किरोड़ी सिंह बैंसला का सिपाही से कर्नल बनने का सफर, साथी कहते थे 'इंडियन रैम्बो'
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किरोड़ी सिंह बैंसला का सिपाही से कर्नल बनने का सफर, साथी कहते थे 'इंडियन रैम्बो'

गुर्जर आरक्षण आंदोलन के मुखिया कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला आज हमारे बीच नहीं रहे. जयपुर के मणिपाल अस्पताल में उन्होंने आज सुबह 7 बजकर 36 मिनट पर कर्नल बैंसला ने 82 साल की उम्र में अंतिम सांस ली. आरक्षण के लिए कर्नल बैंसला ने 2006 से लड़ाई शुरू की थी.

राजस्थान की राजनीति में बैंसला कद्दावर नेता के रूप में उभरे.

Jaipur: गुर्जर आरक्षण आंदोलन के मुखिया कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला आज हमारे बीच नहीं रहे. जयपुर के मणिपाल अस्पताल में उन्होंने आज सुबह 7 बजकर 36 मिनट पर कर्नल बैंसला ने 82 साल की उम्र में अंतिम सांस ली. आरक्षण के लिए कर्नल बैंसला ने 2006 से लड़ाई शुरू की थी. तब से लेकर अब तक राजस्थान में 6 बार आंदोलन हुए. उन्होंने समाज के आरक्षण के लिए कांग्रेस और बीजेपी दोनों सरकारों में आंदोलन किए.

राजस्थान की राजनीति में बैंसला कद्दावर नेता के रूप में उभरे. भाजपा ने टोंक- सवाईमाधोपुर लोससभा सीट से किरोड़ी सिंह बैंसला को टिकट दिया, लेकिन कांग्रेस के प्रत्याशी नमोनारायण मीणा से 317 वोटों से चुनाव हार गए थे. इसके बाद कर्नल बैंसला ने कुछ दिनों बाद ही भाजपा छोड़ दी थी, लेकिन लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान एक बार कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला भाजपा शामिल हो गए थे.साल 2008 में राजस्थान में गुर्जर आंदोलन चरम पर था.

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जानिए कौन थे किरोड़ी सिंह बैंसला-
कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला का जन्म राजस्थान के करौली जिले के मुंडिया गांव में हुआ था. गुर्जर समुदाय से आने वाले किरोरी सिंह ने अपने करियर की शुरुआत शिक्षक के तौर पर ही थी, लेकिन पिता के फौज में होने के कारण उनका रुझान फौज की तरफ थी. उन्होंने भी सेना में जाने का मन बना लिया. वह सेना में सिपाही के रूप में भर्ती हो गए. बैंसला सेना की राजपूताना राइफल्स में भर्ती हुए थे और सेना में रहते हुए 1962 के भारत-चीन और 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में बहादुरी से वतन के लिए जौहर दिखाया. सिपाही से कर्नल तक का सफर किरोरी सिंह बैंसला एक पाकिस्तान में युद्धबंदी भी रहे. उन्हें दो उपनामों से भी उनके साथी जानते थे. सीनियर्स उन्हें 'जिब्राल्टर का चट्टान' और साथी कमांडो 'इंडियन रैम्बो' कह कर बुलाते थे.

2006 से हुई गुर्जर आंदोलन की शुरूआत-
देश में आरक्षण की चिंगारी तो आजादी के बाद से ही सुलग रही है, मगर राजस्थान में गुर्जर आंदोलन की चिंगारी सबसे पहले साल 2006 में भड़की. तब से लेकर अब तक रह-रहकर छह बार बड़े आंदोलन हो चुके हैं. इस दौरान भाजपा और कांग्रेस दोनों की सरकार रही, मगर किसी सरकार से गुर्जर आरक्षण आंदोलन की समस्या का स्थायी समाधान नहीं निकाला. साल 2006 में एसटी में शामिल करने की मांग को लेकर पहली बार गुर्जर राजस्थान के हिंडौन में सड़कों और रेल पटरियों पर उतरे थे. गुर्जर आंदोलन 2006 के बाद तत्कालीन भाजपा सरकार महज एक कमेटी बना सकी, जिसका भी कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला.

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दूसरी बार में 28 लोग मारे गए-
2006 में हिंडौन में रेल पटरियां उखाड़ने वाले गुर्जर कमेटी बनने के बाद कुछ समय के लिए शांत जरूर हुए थे, मगर चुप नहीं बैठे और 21 मई 2007 फिर आंदोलन का ऐलान कर दिया. गुर्जर आंदोलन 2007 के लिए पीपलखेड़ा पाटोली को चुना गया. यहां से होकर गुजरने वाले राजमार्ग को जाम कर दिया. इस आंदोलन में 28 लोग मारे गए थे. फिर चौपड़ा कमेटी बनी, जिसने अपनी रिपोर्ट में गुर्जरों को एसटी आरक्षण के दर्ज के लायक ही नहीं माना था.

तीसरा बार में बढ़ा मौतों का आकंड़ा-
पीपलखेड़ा पाटोली में गुर्जर आंदोलन किए जाने के सालभर बाद ही गुर्जरों ने फिर ताल ठोकी. सरकार से आमने-सामने की लड़ाई का ऐलान कर 23 मार्च 2008 को भरतपुर के बयाना में पीलूपुरा ट्रैक पर ट्रेनें रोकी. सात आंदोलनकारियों को पुलिस फायरिंग में जान गंवानी पड़ी. सात मौतों के बाद गुर्जरों ने दौसा जिले के सिंंकदरा चौराहे पर हाईवे को जाम कर दिया. नतीजा यहां भी 23 लोग मारे गए और गुर्जर आंदोलन 2008 तक मौतों का आंकड़ा 28 से बढ़कर 58 हो गया,जो अब तक 72 तक पहुंच चुका है.

वर्ष 2009 में फिर आंदोलन शुरू हुआ. विधेयक पर राज्यपाल ने हस्ताक्षर किए. लेकिन कोर्ट ने रोक लगा दी. वर्ष 2010 में गुर्जरों ने फिर आंदोलन किया. विशेष पिछड़ा वर्ग (एसबीसी) में 5 फीसदी आरक्षण देने पर सहमति बनी. वर्ष 2008 में भाजपा शासन में राज्य सरकार ने विधेयक पारित कराया. 2009 में कांग्रेस शासन में राज्यपाल ने हस्ताक्षर कर विधेयक को मंजूरी दी. वर्ष 2009 में फिर आंदोलन शुरू हुआ. विधेयक पर राज्यपाल ने हस्ताक्षर किए लेकिन कोर्ट ने रोक लगा दी. वर्ष 2010 में गुर्जरों ने फिर आंदोलन किया. इसके बाद 2019 में सवाईमाधोपुर के मलारना में पटरियां रोककर गुर्जर आंदोलन हुआ.

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