काशी में आएं और कचौड़ी जलेबी नहीं चखा, मतलब की बनारसीपन के एक खास हिस्से को जीभ से जानने का मौका छोड़ दिया. खान-पान के मामले में कचौड़ी जलेबी काशी की शान है.
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Taste of Kashi: भारत विविधताओं का देश है यहां हर राज्य की अपनी एक अलग सभ्यता और संस्कृति है. खान-पान के मामले में भी हर राज्य एक दूसरे से बिल्कुल अलग है. सभी राज्यों के खाने का अपना अलग स्वाद है. जायके के मामले में उत्तर प्रदेश कहीं भी पीछे नहीं है. लखनऊ का टुंडे कबाव हो या फिर बनारस की लस्सी-कचौड़ी, यहां एक से एक बढ़कर लजीज व्यंजन हैं. इनका स्वाद भी ऐसा होता है कि नाम लेते ही मुंह में पानी आ जाए.
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वैसे तो बनारस की बात ही कुछ और है. यहां के मंदिर घाट सब देखने लायक है, लेकिन क्या आपको पता है कि बनारस खाने के मामले में भी काफी रिच है. यहां के फूड आइटम्स की भी डिमांड खूब रहती है. काशी आने के बाद आपको यहां के खाने से प्यार हो जाएगा. यहां की कचौड़ी, बनारस का पान, लौंगलता, जलेबा, और भांग वाली ठंडाई जैसी तमाम खाने पीने वाली चीजें लोगों को अपना दीवाना बना लेती हैं. पर हम आपको यहां पर बताएंगे यहां का लोकल फूड कचौड़ी और जलेबी के बारे में...जी हां अगर आपने ये दोनों चीजें एक साथ नहीं खाई हैं तो जरूर सोच रहे होंगे की तीखा और मीठा एक साथ.
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कचौड़ी और जलेबी का बेहतरीन स्वाद
काशी में आएं और कचौड़ी जलेबी नहीं चखा, मतलब की बनारसीपन के एक खास हिस्से को जीभ से जानने का मौका छोड़ दिया. खान-पान के मामले में कचौड़ी जलेबी काशी की शान है. आधुनिक फास्ट फूड के बीच यह पारंपरिक भोजन अपनी लोकप्रियता को कायम रखे हुए है. कड़ाही में पकती हुई कचौड़ी जब भूरापन लेती है तो देखने भर से ही मन तृप्त हो जाता है. कचौड़ी के साथ गरम-गरम जलेबी ! वाह भाई क्या कहने!
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जलेबी का स्वाद इसलिए होता है खास
वैसे तो जलेबी आपको हर जगह मिल जाएगी, पर यहां की जलेबी कुछ खास होती है. बनारसी हलवाई जलेबी बनाने वाले मैदे पर बेसन का हल्का-सा फेंटा मारते हैं. जलेबियां कितनी स्वादिष्ट बनेंगी, यह फेंटा मारने की समझदारी पर निर्भर करता है. यह कितनी देर तक और कैसे फेंटा मारना है यह कला सिर्फ बनारसी हलवाई ही अच्छी तरह जानते हैं. तो जाहिर है यहां की जलेबी अपनी अलग ही पहचान बनाएंगी.
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जलेबी मूल रूप से अरबी भाषा का एक शब्द
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जलेबी मूल रूप से अरबी भाषा का एक शब्द है और अरब से आयी इस मिठाई को जलाबिया कहा जाता है. जिससे जलेबी शब्द मिला.
सुबह छह बजे तक चढ़ जाती है कढ़ाही
बनारस में कचौड़ियों की एक से बढ़कर एक दुकानें हैं. काशी की पुरानी गलियों में देर रात से ही इन दुकानों पर कचौड़ी और सब्जी बनने की खटर-पटर शुरू हो जाती है. सुबह होते-होते इसकी सुगंध लोगों को अपनी ओर खींचने लगती है. सुबह होने के साथ ही इन दुकानों पर भीड़ लगनी शुरू हो जाती है. सुबह 6 बजे तक कड़ाही गैस पर चढ़ जाती है और एक के बाद एक गर्मागर्म कचोरियां फूलकर निकलने लगती हैं.
आपको इन दुकानों पर खड़े लोग उंगलियां चाटते हुए और सब्जी की डिमांड करते नजर आ जाएंगे. इसमें आलू-चने, कद्दू की सब्जी के अलावा ग्रेवी वाली मिक्स सब्जी भी शामिल है. फास्ट फूड के दौर में भी यह व्यंजन मजबूती से अपनी पकड़ बनाए हुए है.
चौक की कचौड़ी गली
यहां पर ये इतनी ज्यादा पसंद की जाती हैं कि इसके नाम से पूरी एक गली को बनारस में मिल जाएगी. चौक की कचौड़ी गली इसी के लिए फेमस है. तंग गलियों में कई दुकानें हैं कचौड़ी की. ठठेरी बाजार में राज बंधु विश्वेश्वरगंज में विश्वनाथ साव और लंका वाली मरहूम चाची(चचिया) के साथ-साथ राम भंडार परिवार के ही सदस्यों की नदेसर और महमूरगंज के सोनू की दुकान की खर कचौड़ी और तर जलेबी प्रसिद्ध हैं.
लंका पर चाची की दुकान
कद्दू की सब्जी-पूड़ी और साथ में गरमागरम जलेबी बनारस की पहचान है. लंका पर स्थित ‘चाची की दुकान’ पूड़ी-सब्जी के लिए मशहूर है. इसका स्वाद चखने के लिए लोग सुबह से ही दुकान पर जमा हो जाते हैं.
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मिलती हैं दो तरह की कचौड़ी
कचौड़ी मूलत उड़द के दाल के भरावन से बनती है पर छिलका मूंग और धुली मूगदाल से भी स्वादिष्ट कचौड़ियां बनती हैं. बनारस में दो तरह की कचौड़ियां मिलती हैं. एक तो गोल कचौरी जिसका आकार कंचे से लेकर छोटे सन्तरे के बराबर होता है जो मैदे से बनती है और इसके अन्दर मसालेदार आलू भरा होता है. दूसरी जो आटे से उड़द की भरावन के साथ पूरी की तरह बनती है. गोल कचौड़ी के साथ लाल चने की रसेदार घुघनी और उपर से खट्टी और मीठी चटनी. उड़दवाली कचौड़ी के साथ सब्ज़ी ,थोड़ी घुघनी और चटनी (अलग-अलग दुकानों पर अलग-अलग तरीक़े हैं).
इस तरह तैयार होती है दाल की पीठी
आटे की लोई में पीसी हुई उड़द की दाल की थोड़ी मसालेदार पीठी भरकर, उसे बेलकर देसी घी की कढ़ाई में तैराना और फिर गरमागरम सब्जी के साथ परोसा जाता है. इस शानदार कचौड़ी के साथ केसरिया जलेबी. ये बनारस का राजसी नाश्ता है.
चकोरी से हुआ कचौड़ी
ऐसा कहा जाता है कि पहले इसका नाम चकोरी था. समय के साथवर्ण इधर से उधर हो जाते हैं और इसी तरह इसका नाम चकोरी से कचौरी और कचौड़ी हो गया. चकोरी भारत में एक चिड़िया होती है जो अंगारों का भक्षण करती है.
कचौड़ी का इतिहास
इनके इतिहास पर थोड़ा गौर करें तो कचौड़ी शब्द मूल संस्कृत शब्द कच और पूरिका से है, जो कि कचपूरिका घिसते-घिसते कचउरिया हो गया. संस्कृत में कच का मतलब होता है बांधना. दरअसल पहले कचौड़ी पूरी के आकार की न होकर मोदक के आकर की होती थी, जिसमें आटे या मैदे की लोई में ख़ूब सारा मसाला भर कर बांध दिया जाता था, इसलिए उसे कचपूरिका कहा जाता था.
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