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नई दिल्ली: वर्ष 1952 में जब चुनाव के नतीजे आए तो जवाहर लाल नेहरू को प्रचंड बहुमत मिला और उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी लोक सभा की 489 में से 364 सीटें जीतने में कामयाब रही. सबसे बड़ी बात ये है कि उनके सामने विपक्ष बहुत कमजोर हो गया था. कांग्रेस के बाद 16 सीटों के साथ CPI दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी. 12 सीटों के साथ Socialist Party तीसरी नंबर की पार्टी थी, जिसका गठन जय प्रकाश नारायण और आचार्य नरेंद्र देव जैसे नेताओं ने किया था और इन नेताओं का मानना था कि ये पार्टी गांधीवादी सिद्धांत पर आधारित है. इसके अलावा नेहरू के सहयोगी रहे जेबी कृपलानी ने भी किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई थी, जो 145 सीटों में से 9 सीटों पर ही जीत पाई थी.
बहुत कम लोग जानते हैं कि डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर भी इन चुनावों में नेहरू के खिलाफ लड़ रहे थे और उन्होंने Scheduled Caste Federation नाम की एक पार्टी बनाई थी, जिसने देशभर के 10 राज्यों में 35 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन उनकी पार्टी को केवल 2 सीटों पर ही जीत मिल पाई थी. हैरानी की बात ये थी कि खुद अम्बेडकर बॉम्बे लोक सभा सीट से चुनाव हार गए थे और चौथे नंबर पर रहे थे.
आज अम्बेडकर के नाम पर हमारे देश में 18 से ज्यादा राजनीतिक पार्टियां हैं और इन पार्टियों को अम्बेडकर के नाम पर दलितों के वोट भी मिलते हैं. लेकिन ये भी सच है कि अम्बेडकर कभी खुद चुनाव नहीं जीत पाए. उन्होंने पहला चुनाव ही कांग्रेस के एक ऐसे उम्मीदवार से हारा, जो बतौर सहायक उनके साथ काम कर चुके थे. इस कांग्रेस नेता का नाम काजरोलकर था.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ ने भी 94 लोक सभा सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से उसे 3 सीटों पर जीत मिली थी. वर्ष 1980 में यही पार्टी बीजेपी बनी और आज लोक सभा में बीजेपी के पास पूर्ण बहुमत है. यानी 3 सीटों से शुरू हुई जनसंघ पार्टी आज बीजेपी के रूप में 303 सीटों पर पहुंच चुकी है.
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पश्चिमी देशों की तरह चुनाव शुरू होने से पहले नेहरू भी भारत के अशिक्षित वोटर्स को लेकर काफी डरे हुए थे. उन्हें भी हमारे देश के लोगों की काबिलियत पर भरोसा नहीं था. और शायद यही वजह है कि उन्होंने खुद सभी राज्यों में जाकर चुनाव प्रचार करने का फैसला किया.
नेहरू ने प्रचार के लिए लगभग 40 हजार किलोमीटर लंबी यात्रा की, जिसमें 29 हजार किलोमीटर की यात्रा उन्होंने हवाई जहाज से तय की. साढ़े 8 हजार किलोमीटर की यात्रा गाड़ी से, ढाई हजार किलोमीटर की यात्रा ट्रेन से और 150 किलोमीटर की यात्रा बोट से तय की.
कुल 300 रैलियां में उन्होंने दो करोड़ों लोगों को संबोधित किया और आखिर तक उनकी कोशिश यही थी कि देश के अशिक्षित वोटर्स के दिमाग में ये बात बैठा दी जाए कि प्रधानमंत्री तो उन्हें ही बनना चाहिए. चुनाव में जीत के बाद एक बयान में उन्होंने ये कहा था कि देश के अशिक्षित वोटर्स के प्रति उनकी सोच अब बदल गई है. यही बात उन पश्चिमी देशों ने भी भारत की तारीफ में कही, जो भारत के अशिक्षित वोटर्स को चुनाव से पहले हीन भावना से देख रहे थे.
हालांकि इन चुनावों के नतीजों में एक खास बात भी थी. इनमें कांग्रेस को प्रचंड बहुमत जरूर मिला था. लेकिन वोट शेयर के मामले में पार्टी का प्रदर्शन उतना शानदार नहीं था. कांग्रेस को 45 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि 55 प्रतिशत वोट विपक्षी पार्टियों के पास थे. यानी अगर नेहरू के खिलाफ बाकी पार्टियां एकजुट हो जाती तो नेहरू के लिए जीत इतनी आसान नहीं होती. इसके अलावा ये बात भी पूरी तरह सही नहीं है कि पहले चुनाव में पूरा देश ही नेहरू को प्रधानमंत्री बनाना चाहता था, जैसे कि आपको बताया जाता है.
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चुनाव में कुल साढ़े 10 करोड़ वोट पड़े थे, जिनमें से लगभग साढ़े चार करोड़ वोट कांग्रेस को मिले थे. यानी इन साढ़े चार करोड़ लोगों के वोट से नेहरू प्रधानमंत्री बने. लेकिन आपको याद होगा. 2019 के लोक सभा चुनाव में जब प्रधानमंत्री मोदी 303 सीटों के साथ जीते थे तो हमारे ही देश के एक खास वर्ग ने ये कहा था कि उन्हें चुनाव में साढ़े 22 करोड़ वोट ही मिले हैं. यानी बाकी लोग उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाना चाहते थे. लेकिन क्या ये लोग नेहरू के लिए भी ऐसा ही कहेंगे?
आपने हमारे देश के विपक्षी नेताओं को ये कहते हुए जरूर सुना होगा कि जिस तरह आज कल चुनावों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, हिन्दू मुसलमान और दलितों का मुद्दा उठाया जाता है, वैसा पहले नहीं होता था. लेकिन सच्चाई ये है कि इन मुद्दों की जमीन 70 साल पहले देश के पहले लोक सभा में ही तैयार कर ली गई थी. उस समय चुनाव में चार बड़े मुद्दे थे. जिनमें सबसे बड़ा मुद्दा था हिन्दू मुसलमान. भारत पाकिस्तान के बंटवारे के बाद देश में हिन्दू मुसलमान की बहस छिड़ी हुई थी. और जब चुनाव शुरू हुए तो इस पर खूब राजनीति हुई.
जवाहर लाल नेहरू ने तो ये निर्णय लिया कि वो अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत पंजाब के लुधियाना से करेंगे, जहां के सिख बंटवारे के दौरान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे. नेहरू ने लुधियाना में दिए अपने भाषण में साम्प्रदायिकता को देश के लिए खतरा बताते हुए कांग्रेस को एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी बताया था. लेकिन सच ये है कि वो लोगों की भावना के अनुरूप अपने प्रचार अभियान को अंजाम दे रहे थे.
चुनाव में दूसरा बड़ा मुद्दा था हिन्दू कोड बिल, जो मुस्लिम तुष्टिकरण से भी प्रभावित था. ये बिल 1951 में पेश हुआ था, जिसके तहत हिन्दू धर्म में विवाह, सम्पत्ति के बंटवारे और महिलाओं को तलाक का अधिकार सुनिश्चित किया गया. उस समय बहस इस बात पर थी कि केवल हिन्दू धर्म के लोगों पर ही इस तरह का कानून क्यों थोपा जा रहा है? जब देश धर्मनिरपेक्ष है तो मुसलमानों के लिए ऐसा कोई कानून या बिल क्यों नहीं लाया गया? ये सारी बहस चुनाव से पहले हो रही थी इसलिए नेहरू ने इस बिल को टाल दिया, जिससे नाराज होकर उस समय के कानून मंत्री डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर ने इस्तीफा दे दिया.
लेकिन साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करके कांग्रेस ने चुनावों में एक ऐसा माहौल बना दिया, जिससे उसे काफी फायदा हुआ. मुसलमानों ने कांग्रेस को इसलिए वोट दिया क्योंकि उन्हें नेहरू पर भरोसा था कि वो उनके लिए ऐसा कोई कानून नहीं लाएंगे. और हिन्दुओं ने इस उम्मीद में वोट दिया कि नेहरू एक बार बिल को टालने के बाद दोबारा से इसे संसद में पेश नहीं होने देंगे. लेकिन चुनाव में जीत के बाद नेहरू ने इस बिल को अलग-अलग टुकड़ों में संसद से पास कराया और मुसलमानों के लिए कभी कोई कानून बना ही नहीं. अगर ऐसा हो गया होता तो तीन तलाक का मुद्दा कई दशकों तक कांग्रेस को चुनाव में वोटों की ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं कराता.
तीसरा बड़ा मुद्दा था हमारे देश के दलित वोटर और अम्बेडकर इसी मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे थे. उनकी पार्टी के नाम में भी Scheduled Caste लिखा हुआ था. अम्बेडकर का मानना था कि दलितों के खिलाफ अन्याय को समाप्त करने के लिए उनकी विचारधारा की पार्टी का शासन में आना जरूरी है. वो ये भी मानते थे कि कांग्रेस की नीतियां दलितों को ज्यादा लाभ नहीं पहुंचा सकती.
इसके अलावा उस समय भूखमरी, गरीबी और रोजगार जैसे मुद्दे भी काफी चर्चा मे थे. जैसे जय प्रकाश नारायण की सोशलिस्ट पार्टी चाहती थी कि देश को कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को मजबूत करना चाहिए और गांवों को समृद्ध बनाना चाहिए. लेकिन कांग्रेस औद्योगिक बदलावों के पक्ष में थी.