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वासु चौरे/भोपाल: मध्यप्रदेश में 2023 के विधानसभा चुनाव को लेकर बीजेपी और कांग्रेस ने अभी से तैयारियां तेज कर दी हैं. एक ओर भाजपा के लगातार संगठनात्मक कार्यक्रम चल रहे हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस भी संगठन के तौर पर मजबूत होने और एकजुटता का दावा कर रही है. हालांकि पिछले दो साल में हुए उपचुनाव के आंकड़ों पर गौर करें तो कांग्रेस का ट्रैक रिकॉर्ड काफी खराब रहा है.
33 में महज 11 सीटें जीती कांग्रेस
प्रदेश में पिछले 2 सालों में एक लोकसभा सीट समेत 32 विधासभा सीटों के लिए अलग-अलग समय में उपचुनाव हुए हैं. यानी राज्य में कुल 33 उपचुनाव हुए हैं. इनमें कांग्रेस महज 11 सीटों पर ही उपचुनाव ही जीत पाई है.
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कांग्रेस-बीजेपी के तंज
कांग्रेस नेताओं का कहना है कि भाजपा ने धनबल, बाहुबल और सत्ता बल का इस्तेमाल कर चुनावों में जीत हासिल की है. कांग्रेस पार्टी के सभी नेता एकजुट हैं. गुटबाजी जैसी कोई बात नहीं है. भाजपा ने किसान, युवाओं बेरोजगारों के साथ धोखा किया है और जनता इसका जवाब देगी.
भाजपा प्रवक्ता आशीष अग्रवाल ने कांग्रेस पर तंज कसते हुए कहा कि जब कांग्रेस 15 महीने के लिए सत्ता में थी तो जनता के काम नहीं किए. प्रदेश में काली सरकार चल रही थी और सत्ता से जाने के बाद कांग्रेस के सारे नेता गायब हो गए. कांग्रेस जनता का भरोसा खो चुकी है और आने वाले चुनावों में भी भाजपा की ही जीत होगी.
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नवंबर 2020 में 28 सीटों के चुनाव
कमलनाथ की सरकार गिरने के बाद प्रदेश में 28 सीटों के लिए 2 नवंबर 2020 को मतदान हुआ था. इसके परिणाम 10 नवंबर 2020 को आए. यहां बीजेपी ने 19 तो वहीं कांग्रेस ने 9 सीटों पर जीत दर्ज की थी.
मई 2021 में दमोह उपचुनाव
2018 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े राहुल सिंह लोधी ने सरकार गिरने के बाद पार्टी से इस्तीफा देकर भाजपा ज्वाइन की. इसके बाद वो भाजपा की टिकट पर दमोह उपचुनाव लड़े, लेकिन उन्हें कांग्रेस के अजय टंडन ने हरा दिय था.
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अक्टूबर में हुए 4 सीटों के उपचुनाव
अक्टूबर में एक लोकसभा सीट खंडवा है और तीन अन्य विधानसभा सीटें, जोबट, रैगांव और पृथ्वीपुर के लिए उपचुनाव हुए. यहां भाजपा ने खंडवा समेत जोबट और पृथ्वीपुर में जीत हासिल की. वहीं रैगांव में कांग्रेस उम्मीदवार बाजी मारने में सफल रहा.
क्या है कांग्रेस की कमजोरी की कारण
सत्ता जाने के बाद कांग्रेस अब तक सड़कों पर कोई बड़ा आंदोलन नहीं कर पाई, जिससे वो जनता तक सीधी पहुंच सके. हालांकि हाल ही में घर चलो घर-घर चलो अभियान चलाया गया, लेकिन इसका कोई खासा असर देखने को नहीं मिला. कोई बड़ी जिम्मेदारी ना होने के चलते अन्य बड़े नेता अपने क्षेत्रों तक ही सीमित हो गए हैं.
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