इंदिरा को क्यों चुभते थे चौधरी चरण सिंह? उनके भाषण से नेहरू क्यों डर गए थे?
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इंदिरा को क्यों चुभते थे चौधरी चरण सिंह? उनके भाषण से नेहरू क्यों डर गए थे?

चौधरी चरण सिंह ने अगर इंदिरा गांधी की जी हुजूरी की होती तो शायद वो 24 दिन के लिए नहीं बल्कि ज्यादा समय के लिए देश के प्रधानमंत्री बने रहते. वो देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने अपने कार्यकाल में कभी भी संसद भवन का भी मुंह नहीं देखा और इसका कारण इंदिरा गांधी थीं.

इंदिरा को क्यों चुभते थे चौधरी चरण सिंह? उनके भाषण से नेहरू क्यों डर गए थे?

सुनें पॉडकास्ट: 

  1. दो नेताओं को कांग्रेस में कभी नहीं मिला सम्मान
  2. चौधरी चरण सिंह ने किया था नेहरू के प्रस्ताव का विरोध
  3. कांग्रेस की आंखों में हमेशा खटके चौधरी चरण सिंह
  4.  

नई दिल्ली: क्या आप दो ऐसे प्रधानमंत्रियों की बारे में जानते हैं जो कांग्रेस के सताए हुए थे. पहले हैं पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव (P. V. Narasimha Rao) जिनकी गुरुवार को ही पुण्यतिथि थी. वर्ष 2004 में 23 दिसंबर को ही उनका देहांत हुआ था और दूसरे हैं भारत के पांचवें प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह. जिनकी गुरुवार को 119वीं जयंती थी. साल 1902 में 23 दिसंबर को ही उनका जन्म उत्तर प्रदेश के हापुड़ में हुआ था. आइए जानते हैं कि चौधरी चरण सिंह कितने खुद्दार नेता थे और अगर प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने इंदिरा गांधी की शर्तें मान ली होतीं तो वो लंबे समय तक प्रधानमंत्री बने रह सकते थे. 

जब नेहरू की आंखों में चुभने लगे थे चौधरी चरण सिंह

उस जमाने में अगर उन्होंने संजय गांधी को राहत दे दी होती तो आज देश की राजनीतिक तस्वीर बिल्कुल अलग होती. आइए जानते हैं कि साल 1959 में ऐसा क्या हुआ था कि जवाहर लाल नेहरू की आंखों में चौधरी चरण सिंह चुभने लगे थे और उन्होंने तय कर लिया था कि अब वो राजनीतिक रूप से चरण सिंह को कभी आगे नहीं बढ़ने देंगे. चौधरी चरण सिंह ने अगर इंदिरा गांधी की जी हुजूरी की होती तो शायद वो 24 दिन के लिए नहीं बल्कि ज्यादा समय के लिए देश के प्रधानमंत्री बने रहते. वो देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने अपने कार्यकाल में कभी भी संसद भवन का भी मुंह नहीं देखा और इसका कारण इंदिरा गांधी थीं.

जब इंदिरा गांधी के दुश्मन बन गए थे चरण सिंह

बहुत कम लोग जानते हैं कि अक्टूबर 1977 को जब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया गया, तब इसके पीछे चौधरी चरण सिंह ही थे. उस समय इंदिरा गांधी पर आरोप था कि रायबरेली में उनके चुनाव प्रचार के लिए जो 100 गाड़ियां खरीदी गई हैं, उनका भुगतान कांग्रेस पार्टी द्वारा नहीं बल्कि कुछ उद्योगपतियों द्वारा किया गया है. आपातकाल (Emergency) के बाद चौधरी चरण सिंह इंदिरा गांधी से काफी नाराज थे और वो चाहते थे कि जिस तरह इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में 1 लाख लोगों को फर्जी मुकदमे लगा कर जेलों में बंद कर दिया था, ठीक उसी तरह उन्हें भी गिरफ्तार किया जाए. इसके बाद 4 अक्टूबर 1977 को ऐसा ही हुआ. हालांकि तब 1 दिन बाद ही मजिस्ट्रेट ने इंदिरा गांधी की रिहाई के आदेश दे दिए थे. लेकिन इस घटनाक्रम ने चौधरी चरण सिंह को इंदिरा गांधी का दुश्मन बना दिया था.

किसान रैली में शामिल हुए थे 2 लाख लोग

आपातकाल के बाद देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ और ये सरकार जनता पार्टी की गठबंधन सरकार थी, जिसमें प्रधानमंत्री की कुर्सी मोरारजी देसाई (Morarji Desai) के पास थी. कुछ समय तक ये सरकार ठीक से चली लेकिन बाद में सरकार में मतभेद और टकराव काफी बढ़ गए. मोरारजी देसाई चौधरी चरण सिंह से इस कदर नाराज हुए कि उन्होंने उनका गृह मंत्री के पद से इस्तीफा मांग लिया और काफी हंगामे के बाद चरण सिंह भी इस्तीफे के लिए राजी हो गए. ये बात साल 1 जुलाई 1978 की है. इस इस्तीफे के बाद ही चौधरी चरण सिंह ने दिल्ली में किसानों की एक रैली की थी, जिसमें 2 लाख किसान आए थे तब इस खबर को अखबारों के पहले पन्ने पर छापा गया था.

इन 2 लोगों की वजह से पॉसिबल हो पाया चरण सिंह का गठबंधन

इस रैली के बाद चरण सिंह ने फिर से मोरारजी देसाई की सरकार में वापसी की और इस बार उन्हें वित्त मंत्री बनाया गया. हालांकि जुलाई 1979 को मोरारजी देसाई ने सहयोगी पार्टियों से मतभेद के बाद इस्तीफा दे दिया और इसके बाद चौधरी चरण सिंह इस पूरी कहानी के केंद्र में आ गए. उनके पास भारतीय लोक दल समेत दूसरे पार्टियों के 82 से ज्यादा सांसदों का समर्थन था और इंदिरा गांधी इस राजनीतिक घटनाक्रम पर बारीकी से नजर रख रहीं थीं. जैसे ही मोरारजी देसाई ने इस्तीफा दिया, उसके तुरंत बाद इंदिरा गांधी की कांग्रेस-आई ने ऐलान किया कि वो बिना शर्त चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तैयार हैं. ऐसा कहा जाता है कि उस समय ये गठबंधन दो लोगों की वजह से हो पाया था, पहले थे राजनारायण, जिन्होंने 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी पर धांधली के आरोप लगाए थे और बाद में उनके खिलाफ कोर्ट में केस भी जीत लिया था. माना जाता है कि इसी कानूनी हार के बाद 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई और दूसरे थे इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी.

संजय गांधी ने की थी पीएम चरण सिंह से सिफारिश

कांग्रेस-आई के समर्थन से चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए लेकिन इसके बाद उन पर धीरे-धीरे इंदिरा गांधी द्वारा दवाब बनाया जाने लगा. उनके प्रधानमंत्री बनते ही संजय गांधी एक दिन राजनारायण से मिलने गए और उनसे कहा कि चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बने कुछ दिन हो गए हैं लेकिन उन्होंने उनके ऊपर किये गए मुकदमों को अब तक वापस नहीं लिया है. संजय गांधी ने ये भी कहा कि राजनारायण खुद चौधरी चरण सिंह से बात करें क्योंकि उन्हें इन मुकदमों की सुनवाई के लिए हर रोज गुड़गांव जाना पड़ता है.

कानूनी मुकदमों से बरी होना चाहते थे संजय गांधी 

दरअसल, वर्ष 1975 में जब भारत में इमरजेंसी लगी तो उस दौरान संजय गांधी पर कई तरह के आरोप लगे थे. इनमें लोगों की जबरन नसबंदी के आरोप थे, लोगों पर अत्याचार, सरकारी काम में दखल, मारुति उद्योग विवाद और उस समय आई एक फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' भी मामला था. ये फिल्म संजय गांधी और इंदिरा गांधी पर बनाई गई एक Political Spoof फिल्म थी, जिसके Negative इमरजेंसी के दौरान जब्त कर लिए गए थे और बाद में जला दिए गए थे. इन सभी मामलों की सुनवाई के लिए मोरारजी देसाई ने अपनी सरकार में स्पेशल कोर्ट का गठन किया था. संजय गांधी चाहते थे कि चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बनते ही इन मुकदमों को खारिज कर दें और अपनी सरकार चलाते रहें.

इंदिरा गांधी की नाराजगी की ये थी वजह 

लेकिन चौधरी चरण सिंह इस दवाब में नहीं आए. दूसरी तरफ इंदिरा गांधी भी उनसे नाराज हो गई थीं क्योंकि उन्हें लगा था कि प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद चौधरी चरण सिंह उनसे मिलने के लिए उनके घर जरूर आएंगे. कुछ किताबों में इस बात का जिक्र भी है कि शपथ लेने के बाद चरण सिंह उनसे मिलने जा रहे थे, लेकिन घर से कुछ दूर पहुंचने पर उन्हें ये ख्याल आया कि वो इंदिरा गांधी से क्यों मिलें. फिर यही सोच कर वो वहां से लौट गए. लेकिन इसके बाद इंदिरा गांधी उनसे काफी नाराज हो गईं.

इंदिरा गांधी ने सौंपी थी मांगों की फेहरिस्त

गांधी परिवार की नाराजगी और दवाब के बीच ही उस समय इंदिरा गांधी की तरफ से चौधरी चरण सिंह को एक चिट्ठी भी भेजी गई, जिसमें उन्होंने अपनी शर्तें बताई थी. उनकी एक शर्त तो यही थी कि संजय गांधी के खिलाफ चल रहे मुकदमे वापस लिए जाएं और एक शर्त ये थी कि एच.आर. खन्ना को केंद्रीय कानून मंत्री के पद से हटाया जाए. आपको बता दें कि एच.आर. खन्ना सुप्रीम कोर्ट के जज थे और उन्होंने तब के चर्चित जबलपुर केस में इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला दिया था और कहा था कि इमरजेंसी में लोगों की स्वतंत्रता और अधिकारों को निरस्त नहीं किया जा सकता. इस फैसले की वजह से वो 1977 में सुप्रीम कोर्ट के Chief Justice भी नहीं बन पाए थे. यानी इंदिरा गांधी उनसे नफरत करती थी और उनकी ये नफरत तब और बढ़ गई जब चौधरी चरण सिंह ने उन्हें अपनी सरकार में कानून मंत्री बना दिया. उन्होंने शांति भूषण का भी विरोध किया, जो मोरारजी देसाई की सरकार में कानून मंत्री थे और चरण सिंह के करीबी थे.

चरण सिंह ने सभी मांगों को किया खारिज

ये सारी शर्तें जब चौधरी चरण सिंह को एक पत्र में लिख कर मिली तो उन्होंने के.सी. त्यागी, जो मौजूदा समय में JDU के वरिष्ठ नेता हैं, उन्हें अपना जवाब लिख कर संजय गांधी को देने के लिए कहा. उस समय के.सी. त्यागी संजय गांधी से मिलने के लिए जब उनके घर गए तो उन्होंने घर में जाने से इनकार कर दिया और कहा कि वो गाड़ी में ही बैठकर बात करना चाहेंगे. फिर गाड़ी में बैठने के बाद उन्होंने संजय गांधी से कहा था कि चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की किसी भी मांग को मानने से इनकार कर दिया है. 

इंदिरा गांधी से हुई चौधरी चरण सिंह की मुलाकात

इस घटनाक्रम के बाद 20 अगस्त 1979 को उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. हालांकि तत्कालीन राष्ट्रपति के अनुरोध पर वो 14 जनवरी 1980 तक देश के Caretaker Prime Minister यानी कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे. इस दौरान उनकी एक बार इंदिरा गांधी से भी मुलाकात हुई. ये बात 27 दिसम्बर 1979 की है. उस समय चौधरी चरण सिंह के पोते जयंत चौधरी का पहला जन्मदिन था. वो एक साल के हुए थे और इस मौके पर एक पार्टी हुई थी.

जवाहर लाल नेहरू की चौधरी चरण सिंह से नाराजगी

ये कहानी वर्ष 1959 की है. उस समय नागपुर में कांग्रेस अधिवेशन बुलाया गया था और इस अधिवेशन में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भारत के किसानों से संबंधित एक प्रस्ताव पेश किया था, जो Cooperative Farming यानी सहकारी खेती से जुड़ा था. सहकारी खेती को संयुक्त खेती भी कहा जाता है. मान लीजिए किसी गांव में 50 किसान रहते हैं और प्रत्येक किसान के पास एक हेक्टेयर जमीन है. अब सहकारी खेती होने से कोई भी केवल अपनी एक हेक्टेयर जमीन पर खेती नहीं करेगा. बल्कि सभी 50 किसानों की जमीन को मिला दिया जाएगा और खेती करने के लिए कुल जमीन इस तरह 50 हेक्टेयर हो जाएगी. और इस जमीन पर सारे किसान मिल कर एक साथ खेती करेंगे. अब इस तरह की खेती में होता ये है कि किसानों का उनकी जमीन पर ज्यादा अधिकार नहीं रह जाता और सरकार ये तय करने लगती है कि इस जमीन पर कौन सी फसल उगेगी, कितनी मात्रा में उगेगी और किसे बेची जाएगी.

चौधरी चरण सिंह ने किया था नेहरू के प्रस्ताव का विरोध

नेहरू खेती की इस परंपरा को सोवियत यूनियन से सीख कर आए थे. ये बात वर्ष 1955 की है, जब उन्होंने अपने सोवियत यूनियन के दौरे पर वहां के किसानों से मुलाकात की थी और सहकारी खेती के बारे में जाना था. इसके 4 साल बाद जब उन्होंने नागपुर अधिवेशन में सहकारी खेती का प्रस्ताव रखा तो शुरुआत में ज्यादातर सदस्य उनके पक्ष में थे. लेकिन इसके बाद चौधरी चरण सिंह ने इस प्रस्ताव का विरोध करने का फैसला किया. उस दौरान चौधरी चरण सिंह ने 1 घंटे लंबा भाषण दिया.

नेहरू के विरोध में लिखी थी किताब!

कहते हैं कि ये भाषण समाप्त होने के बाद जो लोग पहले नेहरू के इस प्रस्ताव को समर्थन दे रहे थे, वो भी उनके खिलाफ हो गए. आखिरकार ये प्रस्ताव खारिज हो गया. इससे नेहरू ने खुद को अपमानित महसूस किया और उनके दिल पर गहरी चोट लगी. तभी से वो चौधरी चरण सिंह से नफरत करने लग गए. नेहरू का गुस्सा तब और बढ़ गया, जब उन्हें जवाब देने के लिए चौधरी चरण सिंह ने एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्ष था- Joint Farming X-Rayed: the Problem and its Solution

उस समय के सबसे मजबूत कृषि कानून

चौधरी चरण सिंह एक किसान नेता होने के साथ काफी प्रगतिशील नेता भी थे. उन्होंने किसानों के लिए आजादी से पहले ही काम करना शुरू कर दिया था. वर्ष 1939 में उन्होंने किसानों को साहूकारों के कर्जे से मुक्त कराने के लिए यूपी की विधान सभा में एक बिल पेश किया था. इसके अलावा उन्होंने एक और बिल किसानों के लिए पेश किया था. इस बिल का मकसद था किसानों को उनकी जमीन का सीधे अधिकार मिले. तब जमींदार इस अधिकार को छीन लेते थे. हालांकि तब ये बिल पास नहीं हो पाया था. आजादी के बाद जब वो उत्तर प्रदेश की सरकार में कृषि मंत्री बने तो वो एक और बिल लेकर आए और जमींदार व्यवस्था को समाप्त कर दिया. ये उस समय का सबसे बड़ा कृषि सुधार बिल था. पिछले दिनों मोदी सरकार ने तीन कृषि कानून वापस ले लिए थे, जो कृषि सुधार के लिए लाए गए थे. ये उन कृषि सुधारों से जुड़े कानून थे, जिनके बारे में चौधरी चरण सिंह भी कई बार कह चुके थे.

दो नेताओं को कांग्रेस में कभी नहीं मिला सम्मान

लगातार 40 सालों तक कांग्रेस पार्टी का सदस्य रहने के बाद चौधरी चरण सिंह ने वर्ष 1967 में पार्टी से इस्तीफा दे दिया था और 1 साल बाद भारतीय क्रांति दल का गठन किया था. सीबी गुप्ता वर्ष 1960 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे और कहा जाता है कि उस समय इस पद के लिए चौधरी चरण सिंह पार्टी की पसंद थे. लेकिन नेहरू की वजह से ऐसा नहीं होने दिया गया. पी.वी. नरसिनम्हा राव को भी कभी कांग्रेस में वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे. प्रधानमंत्री रहते हुए और प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा होने के बाद कांग्रेस ने कभी पी.वी, नरसिम्हा राव को वो Status नहीं दिया, जो जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को दिया गया.

कांग्रेस की आंखों में क्यों चुभते थे नरसिम्हा राव?

नरसिम्हा राव के निधन को 17 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी कांग्रेस नरसिम्हा राव को उनके कार्यों के लिए श्रेय नहीं देती. आज भी कांग्रेस में आर्थिक और Telecom सुधारों के लिए राजीव गांधी को पूरा श्रेय राजीव गांधी को दिया जाता है लेकिन नरसिम्हा राव को कभी इसके लिए नेहरू गांधी खानदान ने याद नहीं किया. पी.वी. नरसिम्हा राव गांधी परिवार को इसलिए भी चुभते थे क्योंकि उन्होंने 10 जनपथ पर कभी सिर नहीं झुकाया. इसे आप 1992 के एक घटनाक्रम से समझ सकते हैं. उस समय दिल्ली हाई कोर्ट ने पुलिस द्वारा बोफोर्स घोटाले (Bofors scandal) में दर्ज की गई FIR को खारिज कर दिया था. लेकिन नरसिम्हा राव सरकार ने तय किया कि वो इस फैसले के खिलाफ कोर्ट में अपील करेगी. तब सोनिया गांधी इससे नाराज हुई थीं और उस समय की केंद्रीय मंत्री मार्गरेट अल्वा से पूछा था कि क्या नरसिम्हा राव उन्हें जेल भेजना चाहते हैं? इस उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि नरसिम्हा राव कभी भी गांधी परिवार की कठपुतली नहीं बने और इसलिए उन्हें कांग्रेस ने कभी सम्मान नहीं दिया. इसी साल 28 जून को जब Zee News ने नरसिम्हा राव के पोते एन.वी सुभाष से बात की थी तब उन्होंने बताया था कि सोनिया गांधी और कांग्रेस के कुछ नेता उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करते थे.

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