों की ही एक ऐसी व्यवस्था बची थी, जो धार्मिक कट्टरता के संक्रमण से बची हुई थी. क्योंकि स्कूलों में बच्चों के साथ समान रूप से व्यवहार किया जाता है. आप स्कूलों में बच्चों को एक यूनिफॉर्म में देखते होंगे. सभी बच्चे एक जैसे रंग की शर्ट-पेंट, टाई और एक ही रंग के जूते पहन कर स्कूल जाते हैं. इसे ही समानता कहते हैं. इससे होता ये है कि जब बच्चे एक यूनिफॉर्म में होते हैं, तो इससे अमीर-गरीब, जाति और धर्म का भेदभाव मिट जाता है. समानता का भाव मन में रहता है.

स्कूलों में एकरूपता क्यों जरूरी?

लेकिन सोचिए अगर स्कूलों में ये एकरूपता (Uniformity) ना हो तो क्या होगा? फिर जो बच्चे अमीर होंगे, वो महंगे कपड़े पहन कर स्कूल आएंगे और जो गरीब हैं, उनके कपड़े अच्छे नहीं होंगे. जो बच्चे इस्लाम धर्म को मानते हैं, वो टोपी और लम्बी दाढ़ी रखने लगेंगे और अपनी अपनी क्लास में नमाज पढ़ने की मांग करेंगे. जो बच्चे हिन्दू हैं, वो तिलक लगा कर स्कूल आएंगे और क्लास में पूजा-पाठ करने की मांग करेंगे. जो बच्चे ईसाई धर्म को मानते हैं, वो Jesus Christ का Cross वाला लॉकेट पहन कर आने लगेंगे और हो सकता है कि Jesus Christ की प्रतिमा स्कूल में लगाने की मांग की जाएगी. जो बच्चे सिख धर्म को मानते हैं, वो भी अपने धार्मिक अनुष्ठान स्कूल में करने के लिए कहेंगे.

अब सवाल है कि, ये देश क्या अपने स्कूलों को धार्मिक स्थल बनाना चाहता है? और अगर हां, तो फिर इस देश में मन्दिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों का क्या महत्व रहेगा? और सोच कर देखिए, स्कूलों में धर्म का आखिर क्या काम है?

स्कूल में समानता का सिद्धांत

इस समस्या के पीछे एक कारण ये है कि हमारे देश के संविधान और कानूनों में इसे लेकर ज्यादा स्पष्टता नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 14 में इस बात का उल्लेख किया गया है कि भारत के सभी नागरिकों को देश के कानूनों द्वारा समान रूप से संरक्षित किया जाएगा. इसका मतलब ये है कि सरकार और इस देश की प्रशासन व्यवस्था एक ही परिस्थितियों में लोगों के साथ समान व्यवहार करेगी. लेकिन इसमें ये उल्लेख नहीं है कि क्या बच्चे शिक्षण संस्थानों में अपने धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए स्वतंत्र होंगे और यहां समानता का सिद्धांत लागू होगा या नहीं?

संविधान की तरह हमारे देश के कानूनों में भी इसे लेकर स्पष्टता नहीं. अभी देश में कोई एक ऐसा कानून नहीं है, जो स्कूलों में बच्चों की यूनिफॉर्म को लेकर कोई निर्देश देता हो. सरकारी स्कूलों में ये, केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा तय किया जाता है. जबकि प्राइवेट स्कूलों में ये फैसला, उस स्कूल के प्रबंधन पर निर्भर करता है. केवल कानून ही नहीं, इस पर हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था भी आज तक Confuse रही है. एक उदाहरण आपको बताते हैं.

कानून भी एकमत नहीं

वर्ष 2009 में मध्य प्रदेश के एक Christian स्कूल में पढ़ने वाले एक मुस्लिम लड़के को लम्बी दाढ़ी रखने पर इस स्कूल से निकाल दिया गया था. इसके बाद मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने इस स्कूल के फैसले को सही माना था. लेकिन जब मोहम्मद सलीम नाम का ये लड़का सुप्रीम कोर्ट में गया तो अदालत ने कहा कि इस स्कूल को ऐसा करने का पूरा हक है और वो भारत को तालिबान नहीं बनने दे सकते. अदालत ने तब ये भी कहा था कि, अगर भविष्य में कोई लड़की बुर्का पहन कर स्कूल जाने की मांग करेगी, तब वो क्या करेंगे.

अगर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला यहीं तक सीमित रहता तो शायद स्कूल में यूनिफॉर्म को लेकर स्पष्टता रहती. लेकिन इसी मामले में बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला बदल दिया था और तालिबान वाली टिप्पणी के लिए खेद भी जताया था. यानी अदालत भी तय नहीं कर पाई कि क्या सही है, और क्या नहीं?

समानता का सिद्धांत क्यों जरूरी 

2011 की जनगणता के मुताबिक भारत में लगभग 80 प्रतिशत हिन्दू हैं. 14 प्रतिशत मुस्लिम हैं. 2.3 प्रतिशत ईसाई, 1.7 प्रतिशत सिख, 0.7 प्रतिशत बौद्ध धर्म के लोग और जैन धर्म के 0.4 प्रतिशत लोग इस देश में रहते हैं.

आज से 72 वर्ष पहले जब भारत का संविधान लागू हुआ था, उस समय डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर ने इस समस्या की जड़ को पहचान लिया था. उन्होंने कहा था कि रूढ़िवादी समाज में धर्म भले ही जीवन के हर पहलू को संचालित करता हो, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में धार्मिक क्षेत्र अधिकार को घटाये बगैर असमानता और भेदभाव को दूर नहीं किया जा सकता है. इसीलिए देश समानता के सिद्धांत को अपनाए, ना कि धर्म पर ज्यादा जोर दे.

कुछ देर पहले हमने आपको अफगानिस्तान के बारे में बताया था. लेकिन अब आपको वहां की एक तस्वीर दिखाते हैं, जिसमें एक कॉलेज में लड़कियों और लड़कों के बीच पर्दा करके उन्हें पढ़ाया जा रहा है. सोचिए, आज अगर भारत में कुछ लोग ऐसी व्यवस्था की मांग करते हैं, तब क्या होगा? क्या आप ऐसे स्कूलों और कॉलेजों में अपने बच्चों को पढ़ा पाएंगे? यहां एक पॉइंट ये भी है कि अगर आज कोई बच्चा अपने स्कूल में नमाज पढ़ता है, तो वो फिर कॉलेज में भी ऐसा करने की मांग करेगा. कॉलेज के बाद उसे जिस भी कम्पनी में नौकरी मिलेगी, वो वहां भी ऐसा करने का अनुमति मांगेगा, तब आप क्या करेंगे?

फ्रांस ने दिखाया था कड़ा रुख

ये सवाल कुछ साल फ्रांस के सामने भी आया था और तब उसने वर्ष 2004 में ये कानून लागू किया था कि, वहां के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे ऐसा कोई भी धार्मिक चिन्ह, टोपी, लॉकेट, हिजाब और बुर्का धारण नहीं करेंगे, जिससे उनका धर्म पता चलता हो.

आज भारत को भी ऐसे ही कानून की जरूरत है. ये तभी मुमकिन होगा, जब हमारा देश यूनिफॉर्म सिविल कोड को अपनाएगा, जो ये कहता है कि अगर देश एक है तो कानून भी सभी धर्मों के लिए एक होना चाहिए. संविधान का आर्टिकल 44 खुद ये निर्देश देता है कि उचित समय पर सभी धर्मों के लिए पूरे देश में 'समान नागरिक संहिता' लागू की जाए.

यहां देखें VIDEO:

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