Loksabha Elections 2024: यूपीए अब इंडिया के नाम से जाना जाएगा। इस नाम का फैसला बेंगलुरु में 26 विपक्षी दलों ने मिलकर लिया। लेकिन बिहार के सीएम नीतीश कुमार को इंडिया नाम से ऐतराज है। इसके पीछे जो वजह बताई है वो भाषा विन्यास के वजह से भले ही अधिक मतलब ना रखता हो, सियासी तौर पर अहम है।
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Nitish Kumar: आम चुनाव 2024(General Elections 2024) अगर भारतीय लोकतंत्र के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित होने वाला है तो उसके पीछे खास वजह भी है. 2024 का चुनाव जितना महत्व नरेंद्र मोदी (Narendra Modi)की अगुवाई वाली एनडीए के लिए है, उतना ही महत्व विपक्षी धड़ों के लिए है. एक तरफ 36 दलों के साथ एनडीए(NDA) तो दूसरी तरफ करीब 26 दलों के साथ एक नया चेहरा उभर कर सामने आया है कि जिसे नाम इंडिया दिया गया है, वहीं 6 ऐसे दल हैं, जिनका इन दोनों धड़ों से नाता नहीं है. कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में सोमवार और मंगलवार को मंथन के बाद इंडिया नाम सामने आया. हालांकि बिहार के सीएम नीतीश कुमार(Nitish Kumar) को ऐतराज है, ऐतराज की वजह उनके मुताबिक INDIA में NDA शब्द से है. लेकिन सवाल यहां ये है कि क्या सिर्फ वजह इतनी सी भर है, या कारण कुछ और है. नीतीश की नाराजगी या उनकी नापसंदगी को समझने से पहले यूपीए किस तरह इंडिया बना समझना जरूरी है.
2004 में यूपीए, 2023 में इंडिया
2004 के साल को समझना जरूरी है. 1999 से देश की गद्दी पर अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में एनडीए का शासन था. वाजपेयी सरकार ने समय से पहले इंडिया शाइनिंग के नारे पर सवार होकर चुनाव का ऐलान किया था. लेकिन सरकार बनाने के लिए आवश्यक संख्या की गणित एनडीए के साथ नहीं थी. सबसे बड़े दल के तौर पर कांग्रेस सामने आई हालांकि 272 की जादुई संख्या हासिल करने में नाकाम रही. सरकार बनाने की कवायद में यूपीए का जन्म हुआ जो अब इंडिया के बाद इतिहास हो चुका है. इंडिया के बैनर तले कुल 26 दल हैं जिनमें सीएम नीतीश कुमार की पार्टी और पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की टीएमसी भी शामिल है. इन सबके बीच जब कांग्रेस की तरफ से यह बयान आया कि उसके लिए पीएम का पद मायने नहीं रखता तो टीएमसी सांसद शताब्दी रॉय ने ममता बनर्जी का नाम उछाल दिया. अब सवाल यह है कि सीएम नीतीश कुमार जो गैर मोदी, गैर बीजेपी सरकार की वकालत करते हैं वो खिलाफ क्यों हो गए.
ये हैं पांच वजह
कांग्रेस की तरफ से जब बयान आया कि उसके लिए पीएम पद महत्वपूर्ण नहीं बल्कि देश की चिंता है तो यह बात साफ हो गई कि अब कई नाम चर्चा में आने लगेंगे. राजनीतिक तौर पर नेता जो भी कुछ कहें देश की सर्वोच्च गद्दी पर बैठने का सपना पाले रहते हैं. उनके लिए हर एक घटना मौके की तरह होता है. अगर आप नीतीश कुमार और ममता बनर्जी की सियासत को देखें तो तकरार, टकराव की राजनीति के लिए जाने जाते रहे हैं. एनडीए या यूं कहें कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ जब गोलबंदी शुरू होने लगी तो एक बात साफ हो गई कि क्षत्रप नेताओं को खुद के लिए उम्मीद नजर आने लगी।
नीतीश कुमार इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि अगर उनके दबाव की राजनीति कमजोर हुई तो सियासी तौर पर उनका अप्रसांगिक होना तय है. सरकार बनाने और बचाने की खातिर उनके खेल को भारतीय लोकतंत्र का हर राजनीतिक दल अच्छी तरह समझते हैं. ऐसी सूरत में उन्हें किसी ना किसी रूप में विरोध की राजनीति को जारी रखना होगा.
कांग्रेस ने जब साफ किया कि उनके लिए पीएम की कुर्सी मायने नहीं रखती है तो सवाल यह कि आखिर चेहरा कौन होगा. यह अपने आप में जटिल सवाल है जिसका जवाब इतना आसान नहीं. नीतीश कुमार पहले से कहते रहे हैं कि गठबंधन धर्म का पालन करते हुए सबसे पहले मोदी हटाओ की रणनीति पर काम करना चाहिए. उन्हें पता है कि सियासत में संघर्ष का जितना अधिक महत्व होता है उससे कहीं अधिक ब्रांडिंग का अपना महत्व है.
नीतीश कुमार भले ही राष्ट्रीय राजनीति में नहीं हो लेकिन उनका केंद्र की सरकार से नाता रहा है. केंद्रीय सियासत में मजबूत होने के लिए जरूरी है कि वो खुद को एक ऐसे नेता के तौर पर पेश करें जो मोदी के खिलाफ खुलकर अपनी बात कहता हो. अगर बिहार की राजनीति को देखें तो एक बात सामान्य तौर पर कही जाती है कि नीतीश जी कभी भी पाला बदल सकते हैं. अब जबकि उनके लिए एक अवसर आया है तो वो हर तरह की तरकीबों पर काम कर रहे हैं।
राजनीति के जानकार कहते हैं कि सियासत में कभी भी कुछ काला या सफेद नहीं होता है, ग्रे एरिया ही किसी भी राजनेता की सियासत को दिशा देती है। वो ग्रे एरिया ही होता है जिसका फायदा उठा नेता अपनी बातों से या तो मुकर जाते हैं या आगे बढ़ने की वकालत करते हैं।