1931 के इलाहाबाद के इस एल्फ्रेड पार्क में जहां शहीद चंद्रशेखर आजाद की ये विशालकाय मूर्ति खड़ी है. ठीक इसी जगह आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते हुए अपनी पिस्तौल की बची हुई आखिरी गोली खुद ही को मार ली थी और देश के लिए हंसते-हंसते अपने प्राण त्याग दिए थे.
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नई दिल्ली: आज जब पूरा देश शहादत की बात कर रहा है, देश की सुरक्षा के लिए जान न्योछावर करेने की बात कर रहा है तब उस शहीद को याद करना जरूरी हो जाता है जिसने देश की आजादी के लिए आज ही के दिन (27 फरवरी को) अपने प्राणों की बलि दे दी थी. हम बात कर रहे हैं शहीद-ए-आजम चंद्रशेखर आजाद की, जिन्होंने महज 25 साल की उम्र में अंग्रेजों से लड़ते हुए आजाद मरने की चाह में अपनी बंदूक की आखिरी गोली खुद को मार ली थी. वो जगह थी उस वक्त के इलाहबाद का एल्फ्रेड पार्क और आज के प्रयागराज का शहीद चंद्रशेखर आजाद पार्क. इसी शाहादत के तीर्थ के दर्शन हम आपको आज कराने जा रहे हैं. ताकि आज जब देश पर कोई संकट आए तो आजादी के ये परवाने प्रेरणा की मिसाल बन हमारा पथ प्रशस्त करें.
1931 के इलाहाबाद के इस एल्फ्रेड पार्क में जहां शहीद चंद्रशेखर आजाद की ये विशालकाय मूर्ति खड़ी है. ठीक इसी जगह आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते हुए अपनी पिस्तौल की बची हुई आखिरी गोली खुद ही को मार ली थी और देश के लिए हंसते-हंसते अपने प्राण त्याग दिए थे. इस जगह एक पेड़ हुआ करता था, जिसके पीछे छुप कर आजाद ने अंग्रेजी पुलिस से घिरे होने के बावजूद 20 मिनट तक लड़ाई लड़ी थी.
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इतिहास के पन्नों से
इतिहासकार प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी ने बताया कि 27 फरवरी 1931 को चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने और क्रांतिकारियों के साथ योजना बना रहे थे. तभी अंग्रेजी पुलिस ने उन्हें घेर लिया. आजाद ने पुलिस पर गोलियां चलाईं जिससे कि सुखदेव (यह वे सुखदेव नहीं हैं जो भगत सिंह के साथ फांसी पर चढ़ाए गए थे) वहां से बचकर निकल सकें. पुलिस की गोलियों से आजाद बुरी तरह घायल हो गए थे.) इतिहासकारों का मानना है कि इस जिस पेड़ के पीछे आजाद शहीद हुए लोग उसकी पूजा करने लगे थे इसलिए उस पेड़ को भी अंग्रेजों ने सुपुर्दे खाक कर दिया. अब शहीद चंद्रशेखर आजाद पार्क में ठीक उसी जगह चंद्रशेखर आजाद की ये विशालकाय मूर्ति है और लोग आज भी पूजा करते हैं.
ऐसे बने 'आजाद'
इतिहासकार प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी ने बताया कि साल 1920 में मात्र 14 वर्ष की उम्र में चंद्रशेखर आजाद गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़े. इन्हीं आंदोलनों के दौरान उन्हें गिरफ्तार भी किया गया. तब तक वो चंद्रशेखर तिवारी के नाम से जाने जाते थे. शहीद होने के बाद उन्हें आजाद का नाम मिला. गिरफ्तारी के बाद उनसे उनका नाम पूछा गया तो उन्होंने बताया ‘आजाद’, पिता का नाम ‘स्वतंत्रता’ और घर का पता जेल. सजा के तौर पर उनपर 15 कोड़े बरसाए गए.
आजाद की आखिरी जंग
शहीद चंद्रशेखर आजाद पार्क में ही इलाहाबाद म्यूजियम है और यहां पर चंद्रशेखर आजाद की वो पिस्तौल भी रखी गई है जो एलफ्रेड पार्क में हुई आजाद की उस आखरी जंग के बाद रिकवर की गई थी. इलाहबाद म्यूजियम के डायरेक्टर डॉ सुनील गुप्ता ने बताया कि इसका जिक्र दस्तावेजों में भी मिलता है. उन्होंने कहा कि पिस्तौल के ठीक पीछे है एल्फ्रेड पार्क के पेड़ के नीचे चंद्रशेखर आजाद की वो आखिरी तस्वीर जो किसी भी हिंदुस्तानी के दिल को दहला देगी. उनकी ये पिस्तौल कई सालों के बाद 70 के दशक में अग्रेजों से वापस हिंदुस्तान लाई जा सकी.
रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी संगठन से जुड़े
इतिहासकार प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी ने बताया कि आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) से जुड़े. यहां से उनकी जिंदगी बदल गई. उन्होंने सरकारी खजाने को लूट कर संगठन की क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाना शुरू कर दिया. उनका मानना था कि यह धन भारत के लोगों का ही है जिसे अंग्रेजों ने लूटा है. रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आजाद ने काकोरी षड्यंत्र (1925) में सक्रिय भाग लिया था.
उन्होंने बताया कि आजाद ने 1928 में लाहौर में ब्रिटिश पुलिस ऑफिसर एसपी सैन्डर्स को गोली मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया था. आजाद को 29 और लोगों के साथ लाहौर कॉन्स्पिरेसी केस में चार्ज किया गया. लेकिन आजाद कभी अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आए. उनके बारे में प्रचलित है कि वह एक बेहतरीन बहरूपिए थे. भेस बदलने में एक्सपर्ट.
लेकिन कहा जाता है 27 फरवरी 1931 को कुछ गद्दारों की सूचना के बाद एलफ्रेड पार्क में अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया. यहां उन्होंने अंग्रेजों से लड़ते हुए आजाद मरने की चाह में अपनी बंदूक की आखिरी गोली खुद को मार ली थी.
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