सुन्नी वक्फ बोर्ड की अपील - निर्मोही अखाड़े ने सिर्फ प्रबंधन का अधिकार मांगा है, मालिकाना हक नहीं
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सुन्नी वक्फ बोर्ड की अपील - निर्मोही अखाड़े ने सिर्फ प्रबंधन का अधिकार मांगा है, मालिकाना हक नहीं

धवन ने कहा कि निर्मोही अखाड़े के पास ऐसे सबूत नहीं, जिससे साबित हो सके कि उनका शास्वत काल से सेवादार का हक रहा है.

 

अयोध्या रामजन्म भूमि विवाद के मामले में सुप्रीम कोर्ट में 23वें दिन भी सुनवाई जारी रही.

नई दिल्ली: अयोध्या रामजन्म भूमि विवाद (Ayodhya case) के मामले में शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में 23वें दिन भी सुनवाई जारी रही. सुन्नी वक्फ बोर्ड (sunni waqf board) की ओर से राजीव धवन ने कहा कि सुनवाई में हिंदू पक्षकार रामलला के तरफ से दलील दी गई थी कि हिंदू नदियों, पहाड़ों को पूजते आए हैं, इसी तर्ज पर रामजन्म स्थान भी वंदनीय है. धवन ने कहा, "मेरा कहना है कि यह एक वैदिक अभ्यास है. हिंदू सूरज की पूजा करते हैं पर उस पर मालिकाना हकतो नहीं जताते. निर्मोही अखाड़े (Nirmohi Akhara) के पास ऐसे सबूत नहीं, जिससे साबित हो सके कि उनका शास्वत काल से सेवादार का हक रहा है. अखाड़े ने भी सिर्फ सेवादार/ प्रबंधन का अधिकार मांगा है, ज़मीन के मालिकाना हक को लेकर दावा नहीं किया." 

इससे पहले वकील राजीव धवन की जगह बोर्ड की तरफ से वरिष्ठ वकील जफरयाब जिलानी ने अपनी दलीलें रखीं. जिलानी ने कहा- 1885 में निर्मोही अखाड़ा ने जब कोर्ट में याचिका दायर की थी तो उन्होंने अपनी याचिका में विवादित जमीन के पश्चिमी सीमा पर मस्जिद होने की बात कही थी. यह हिस्सा अब विवादित जमीन का भीतरी आंगन के नाम से जाना जाता है. निर्मोही अखाड़ा ने 1942 के अपने मुकदमे में भी मस्जिद का जिक्र किया है जिसमें उन्होंने तीन गुम्बद वाले ढांचे को मस्जिद स्वीकार किया था.

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मुस्लिम पक्ष के वकील जिलानी यह साबित करने की कोशिश की कि विवादित स्थल पर बाबरी मस्जिद था. इसके लिए कोर्ट के सामने कुछ दस्तावेजों का संदर्भ पेश किया. जिलानी ने पीडब्ल्यूडी की उस रिपोर्ट का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि 1934 के सांप्रदायिक दंगों में मस्जिद के एक हिस्से को कथित रूप से क्षतिग्रस्त किया गया था और पीडब्ल्यूडी से उसका मरम्मत कराया था. जिलानी ने बाबरी मस्जिद में 1945 -46 में तरावीह की नामज़ पढ़ाने वाले हाफ़िज़ के बयान का ज़िक्र किया. जीलानी ने एक गवाह का बयान पढ़ते हुए कहा कि उसने 1939 में मगरिब की नमाज़ बाबरी मस्जिद में पढ़ी थी. 

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हिंदू पक्ष की तरफ से जिरह के दौरान यह दलील दी गई कि 1934 के बाद विवादित स्थल पर नामज़ नहीं पढ़ी गई. जिलानी ने मुस्लिम पक्ष के गवाहों के बयान पर यह साबित करने की कोशिश की कि 1934 के बाद भी विवादित स्थल पर नामज़ पढ़ी गई.

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