DNA: नोट लेकर सदन में भाषण दिया तो नहीं मिलेगी इम्यूनिटी, नोट के बदले वोट मामला क्या है?
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DNA: नोट लेकर सदन में भाषण दिया तो नहीं मिलेगी इम्यूनिटी, नोट के बदले वोट मामला क्या है?

Supreme Court: अगर कोई सरकारी कर्मचारी रिश्वत लेते पकड़े जाएं तो क्या होगा? FIR होगी..केस चलेगा..दोषी पाए गए तो जेल की सजा होगी. लेकिन क्या आपको पता है कि अगर कोई सांसद या विधायक रिश्वत लेकर संसद या विधानसभा में सवाल पूछते पकड़ा जाए या वोट देते पकड़ा जाए तो उस पर ना FIR होती है.. ना केस चलता है.. और ना जेल की सजा होती है.

DNA: नोट लेकर सदन में भाषण दिया तो नहीं मिलेगी इम्यूनिटी, नोट के बदले वोट मामला क्या है?

Supreme Court: अगर कोई सरकारी कर्मचारी रिश्वत लेते पकड़े जाएं तो क्या होगा? FIR होगी..केस चलेगा..दोषी पाए गए तो जेल की सजा होगी. लेकिन क्या आपको पता है कि अगर कोई सांसद या विधायक रिश्वत लेकर संसद या विधानसभा में सवाल पूछते पकड़ा जाए या वोट देते पकड़ा जाए तो उस पर ना FIR होती है.. ना केस चलता है.. और ना जेल की सजा होती है.

जब मनमोहन सरकार के खिलाफ संसद में विश्वास प्रस्ताव लाया गया था

आपको 2008 का Cash For Vote कांड याद होगा. जब मनमोहन सरकार के खिलाफ संसद में विश्वास प्रस्ताव लाया गया था. जिसे मनमोहन सरकार जीत गई थी. लेकिन उसी दिन संसद में बीजेपी के तीन सांसदो ने नोटों की गड्डियां लहराते हुए आरोप लगाया था कि उन्हें मनमोहन सरकार बचाने के लिए वोट देने के लिए रिश्वत की पेशकश की गई थी. लेकिन क्या आपको पता है कि जिन सांसदों पर Cash For Vote का आरोप लगा था. उनके खिलाफ रिश्वतखोरी का कोई केस दर्ज नहीं हुआ था . क्योंकि अब तक हमारे देश के माननीयों के लिए संसद या विधानसभा में पैसे लेकर वोट देना या भाषण देना.. उनका विशेषाधिकार होता था.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फैसले को पलटा

वर्ष 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि पैसे लेकर संसद या विधानसभा में सवाल पूछने या वोट देने के मामलों में जनप्रतिनिधियों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने अपने ही 26 साल पुराने फैसले को पलट दिया और कह दिया कि सांसदों और विधायकों को सदन में भाषण देने या वोट के लिए रिश्वत लेने पर मुकदमे से छूट नहीं दी जा सकती. इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही पुराने फैसले को पलटकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. और पैसे लेकर सदन में सवाल पूछने और वोट देने वाले सांसदों को मिलने वाले Legal Immunity खत्म कर दी है. सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले का क्या मतलब है और इससे क्या बदलेगा? अब हम आपको इन सारे सवालों के आसान भाषा में जवाब देंगे.

सांसदों और विधायकों के विशेषाधिकार

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को समझने के लिए आपको ये पता होना चाहिए कि हमारे देश के सांसदों और विधायकों को कौन से विशेषाधिकार प्राप्त हैं. इन विशेषाधिकारों को भारतीय संविधान के आर्टिकल 105 और 194 में परिभाषित किया गया है. संविधान में सांसदों और विधायकों को सदन में भाषण देने की स्वतंत्रता दी गई है. सदन में दिए गए भाषण और वोटों की न्यायिक जांच से भी छूट दी गई है. लेकिन हमारे देश के माननीयों ने इसकी अलग ही व्याख्या कर दी थी. जिसके मुताबिक संविधान ने सांसदों को रिश्वत लेकर सदन में भाषण देने और वोट देने की भी स्वतंत्रता दी है जिसके खिलाफ कोई न्यायिक जांच नहीं हो सकती. वर्ष 1998 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी इसी बात की पुष्टि करता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ही गलत ठहरा दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फैसले को पलटते हुए कई बड़ी बातें कहीं हैं...

-रिश्वत लेकर सदन में वोट देना या भाषण देना, विशेषाधिकार की श्रेणी में नहीं आता है.
-संसदीय विशेषाधिकारों के तहत रिश्वतखोरी को संरक्षण हासिल नहीं है.
-आर्टिकल 105 और 194 के तहत रिश्वतखोरी की छूट नहीं है.
-जब कोई कोई सदस्य घूस लेता है तो केस बन जाता है. ये मायने नहीं रखता कि उसने बाद मे वोट दिया या फिर भाषण दिया.

विशेषाधिकार की आड़ लेकर बच नहीं पाएंगे..

सुप्रीम कोर्ट के आदेश को आम बोलचाल की भाषा में समझाएं तो सदन में वोट देना और स्पीच देना..सांसदों और विधायकों का विशेषाधिकार है.. ना कि रिश्वत लेकर वोट देना या स्पीच देना. सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कह दिया है कि संसद या विधानसभा में वोट देने या किसी को फायदा पहुंचाने वाली स्पीच देने के लिए रिश्वत लेने वाले माननीय... विशेषाधिकार की आड़ लेकर बच नहीं पाएंगे. उनके खिलाफ केस भी चलेगा और दोष साबित हुआ तो सजा भी मिलेगी . यानी अब अगर कोई सांसद या विधायक पैसे लेकर सदन में सवाल पूछेगा या वोट देगा तो उसे लेने के देने पड़ जाएंगे. अब सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस 1998 के नरसिम्हा राव केस के फैसले को पलटा है वो मामला क्या है. अब हम आपको इसके बारे में बताते हैं..

-वर्ष 1991 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन वो बहुमत से चूक गई.
-तमिलनाडु में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति की लहर से कांग्रेस को 232 सीटें मिली, लेकिन बहुमत का आंकड़ा 272 का था.
-इसके बाद पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री चुने गए.
-1992 में बाबरी कांड के बाद माहौल बिगड़ा तो 1993 में राव सरकार के खिलाफ संसद में CPI(M) अविश्वास प्रस्ताव लाई थी.
-उस समय कांग्रेस की गठबंधन सरकार के पास 252 सीटें थी, लेकिन बहुमत के लिए 13 सीटें कम थीं.
-इसके बाद 28 जुलाई 1993 को जब अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हुई तो उसके पक्ष में 251 वोट, तो विरोध में 265 वोट पड़े. .
-राव सरकार उस समय गिरने से बच गई, लेकिन तीन साल बाद वोट के बदले नोट का मामला सामने आ गया.
-वोट के बदले नोट का मामला जब सामने आया तो पता चला कि 1993 के अविश्वास प्रस्ताव में JMM और जनता दल के 10 सांसदों ने इसके खिलाफ वोट डाले थे.
-इसपर CBI ने आरोप लगाया कि सूरज मंडल, शिबू सोरेन समेत JMM के 6 सांसदों ने वोट के बदले रिश्वत ली थी.

26 वर्ष पुराना मामला अचानक कैसे हाईलाइट हुआ

मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो देश की सर्वोच्च अदालत की 5 सदसीय पीठ ने 1998 में इसपर फैसला सुनाया ...सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए सांसदों को विशेषाधिकार के तहत लाभ दिया था. कहा था कि पैसे लेकर संसद या विधानसभा में सवाल पूछने या वोट देने के मामलों में माननीयों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. 26 वर्ष पुराना मामला अचानक कैसे हाईलाइट हुआ आज इसे जानना भी बहुत जरूरी है. दरअसल ये मुद्दा दोबारा तब उठा, जब JMM सुप्रीमो शिबु सोरेन की बहू और विधायक सीता सोरेन ने अपने खिलाफ जारी आपराधिक कार्रवाई को रद्द करने की याचिका कोर्ट में दाखिल की थी. सीता सोरेन पर वर्ष 2012 के झारखंड राज्यसभा चुनाव में वोट देने के लिए रिश्वत का आरोप था.

-सीता सोरेन ने अपने बचाव में दो तर्क दिए थे....पहला ये तर्क था कि उन्हें सदन में 'कुछ भी कहने या वोट देने' के लिए संविधान के अनुच्छेद 194(2) के तहत छूट हासिल है.
- दूसरा - सीता सोरेन ने लोकसभा में BSP सांसद दानिश अली के खिलाफ BJP सांसद रमेश बिधूड़ी के अपमानजनक बयान का जिक्र किया और कहा कि वोट या भाषण से जुड़ी किसी भी चीज के लिए Prosecution से छूट मिलनी चाहिए..

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पीएम मोदी ने किया स्वागत

यही से ये मामला सुप्रीम कोर्ट की नजरों में फिर से आया और सुप्रीम कोर्ट ने इसमें सुधार करते हुए 26 वर्ष पुराने मामले को पलट दिया. संसद और विधानसभा में अपने दमदार भाषण के लिए कई नेताओं की तारीफ होती है. चाहे वो पक्ष के सांसद या विधायक हों या विपक्ष के. सांसद और विधायक अपनी सरकार की उपलब्धियां भी गिनाते है...और विपक्ष के सांसद और विधायक सरकार पर सवाल भी उठाते हैं. सुप्रीम कोर्ट के एतिहासिक फैसले ने बहुत कुछ बदल दिया है... जिसपर पीएम मोदी ने भी खुशी जाहिर की. पीएम मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर लिखा...स्वागतम! सुप्रीम कोर्ट का एक बेहतरीन फैसला, जिससे राजनीति में पारदर्शिता आएगी और सिस्टम में लोगों का विश्वास और गहरा होगा.

बात सही भी है, माननीयों का संसद या विधानसभा में पैसे लेकर सवाल पूछना गंभीर मामला है. क्योंकि इन सांसदों और विधायकों को जनता ने चुनकर भेजा है. ताकि वो जनता के हक की आवाज उठा सके. लेकिन हमारे देश के इतिहास में ऐसा कई बार हुआ है जब माननीयों पर पैसे लेकर सवाल पूछने या वोट देने के गंभीर आरोप लगे है.

-इसमें सबसे ताज़ा मामला TMC सांसद महुआ मोइत्रा का है...महुआ पर कारोबारी दर्शन हीरानंदानी के कहने पर संसद में सवाल पूछने का आरोप लगा था. इस मामले में संसद की कमेटी ने महुआ मोइत्रा को दोषी पाया था, जिसके बाद महुआ मोइत्रा को संसद से निष्कासित कर दिया गया था.
-वर्ष 2015 में तेलंगाना विधान परिषद चुनाव में वोट के लिए TDP विधायक रेवनाथ रेड्डी पर रिश्वत देने का आरोप लगा था. विधायक रेवनाथ को मनोनीत विधायक एल्विस स्टीफेंसन को 50 लाख रुपये की रिश्वत देने की पेशकश करते हुए पकड़ा गया था. ये पेशकश विधान परिषद चुनाव के दौरान TDP उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने के लिए की गई थी.
-वर्ष 2005 में एक स्टिंग ऑपरेशन में पैसे लेकर सवाल पूछने वाले ग्यारह सांसदों का खुलासा हुआ था. जिसके बाद 21 दिसंबर 2005 को लोकसभा ने 10 और उसके अगले दिन राज्यसभा ने अपने 1 सांसद की सदस्यता रद्द कर दी थी.
-कांग्रेसी सांसद एसजी मुदगल पहले सांसद थे, जिनकी 1951 में घूस लेकर सवाल पूछने के मामले में सदस्यता गई थी. मुदगल ने एक बिजनेसमैन से संसद में सवाल पूछने के बदले 5 हजार रुपये लिए थे.

माननीयों का पक्का इलाज

हमारे देश में पैसे लेकर सवाल पूछने या फिर वोट के लिए पैसे लेने की ये प्रथा काफी लंबे समय से चली आ रही है. जिसमें हर बार माननीय अपने विशेषाधिकार का फायदा उठाकर बच जाते है. लेकिन इस बार सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने वाले माननीयों का पक्का इलाज कर दिया है. रिश्वत लेकर अपना वोट बेचने और सदन में सवाल पूछने को अपना विशेषाधिकार मानने वाले माननीयों के लिए सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला जोर का झटका साबित होगा. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भारत के भ्रष्टाचार वाले जख्म भी कुरेद दिये हैं. क्योंकि हमारे देश में रिश्वतखोरी एक सामाजिक बीमारी है जिसने पूरे देश को खोखला कर दिया है.

रिपोर्ट में चौंकाने वाला दावा

transparency International की रिपोर्ट के मुताबिक हर चार में से तीन भारतीय मानते हैं कि भारत में सरकारी भ्रष्टाचार सबसे बड़ी समस्या है. और हर तीन में से एक व्यक्ति मानता है कि हमारे देश के सांसद सबसे ज्यादा भ्रष्ट है. पिछले वर्ष जारी हुई India Corruption Research Report 2023 की सर्वे रिपोर्ट में भी 88 प्रतिशत लोगों ने माना कि भारत एक भ्रष्ट देश है.

-सर्वे में शामिल 55 प्रतिशत लोगों ने कहा कि सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार..नौकरशाही में है.
-37 प्रतिशत को लगता है कि सबसे ज्यादा रिश्वतखोर..देश के नेता हैं.
-29 प्रतिशत लोगों को लगता है कि भ्रष्टाचार ने देश के लोकतांत्रिक सिस्टम को बर्बाद कर दिया है.
-22 प्रतिशत को लगता है कि बेरोजगारी की सबसे बड़ी वजह भ्रष्टाचार है.
-करीब 96 प्रतिशत लोगों के मुताबिक देश की Anti-Corruption Agencies खुद ही भ्रष्ट हैं.
-96 प्रतिशत लोगों को लगता है कि भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं को सजा ना मिल पाना भ्रष्टाचार बढ़ने की सबसे बड़ी वजह है.
-97 प्रतिशत लोगों को लगता है कि बड़े Businessmen और बड़े राजनेताओं के बीच भ्रष्टाचार की सांठगांठ है.
-और 89 प्रतिशत लोगों को लगता है कि सिर्फ जेल की सजा..भ्रष्टाचार को खत्म करने में कारगर साबित नहीं हो सकती.

कोई एक वर्ग जिम्मेदार नहीं

यानी कुल मिलाकर बात ये है कि भारत और भ्रष्टाचार का नाम एक साथ लिया जाता है. और इसके लिए कोई एक वर्ग जिम्मेदार नहीं है. हमारा सिस्टम और हमारा समाज..दोनों इसमें बराबर के भागीदार है. ये बात कड़वी जरूर है लेकिन सच तो फिर सच ही होता है.

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