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नई दिल्ली: लता मंगेशकर की मृत्यु पर एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण धार्मिक विवाद चल रहा है. रविवार को मुंबई के शिवाजी पार्क में शाहरुख खान अपनी मैनेजर पूजा ददलानी के साथ लता मंगेशकर को श्रद्धांजलि देने पहुंचे थे, जहां उन्होंने इस्लाम धर्म के मुताबिक पहले दुआ पढ़ी और इसके बाद उन्होंने अपना मास्क नीचे करके उनके पार्थिव शरीर पर मुंह से फूंका. फिर पार्थिव शरीर के चारों तरफ परिक्रमा भी लगाई. इस्लाम धर्म में ये दुआओं को असरदार करने का एक तरीका होता है. लेकिन हमारे देश के बहुत सारे लोग ये आरोप लगाने लगे कि शाहरुख खान ने फूंका नहीं, थूका है. लेकिन ये सच नहीं है.
यहां हम सबसे पहले एक बात स्पष्ट कर दें कि शाहरुख खान ने लता मंगेशकर के पार्थिव शरीर पर थूका नहीं था, जैसा कि कुछ लोगों द्वारा कहा जा रहा है. दरअसल, इस्लाम धर्म में जो हदीस हैं, उनमें फातिहा का जिक्र किया गया है, जिसका मतलब होता है, दुआ पढ़ना. फातिहा, अलग-अलग मौकों पर पढ़ी जा सकती है. जैसे किसी के लिए अगर दुआ मांगनी हो. कोई शुभ अवसर हो या किसी का खराब स्वास्थ्य हो. इसके अलावा किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर भी इस्लाम में फातिहा पढ़ने का जिक्र किया गया है और इस्लाम धर्म में ये भी उल्लेख मिलता है कि दुआ पढ़ने के बाद, अपने मुंह से उस चीज या व्यक्ति पर फूंक मारनी चाहिए, ताकि दुआ का असर उस व्यक्ति तक पहुंच सके. आप कह सकते हैं कि ये एक प्रार्थना का तरीका है.
इस्लाम धर्म में कुरान के बाद हदीस को सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथ माना गया है. इसमें बताया गया है कि पैगम्बर मोहम्मद साहब ने अपना जीवन कैसे व्यतीत किया और उनके वैचारिक सिद्धांत क्या थे. अनेकों हदीस में इस बात का उल्लेख मिलता है कि पैगम्बर मोहम्मद साहब, कुरान की आयतें पढ़ने के बाद अपने हाथों पर अपने मुंह से हवा फूंकते थे और ऐसा वो सम्पन्नता और अच्छाई के लिए करते थे.
हालांकि शाहरुख खान ने कल जो कुछ भी किया, वो अच्छे मन से किया. वो भी लताजी का उतना ही सम्मान करते हैं, जितना हम और आप करते हैं. हालांकि यहां एक सवाल ये भी है कि, लताजी हिन्दू थीं और उनका अंतिम संस्कार हिन्दू मान्यताओं के अनुसार किया गया. फिर शाहरुख खान का उनके पार्थिव शरीर पर इस्लाम धर्म के मुताबिक दुआ पढ़ना कितना सही है? ये एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब आपको ना तो लोकतंत्र में मिलेगा, ना संविधान के किसी अनुच्छेद में मिलेगा और ना ही समाज में आप इस सवाल का जवाब ढूंढ सकते हैं. इसका जवाब केवल इंसानियत में छिपा है.
31 जुलाई 1980 को जब मशहूर गायक मोहम्मद रफी का देहांत हुआ था, तब उनके अंतिम दर्शन के लिए लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए थे और इन लोगों में कितने हिन्दू थे और कितने मुसलमान, इसका अन्दाजा कोई नहीं लगा सकता. लता मंगेशकर की तरह मोहम्मद रफी को चाहने वाले भी किसी एक धर्म के नहीं थे और इसे आप उनकी गायकी से भी समझ सकते हैं.
मोहम्मद रफी ने अपने करियर में कई भजन गाए, जो हिन्दुओं की आस्था का माध्यम बने. इनमें 1979 में आई फिल्म सुहाग का एक गाना काफी लोकप्रिय हुआ, जिसके बोले थे, ओ मां शेरोंवाली. इसके अलावा वर्ष 1952 में आई सुपरहिट फिल्म, बैजू बावरा में भी उन्होंने एक भजन गाया, जिसके बोल थे, मन तड़पत हरि दर्शन को आज. हमें लगता है कि जहां धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग हो, जहां विभाजनकारी ताकतें हों, वहां धर्म पर बहस हो सकती है. लेकिन ऐसे मामलों में हिन्दू मुसलमान की बहस को जायज नहीं ठहराया जा सकता.
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— Zee News (@ZeeNews) February 7, 2022
हमें उम्मीद थी कि लता मंगेशकर के निधन के बाद, लोग उन्हें याद करेंगे और केवल उन्हीं के बारे में बात होगी. काफी हद तक ऐसा हुआ भी. लेकिन बाद में इस धार्मिक विवाद पर चर्चा शुरू हो गई. इसलिए हम लताजी के बारे में आपसे कुछ बात करना चाहते हैं. लगभग पांच पीढ़ियों ने लता मंगेशकर को मंत्रमुग्ध हो कर सुना है और हृदय से उन्हें सम्मान दिया.
उनका जन्म 18 सितम्बर 1929 को हुआ था. यानी भारत की आजादी से 18 साल पहले. ये उसी दौर की बात है, जब देश में शहीद भगत सिंह का नाम लोगों की जुबान पर हुआ करता था और संगीत को आजादी का तराना माना जाता था. 1947 में जब भारत आजाद हुआ, तब वो केवल 18 साल की थीं और Playback Singing में नई पहचान बना रही थी. आजादी के बाद भी लताजी ने कई दौर देखे और हर दौर में उनकी आवाज भारत के घर-घर तक पहुंची. यानी उनका जाना, एक युग का अंत नहीं है. बल्कि ये कई युगों का अंत है.
1940 के दशक में जब उन्होंने 12 साल की उम्र में गायकी का अपना सफर शुरू किया, उस समय गाने Gramophone पर सुने जाते थे. इसके बाद रेडियो का दौर आया, रेडियो के बाद Cassette Player आने लगे. इसके बाद Walkman भी काफी लोकप्रिय हुए, जब कानों में Ear Phone लगा कर संगीत को आत्मसात करना काफी आसान हो गया और फिर गानों को Compact disc यानी CD के माध्यम से सुना जाने लगा. ये बात 1990 के दशक की है.
इसके बाद I-Pod का जमाना आया और आज-कल तो गाने मोबाइल Apps पर सुने जा सकते हैं. यानी Gramophone से लेकर गानों को मोबाइल Apps पर सुनने का ये सफर, लताजी के साथ भी जुड़ा रहा और वो हर युग की ना सिर्फ गवाह बनीं, बल्कि समय के साथ उनकी लोकप्रियता और सम्मान बढ़ता चला गया.
भारत पिछले 80 वर्षों से लताजी के गीतों के साथ जी रहा है. खुशी में, दुख में, ईश्वर भक्ति में, राष्ट्र भक्ति में, प्रेम में, परिहास में, हर भाव में लता जी का स्वर हमारा स्वर बनता रहा है. आज भी जब किसी परिवार में अंताक्षरी खेली जाती है तो उसमें लताजी के गाने हर अक्षर पर फिट बैठे जाते हैं और ये बात आपने भी अनुभव की होगी.
लताजी से आज कल की युवा पीढ़ी काफी कुछ सीख सकती है. पहली सीख है Simplicity यानी सादगी. अपने जन्म से लेकर मुत्यु तक उन्होंने कई युग देखे और हर युग में उनकी सरलता एक जैसी थी. वो 1940 के दशक में भी वही सफेद रंग की साड़ी पहनती थीं और अपने जीवन के आखिरी पलों में भी उन्होंने इस सादगी को नहीं छोड़ा. आप कह सकते हैं कि वो Simple Living and High Thinking यानी सादा जीवन और उच्च विचार की शायद आखिरी मिसाल थीं.
आप जब आज कल के गायकों को देखते हैं तो उनमें ये सरलता और सहजता दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती. उनका लाइफस्टाइल, उनका स्टारडम, बड़ी और महंगी गाड़ियों में चलना, वैकेशन पर जाना, इंस्टाग्राम पर रील्स बनाना और महंगे कपड़े पहनना. आज कल के गायकों के लिए ये सबकुछ दिखावे के आसपास तक सीमित हो कर रह गया है. लेकिन लताजी का जीवन ऐसा नहीं था. उन्होंने अपने सुर और सिद्धांत कभी नहीं छोड़े.
लता जी गाना गाते समय चप्पल नहीं पहनती थीं, क्योंकि गाना उनके लिए ईश्वर की पूजा करने जैसा था. जब कोई उनके घर जाता था तो वो उसे अपने माता-पिता की तस्वीर और घर में बना अपने आराध्य का मन्दिर दिखातीं थीं. यानी इन्हीं तीन चीजों को उन्होंने पूरी दुनिया को दिखाने लायक समझा था. सोचकर देखिए, इन तीन चीजों के अलावा इस संसार में और क्या महत्वपूर्ण हो सकता है.
दूसरी सीख है Perfection With Discipline. यानी किसी काम को 100 प्रतिशत सही तरीके से करना और अनुशासन में रह कर करना. लता मंगेशकर ने अपने पूरे जीवनकाल में 50 हजार से ज्यादा गाने गए, लेकिन इनमें से एक भी गाना ऐसा नहीं था, जिसके लिए उन्होंने कई दिनों तक रियाज नहीं किया हो. एक बार उन्होंने कहा था कि जब तक उन्हें अपने गले और अपनी आवाज से संतुष्टि नहीं होती, तब तक वो गाना नहीं गा सकतीं. बहुत कम लोग जानते हैं कि 1960 के दशक में जब लताजी को ऐसा लगने लगा कि वो औसत दर्जे की गायकी कर रही हैं तो उन्होंने एक साल के लिए सिंगिग से ब्रेक ले लिया था और इस दौरान वो 6 महीने तक मौन व्रत पर रहीं थीं.
शायद यही वजह है कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महान उस्ताद बड़े गुलाम अली खां ने एक बार लता जी के लिए कहा था कि, 'कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती'. ये लताजी का अनुशासन ही था कि उनका करियर 80 वर्षों तक चला. उन्होंने मधुबाला से लेकर भाग्य श्री तक के लिए फिल्मों में गाने गाए. इसके अलावा उन्होंने Playback Singing को भी लोकप्रिय बनाया. Playback Singing का मतलब है, किसी कलाकार को पीछे से अपनी आवाज देना. भारत में पहला Playback Song, वर्ष 1935 में आई फिल्म, धूप छांव के लिए गाया गया था. इससे पहले तक फिल्मों में जो कलाकार अभिनय करते थे, गाने भी उन्हीं से गवाए जाते थे. लेकिन लता मंगेशकर ने पहली बार Playback Singing को पहचान दिलाई. मशहूर Playback Singer, मुकेश, लता के Contemporary थे.
हालांकि लताजी के लिए उनका स्टारडम एक बोझ जैसा था और परिवार की जिम्मेदारियों ने भी उन्हें समय से पहले परिपक्व बना दिया था और शायद इसी वजह से उन्होंने अपने सभी भाई बहनों का तो घर बसाया, उन्हें अच्छी जिंदगी दी. लेकिन वो कभी अपना निजी जीवन ठीक से नहीं जी पाईं और उन्होंने कभी शादी नहीं की. हालांकि उनके निजी जीवन और फैसलों का हर किसी ने सम्मान किया था. फिर चाहे वो देश का मीडिया ही क्यों ना हो.