Chittorgarh: कठपुतली कलाकारों को नहीं मिल रहे कद्रदान, बोले- सीखना दूर, कोई देखता नहीं
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Chittorgarh: कठपुतली कलाकारों को नहीं मिल रहे कद्रदान, बोले- सीखना दूर, कोई देखता नहीं

अब कठपुतली कलाकारों के फाकाकशी की नौबत आ रही है. वहीं, कोरोना ने तो इनकी अब और हालात खराब कर दी है. 

प्रतीकात्मक तस्वीर.

Chittorgarh: आज के जमाने में गीत, संगीत, सिनेमा, गजल सहित मनोरंजन के साधन हो या सन्देश देने का माध्यम, सभी सोशल मीडिया (Social Media) के भरोसे चल रहे हैं. ऐसे में जो पुरानी कलाएं हैं, वे लुप्त होती जा रही हैं. इसी में शामिल है कठपुतली कला. 

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कठपुतली कलाकारों को कद्रदान नहीं मिल रहे हैं. एक समय था, जब मनोरंजन के रूप इस कला का उपयोग होता था. होर्डिंग और बैनर से पहले भी कठपुतली कला से ही सरकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार होता रहा है लेकिन अब समय के साथ बदलाव आया तो कठपुतली कला अंधेरे में चली गई. यही कारण है कि अब कठपुतली कलाकारों के फाकाकशी की नौबत आ रही है. वहीं, कोरोना ने तो इनकी अब और हालात खराब कर दी है. 

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जानकारी के अनुसार, रंग-बिरंगी कठपुतलियां कभी लोगों के मनोरंजन का साधन होने के साथ ही सोशल मैसेज (Social Message) देने का भी माध्यम बनती रही हैं. बच्चों को भी यह सबसे ज्यादा आकर्षित करती हैं. यही वजह रही कि विदेशों ने भी हमारी इस पारंपरिक लोक कला को अपनाया, लेकिन देश में इस कला को कद्रदान नहीं मिल रहे हैं. 

कला से अब लोगों का जुड़ाव खत्म 
चित्तौड़गढ़ जिले में भी एक मात्र कलाकार है लेकिन एक मात्र कठपुतली कलाकार भी इसे छोड़ने की बात कर रहे हैं. इस कला से अब लोगों का जुड़ाव भी खत्म हो रहा है और सोशल मीडिया का दौर शुरू होने के बाद सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार का काम भी कठपुतली कला से करवाना बन्द हो गया है. ऐसे में कठपुतली कलाकार को आर्थिक संकट (Economic Crisis) का सामना करना पड़ रहा है. चित्तौड़गढ़ जिला मुख्यालय से करीब 15 किलोमीटर दूर नगरी गांव में रहने वाले 70 वर्षीय रामेश्वर लाल गर्ग पुराने और चित्तौड़गढ़ जिले के एक मात्र कठपुतली कलाकार हैं. इनकी अंगुलियों के इशारों पर नाचती कठपुतलियों का जादू आज भी कायम है, लेकिन अब कार्यक्रमों का टोटा और दर्शकों की कमी के चलते इस कला को आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है. रामेश्वरलाल की आजीविका का साधन ही कठपुतली कला है. वो भी इस कला को छोड़ने की बात कर रहे है. 

क्या कहना है कठपुतली कलाकारों का
कठपुतली कलाकार रामेश्वर गर्ग (Rameshwar Garg) ने बताया कि कई सालों तक कठपुतलियों की मदद से सरकारी योजनाओं के प्रचार पसार, शौर्य गाथा, एंटरटेनमेंट करने का कार्य किया. पहले सरकारी योजनाओं की जानकारी देने के लिए गांव-गांव में कठपुतलियों का खेल दिखाया जाता था लेकिन आज कल सोशल मीडिया का जमाना आ गया. प्रशासन की ओर से भी सरकारी प्रचार प्रसार के लिए इस पर ध्यान नहीं दिया जाता. इसे संरक्षण देने के लिए पूर्व में कई बार प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों से मांग हो चुकी है. 

गर्ग ने बताया कि हमने अपने आप में कई बदलाव भी किए. यह कला बहुत पुरानी है. राजा विक्रमादित्य के पास भी 32 कठपुतलियां थी. सबसे पहले राजस्थान से ही इस कला का प्रचार प्रसार हुआ था. गर्ग ने बताया कि राजस्थान में धागा कठपुतली का खेल हुआ करता है लेकिन वे दक्षिण भारत के कठपुतली कला सीख कर आए हैं, जिसे गांव और शहर तक पहुंचाया है. इस कला के उपेक्षित होने पर अब जिले का एकमात्र कठपुतली कलाकार भी इसे छोड़ना चाहता है. 

दर्द इस बात का भी कि कोई नहीं सीख रहा इस कला को
रामेश्वर गर्ग का कहना है कि इस कला को जिंदा रखने के लिए अन्य लोगों को और बच्चों को यह सीखना चाहिए. उन्होंने कहा कि आज भी कोई अगर सीखना चाहता है तो मैं उसे यह कला सिखा सकता हूं वरना यह लुप्त हो जाएगी. रामेश्वर गर्ग को जब रिक्वेस्ट किया कि एक बार यह खेल दिखाया जाए तो उन्होंने कोरोना से बचने के लिए वैक्सीन कितनी जरूरी है, तो उन्होंने कठपुतलियों के जरिये दिखाया.

Reporter- Deepak vyas

 

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