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नई दिल्ली: काबुल हमले (Kabul Attack) पर अब दो तरह की थ्योरी सामने आ रही है. पहली ये कि ये हमला आईएसआईएसआई (ISIS) खुरासान ने कराया है जो इस हमले के जरिए अफगानिस्तान (Afghanistan) पर अपना दावा करना चाहता है. तालिबान को अमेरिका का खिलौना साबित करना चाहता है और शायद वो ISIS की स्थापना करने वाले अबु बक्र अल बगदादी (Abu Bakr al-Baghdadi) की मौत का बदला लेने चाहता है.
लेकिन दूसरी थ्योरी ये है कि ये हमला अमेरिका (America) ने कराया है. बहुत सारे एक्सपर्ट्स का मानना है कि जो हुआ उसके बाद अमेरिका को अफगानिस्तान में बने रहने का एक बहाना मिल जाएगा. वो हमला करने वाले आतंकवादियों को ढूंढने और मारने के नाम पर अफगानिस्तान में दखल देता रहेगा. इसके अलावा इससे अमेरिका और तालिबान एक दूसरे के करीब आ जाएंगे और एक दूसरे के साथ तालमेल करके चलेंगे. जब अमेरिका तालिबान से बात करेगा उसे अपना साझेदार बनाएगा तो दूसरे देशों को भी तालिबान से बात करनी पड़ेगी और एक तरह से उसे मान्यता मिल जाएगी.
अब हमें नहीं पता कि इनमें से कौन सी थ्योरी है, लेकिन अगर दूसरी थ्योरी सही है तो इससे तालिबान (Taliban) और अमेरिका को फायदा होगा. दुनिया में ये साबित हो जाएगा कि आईएसआईएसआई तालिबान से बड़ी बुराई है. यानी बड़ी बुराई के सामने छोटी बुराई लोगों को अच्छी लगने लगेगी. दुनिया के मन में तालिबान के लिए सहानुभूति पैदा होगी, जबकि अमेरिका को एक युद्ध खत्म करने के बाद दूसरा युद्ध शुरू करने का बहाना मिल जाएगा. इस बार अमेरिका ये युद्ध तालिबान के खिलाफ नहीं बल्कि अपने नए पार्टनर यानी तालिबान के साथ मिलकर लड़ेगा.
हैरानी की बात ये है कि कल हुए हमले की निंदा खुद उस तालिबान ने की है जिसने आतंकवाद के नाम पर हजारों लोगों का खून बहाया है. ये एक नया दौर है, जिसमें एक आतंकवादी संगठन दूसरे आतंकवादी संगठन की कड़ी निंदा कर रहा है. इस समय तालिबान भी ये बात पूरे विश्वास से नहीं कह सकता कि अब काबुल एयरपोर्ट (Kabul Airport) पर और कोई हमला नहीं होगा. क्योंकि तालिबान के लिए ये स्थितियां बिल्कुल नई हैं. ऐसा पहली बार हो रहा है, जब उस पर किसी आतंकवादी हमले को रोकने की जिम्मेदारी है. जिस देश की सत्ता को कट्टरपंथी ताकतें हाईजैक कर लेती हैं, वहां क्या होता है, अफगानिस्तान उसकी सबसे बड़ी केस स्टडी है.
सबसे बड़ा दर्द अफगानिस्तान के उन आम लोगों का है, जो ना तो पुलिस से मदद ले सकते हैं, न सेना से मदद मांग सकते हैं और न ही सरकार से कोई अपील कर सकते हैं, क्योंकि ये तीनों ही व्यवस्था इस वक्त वहां नहीं हैं. कल जब काबुल एयरपोर्ट पर बम धमाके हुए थे तो वहां लोगों के चेहरों पर इसका दर्द साफ दिखा. एयरपोर्ट के पीछे जिस गन्दे नाले में हजारों अफगान नागरिक खड़े थे. वहां लाशें और दीवारों पर खून के धब्बे नजर आए. घायलों को कूड़ा उठाने वाली हाथ गाड़ी में ले जाते हुए देखा गया. खून में लथपथ महिलाएं रोती बिलखती नजर आईं. इन महिलाओं को ये बताने वाला भी कोई नहीं था कि उन्हें कहां इलाज मिलेगा और उन्हें वहां कैसे जाना होगा.
एक अंतर्राष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ने अपनी मीडिया रिपोर्ट में बताया है कि बम धमाके के बाद वहां लोग मदद के लिए चीख पुकार कर रहे थे. इसी रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि नाले में पड़ी लाशों को उठाने के लिए काफी देर तक वहां कोई नहीं आया. ये उन लोगों की लाशें थीं, जिन्हें दुनिया आने वाले दिनों में भूल जाएगी और फिर एक खास वर्ग कट्टरपंथी ताकतों की तारीफ करने लगेगा. काबुल में हुए बम धमाकों ने अमेरिका को वहीं पहुंचा दिया है, जहां वो आज से 20 साल पहले खड़ा था. बस फर्क इतना है कि 20 साल पहले 9/11 हमला हुआ था और इस बार तारीख बदल कर 8/26 हो गई है. लेकिन 20 वर्षों के बाद आज भी अमेरिका के सामने वही सवाल चुनौती बन कर खड़ा है कि वो इन कट्टरपंथी ताक़तों को कैसे खत्म करेगा?
11 सितंबर 2001 को जब अमेरिका में 9/11 हमला हुआ था तो इस हमले के बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज वॉकर बुश (George W Bush) ने अपने सबसे पहले भाषण में कहा था कि We Will Hunt Down And Find Those Folks. हिन्दी में इसका मतलब है कि जिन्होंने ये हमला किया है हम उन्हें ढूंढ निकालेंगे और उनका शिकार करेंगे. आज काबुल बम धमाकों के बाद जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपना सबसे पहला भाषण दिया तो उनके शब्द भी बिलकुल यही थे. यानी 9/11 से काबुल के 8/26 के सफर में अमेरिका के लिए स्थितियां, उसकी स्क्रिप्ट, उसके डायलॉग और उसका टारगेट कुछ भी नहीं बदला. अगर कुछ बदला है तो वो है अमेरिका के राष्ट्रपति, हमले की जगह और तारीख. बाकी सबकुछ वैसा ही है.
जो बाइडेन (Joe Biden) इस वक्त 78 साल के हैं और वो अमेरिका के सबसे उम्र दराज राष्ट्रपति हैं. वो इससे पहले अमेरिका के उप राष्ट्रपति भी रह चुके हैं. लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद से उन्होंने जिस तरह के फैसले लिए हैं, उसे देखकर लगता नहीं है कि वो एक अनुभवी नेता हैं. बल्कि एक नौसिखिया नेता हैं. 9/11 हमले के बाद अमेरिका ने अल-कायदा और तालिबान जैसे आतंकवादी संगठनों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई का ऐलान किया था. जॉर्ज वॉकर बुश ने इस लड़ाई को वॉर ऑन टेरर (War on Terror) का नाम दिया था. यानी ये युद्ध विचारधारा के खिलाफ था, जो अपने राजनीतिक मकसदों के लिए धर्म और जेहाद का सहारा लेती है. लेकिन अमेरिका जिस कट्टरपंथी विचारधारा को अफगानिस्तान में ही खत्म कर देना चाहता था, वो विचारधार पिछले 20 वर्षों में अफगानिस्तान के दुर्गम इलाकों से निकल कर कई देशों में फैल गई. यानी अमेरिका जिस युद्ध को जीतने के लिए अफगानिस्तान गया था, वो उस युद्ध को हार गया और उसने आतंकवादी संगठनों के साथ टेबल पर बैठ कर बातचीत करना शुरू कर दिया . इसलिए आज अमेरिका के लिए बड़ा सबक ये है कि वो जिन कट्टरपंथी ताकतों को खत्म करना चाहता था, आज उन्हीं में से एक मामूली और छोटे मोटे आतंकवादी संगठन ने उसके 13 सैनिकों को मार दिया. अमेरिका इस हमले की जानकारी होते हुए भी कुछ नहीं कर पाया.
इस समय अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की एक तस्वीर पूरी दुनिया में ट्रेंड कर रही है. इसमें बाइडेन उदास और बेबस दिख रहे हैं और दुनिया कह रही है कि अमेरिका अपने 13 सैनिकों को खोने के बाद कितना असहाय है, ये बाइडेन की इस तस्वीर से समझा जा सकता है. अब तक पूरी दुनिया आतंकवाद को लेकर अमेरिका के रुख की प्रशंसा करती आई है. क्योंकि अमेरिका में चाहे जो भी सरकार रही हो, आतंकवादी गुटों और जेहाद को लेकर उनका अप्रोच एक जैसा रहा है. कभी किसी राष्ट्रपति ने पूर्व राष्ट्रपति को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया. लेकिन पहली बार अमेरिका में आतंकवादी हमले पर राजनीतिक बहस हो रही है और जो बाइडेन ने इसके लिए पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प को जिम्मेदार बता दिया है.
काबुल पर हुए बम धमाकों ने अफगानिस्तान संकट को भी नया मोड़ दिया है. काबुल पर हुए इस हमले ने अमेरिका और तालिबान के बीच हुए शांति समझौते के महत्व को खत्म कर दिया है. इसलिए अब सवाल यही है कि जब समझौता ही नहीं रहा तो फिर तालिबान किस मुंह से अफगानिस्तान में अपनी सरकार बनाएगा और अमेरिका किस मुंह से इस सरकार को बनने देगा? इस हमले की जिम्मेदारी आतंकवादी संगठन ISIS खुरासान ने ली है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, ISIS खुरासान में कुल लड़ाकों की संख्या तीन हजार है. यानी ये एक बहुत छोटा आतंकवादी संगठन है, जिसका प्रभाव अफगानिस्तान के नंगरहार प्रांत तक ही सीमित है.
यहां प्वाइंट ये है कि ये आतंकवादी संगठन न तो ज्यादा बड़ा है और न ही ज्यादा पुराना है. इसका गठन वर्ष 2015 में ही हुआ था और इसमें जो आतंकवादी हैं, वो भी पाकिस्तान के लश्कर ए तैयबा और जैश ए मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन से निकले हैं. सबसे अहम ये संगठन पाकिस्तान से ऑपरेट कर रहा है. इसलिए यहां आज एक बड़ा सवाल ये है कि क्या अमेरिका पाकिस्तान में इस संगठन के ठिकानों पर कार्रवाई करेगा और अगर अमेरिका ने ये कार्रवाई की तो क्या इससे ये साबित नहीं होगा कि पाकिस्तान जेहाद के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले इन संगठनों का समर्थन देता है?
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