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नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश की सियासत अपने आप में सबसे अनोखी मानी जाती है, आमतौर पर चुनावी दौर में देखने को मिलता है कि सभी नेता अपने हर बयान और जिम्मेदारी को लेकर बचते हैं और हर जवाब को 'शीर्ष नेतृत्व का फैसला' कह कर टाल देते हैं तो वहीं एक नेता ऐसे भी थे जो खुद अपने आप में शीर्ष नेतृत्व थे और जो ठान लेते थे उसी पर अड़े भी रहते थे. ये बात है साल 1999 की, जब कल्याण सिंह (Kalyan Singh) उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के मुख्यमंत्री थे लेकिन पार्टी नेतृत्व खासकर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) से उनकी अनबन चल रही थी. ये वो दौर था जब कल्याण सिंह हिन्दू हृदय सम्राट के नाम से जाने जाते थे. लेकिन ये किस्सा कल्याण सिंह का नहीं बल्कि उनके उत्तराधिकारी का है.
वैसे तो कल्याण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी ने एक साथ ही RSS और जनसंघ के जमाने से साथ-साथ राजनीति की थी और BJP के दोनों बड़े चेहरा बन चुके थे. ब्राह्मण और बनिया की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी जहां ब्राह्मण चेहरा थे तो वहीं कल्याण सिंह पिछड़े वर्ग का चेहरा बने हुए थे. पार्टी में दोनों की दोस्ती और जुगलबंदी चर्चित और लोकप्रिय थी. कल्याण यूपी के बड़े नेता थे तो अटल राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के बड़े नेता और चेहरा थे लेकिन जब दोनों के बीच खटपट शुरू हुई तो कल्याण सिंह ने 1999 के लोकसभा चुनावों में अपनी ही पार्टी को चुनाव हराने की ठानी और पार्टी को चुनौती दे दी. इससे अटल बिहारी खासा नाराज हुए और दोनों नेताओं के बीच अहम की लड़ाई और बढ़ गई.
कल्याण और अटल बिहारी की अनबन से राज्य में बीजेपी दो धड़ों में बंट गई. 13 महीने पहले अटल बिहारी वाजपेयी जिस सीट (लखनऊ संसदीय सीट) से 1998 में 4 लाख 31 हजार वोटों से चुनाव जीते थे, उन्हें अब 70 हजार कम वोटों से जीत दर्ज करनी पड़ी. इतना ही नहीं 1998 में यूपी में बीजेपी ने 58 सीटें जीती थीं लेकिन 1999 में यह घटकर आधी यानी 29 रह गईं. कहा जाता है कि कल्याण सिंह ने तब अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए राज्य में मतदान के दिन प्रशासन को सख्ती करने के आदेश दिए थे. इसके अलावा कल्याण सिंह सरकार के दो बड़े मंत्री कलराज मिश्र और लालजी टंडन उनके खिलाफ झंडा बुलंद कर रहे थे. दोनों नेताओं ने करीब छह महीने तक कल्याण सिंह के खिलाफ खुलकर मोर्चेबंदी की और जब तीसरी बार अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तब बीजेपी ने तुंरत कल्याण सिंह को हटाने का फैसला कर लिया.
इन सबके बाबजूद भी कल्याण सिंह के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया. फिर अक्टूबर, 1999 में जब वाजपेयी गठबंधन दलों के समर्थन से प्रधानमंत्री बने तब एक महीने के अंदर ही कल्याण सिंह को सत्ता से बाहर कर दिया गया. कहते हैं जब कल्याण सिंह ने PM वाजपेयी का फोन नहीं रिसीव किया तब 10 नवंबर की देर रात प्रधानमंत्री आवास में एक तत्काल बैठक बुलाई गई और कल्याण सिंह के उत्तराधिकारी पर चर्चा होने लगी. उस समय पार्टी में ही कल्याण के खिलाफ झंडा उठाने वाले लालजी टंडन और कलराज मिश्रा सीएम पद के प्रबल दावेदार माने जा रहे थे. चूंकि कल्याण सिंह एक पिछड़ी जाति के नेता थे तो उनके पिछड़ा कार्ड के दांव के बाद सवर्ण नेताओं के CM बनने की अटकलें तो खारिज हो गईं.
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पीएम आवास में हो रही बैठक में तब प्रधानमंत्री वाजपेयी के अलावा तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे, केंद्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी शामिल हुए थे. तब इस बैठक में 76 साल के रामप्रकाश गुप्ता का नाम तय किया गया और स्पष्ट था कि वही अब कल्याण सिंह के उत्तराधिकारी होंगे.
जब पार्टी ने उनका नाम तय कर लिया, तब उन्हें दिल्ली तलब किया गया लेकिन किसी को पता नहीं था कि गुप्ता लखनऊ में कहां रह रहे हैं? कहा जाता है कि तब लखनऊ पुलिस को रामप्रकाश गुप्ता का 2 कमरे का घर ढूंढने में रात को दो घंटे से ज्यादा लग गए थे. अगले दिन गुप्ता दिल्ली पहुंचे और पीएम हाउस गए. वहां गुनगुनी धूप में लॉन में खड़े गुप्ता को किसी भी पत्रकार ने नहीं पहचाना था. बाद में बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे ने ऐलान किया कि ये रामप्रकाश गुप्ता हैं और कल्याण सिंह की जगह लेने जा रहे हैं.
12 नवंबर 1999 को रामप्रकाश गुप्ता को UP का मु्ख्यमंत्री बना दिया गया. उस वक्त ये किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे. कहते हैं कि सीधा अटल बिहारी वाजपेयी का रिकमेंडेशन था. इनसे जब पूछा गया कि आपने अपने लिए लॉबी बनाई थी या नहीं. तो बोले कि ‘मैंने किसी को नहीं मनाया. सीधा मुझे बताया गया’. इनकी बात सच ही होगी, क्योंकि नेताओं की भसड़ के चलते ही इनको मौका मिला. अगर लॉबीइंग करते तो इनको भी नहीं बनाया गया होता. क्योंकि यही तो मूल समस्या थी. पर मीडिया के पास इनके बारे में बताने के लिए कुछ नहीं था. क्योंकि वो पत्रकारों की चर्चा से कब का बाहर हो चुके थे.
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