प्रदर्शन करने वालों के मन में हिंसा के बीज कहां से आते हैं? क्‍या असहमति के नाम पर हिंसा जायज है?
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प्रदर्शन करने वालों के मन में हिंसा के बीज कहां से आते हैं? क्‍या असहमति के नाम पर हिंसा जायज है?

लंदन के Institute of Psychiatry के मुताबिक.. हिंसा का सहारा लेने वाला मनोरोगी दूसरों को पीड़ा में देखकर विचलित नहीं होता है..और उसके चेहरे पर दुख के भाव भी नहीं आते हैं .

प्रदर्शन करने वालों के मन में हिंसा के बीज कहां से आते हैं? क्‍या असहमति के नाम पर हिंसा जायज है?

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मानते थे कि क्रोध और असहनशीलता समझदारी के दुश्मन होते हैं. लेकिन क्रोध और असहनशीलता में अगर हिंसा भी मिल जाए तो ये इंसानी सूझबूझ के साथ साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी खरतनाक हो सकती है. इसलिए नागरिकता संशोधन कानून (Citizenship Amendment Act) के नाम पर सड़कों पर तोड़फोड़ और हिंसा करने वाले छात्रों और प्रदर्शनकारियों के संदर्भ में सवाल ये है कि क्या छीन कर आज़ादी लेने वाले, पुलिस पर पत्थर बरसाने वाले, बसों में आग लगाने वाले और पत्रकारों पर हमला करने वाले प्रदर्शनकारियों की मनोस्थिति को स्वस्थ कहा जा सकता है?

हम इस नए कानून पर असहमति का सम्मान करते हैं. असहमत होना भी लोकतंत्र का एक हिस्सा है. लेकिन क्या असहमति के नाम पर हिंसा की जा सकती है? महान कवि खलील जिब्रान के मुताबिक जो विद्रोह.. सत्य पर आधारित नहीं होता वो एक सूखे और बेरंग रेगिस्तान में फूल खिलाने की कोशिश जैसा होता है.

विद्रोह की परंपरा के मामले में भारत एक संपन्न देश रहा है. लेकिन भारत की संस्कृति में विद्रोह का मतलब सड़कों पर पत्थरबाज़ी, आगजनी, पुलिस के साथ हाथा-पाई, देश विरोधी नारेबाज़ी और गाड़ियों में तोड़फोड़ करना नहीं है. भारत विद्रोहियों का देश रहा है, महात्मा बुद्ध से लेकर महात्मा गांधी और भगवान महावीर से लेकर डॉ भीम राव अंबेडकर तक ने...अपने-अपने ज़माने में विद्रोह किया. गांधी जी का अहिंसक विद्रोह अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ था. महात्मा बुद्ध ने मनुष्य को मन की हिंसा के खिलाफ विद्रोह करने की शिक्षा दी, संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने उस व्यवस्था का विरोध किया..जो इंसानों को बराबरी का दर्जा नहीं देती थी.

अनेकता में एकता की संस्‍कृति पर चोट
लेकिन देश के मुट्ठी भर छात्र.. विरोध और विद्रोह का जो तरीका अपना रहे हैं...उसे आप भारत की अनेकता में एकता वाली संस्कृति पर चोट कह सकते हैं .गांधी जी ने देश को सिखाया कि अपनी बात प्रेम और अहिंसा के मार्ग पर चलकर भी मनवाई जा सकती है और सत्य के लिए लड़ी गई लड़ाई धर्म , जाति और ज़मीन के लिए लड़े गए किसी भी युद्ध से जयादा पवित्र होती है.

लेकिन भारत के मुट्ठी भर छात्र आज भी.. या तो धर्म के नाम पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, या फिर किसी आतंकवादी को दी गई फांसी का विरोध कर रहे हैं, या फिर कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं . इन मुद्दों में आपको छात्रों के हित जैसी कोई बात दिखाई नहीं देगी. कई छात्र या तो. विरोधी राजनीतिक दलों का मुखौटा बनकर रह गए हैं या फिर पढ़ाई लिखाई छोड़कर सड़कों पर उतरना.. इनके वैचारिक पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है .

भारत में इस वक्त 3 करोड़ 66 लाख से ज्यादा छात्र.. अलग अलग विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई कर रहे हैं . ज्यादातर छात्र शांति प्रिय हैं...और मन लगाकर पढ़ाई करना चाहते हैं . लेकिन देश के मुट्ठी भर छात्र या तो टुकड़े टुकड़े गैंग का हिस्सा बनना चाहते हैं या फिर ये लोग असहनशीलता ब्रिगेड में अपने लिए काफी अवसर देखते हैं या फिर इन्हें छीन कर आज़ादी लेने का बहुत शौक है.

गांधी का अहिंसक आंदोलन
आज से 77 वर्ष पहले 1942 में गांधी जी के नेतृत्व में भारत में अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन..यानी Quit India Movment की शुरुआत की गई थी. गांधी जी ने प्रत्येक भारतीय से.. इस अहिंसक आंदोलन में हिस्सा लेने का आह्वान किया था . तब लोग ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे और अहिंसक तरीके से अपना विरोध दर्ज करा रहे थे .

गांधी जी के नेतृत्व में हज़ारों स्वतंत्रता सेनानियों ने आज़ादी को अपना हक मानकर अहिंसक तरीके से अंग्रेज़ों का विरोध किया. देश के ज्यादातर लोगों ने अंग्रेज़ों से भी आज़ादी छीनने की कोशिश नहीं की बल्कि सिर्फ उन्हें ये एहसास कराया कि वो भारत के साथ गलत कर रहे हैं. लेकिन आज कुछ छात्रों ने आज़ादी के मायने बदल दिए हैं...ये छात्र हिंसा का सहारा लेकर आज़ादी को छीनने के नारे लगा रहे हैं..सवाल ये है कि जब देश 72 साल पहले आज़ाद हो गया था..तो फिर इन छात्रों को कौन सी आज़ादी चाहिए?

क्या इन्हें संसद द्वारा बनाए गए कानूनों से आज़ादी चाहिए ?, क्या इन्हें सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाए गए फैसलों से आज़ादी चाहिए? क्या इन्हें व्यवस्था बनाए रखने वाले कानूनों से आज़ादी चाहिए? क्या इन्हें आतंकवादियों के समर्थन में नारे लगाने की आज़ादी चाहिए ? क्या इन्हें बसें जलाने की आज़ादी चाहिए ? क्या इन्हें ट्रेनें रोकने की और शहरों को बंधक बनाने की आज़ादी चाहिए? क्या ये लोग चुनाव से आज़ादी चाहते हैं? अगर ये छात्र इसी आज़ादी को छीनकर लेना चाहते हैं तो आप ये मानकर चलिए कि ये छात्र आज़ादी के असली मायनों को भुला चुके हैं.

भारतीय समाज छीन कर हासिल की गई किसी भी चीज़ को सम्नान की नज़र से नहीं देखता..फिर चाहे वो किसी की ज़मीन हो..किसी के पैसे या फिर किसी का हक हो. स्‍वतंत्रता आपका अधिकार है..और इसे ना तो आप किसी से छीन सकते हैं और ना ही कोई इसे आपसे छीन सकता है.

लेकिन प्रदर्शन करने वालों के मन में हिंसा के ये बीज आते कहां से हैं ? आखिर जिस काम को शांति से पूरा किया जा सकता है..उसे कुछ प्रदर्शनकारी हिंसा के सहारे क्यों पूरा करना चाहते हैं.

हिंसा का सहारा लेने वाला मनोरोगी दूसरों को पीड़ा में देखकर विचलित नहीं होता
लंदन के Institute of Psychiatry के मुताबिक.. हिंसा का सहारा लेने वाला मनोरोगी दूसरों को पीड़ा में देखकर विचलित नहीं होता है..और उसके चेहरे पर दुख के भाव भी नहीं आते हैं . जबकि सामान्य लोग जब हिंसा के दृश्य देखते हैं तो उनके मस्तिष्क का एक विशेष हिस्सा सक्रिय हो जाता है और उनके चेहरे की नसों तक खून पहुंचाने लगता है..जिससे उनके चेहरे पर दुख के भाव आते हैं. लेकिन एक हिंसा प्रेमी के साथ ऐसा नहीं होता है .

अमेरिका में प्रदर्शनकारियों पर किए गए एक रिसर्च के मुताबिक...हिंसा का सहारा लेने वाले प्रदर्शनकारी मीडिया की नज़रों में आने के लिए ऐसा करते हैं . हिंसक तरीकों में लोगों को जबरदस्ती रोकना, ट्रैफिक को बाधित करना, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना और सुरक्षा कर्मियों के साथ हाथा-पाई करना शामिल है. मनोवैज्ञानिक ये भी मानते हैं कि भीड़ की एक मानसिकता होती है और भीड़ सही और गलत का फैसला नहीं ले पाती और ऐसी भीड़ को..लोगों को हिंसा का शिकार बनाने में आनंद आता है .

हिंसक प्रदर्शनकारी राजनीति, क्षेत्रवाद, धर्म, जाति और तुष्टिकरण जैसे मुद्दों से प्रभावित होते हैं और इनका दिमाग सही और गलत की पहचान नहीं कर पाता है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान हुए प्रदर्शनों पर गौर करें तो एक बात साफ हो जाती है कि प्रदर्शनकारियों के दिमाग में ज्यादातर वक्त धर्म और जाति के मुद्दे हावी रहते हैं.

इसी तरह क्षेत्रवाद भी प्रदर्शनकारी को हिंसा के लिए उकसाता है. भाषा और पहचान के मुद्दे भी प्रदर्शनकारी अक्सर उग्र हो जाते हैं और इन्हें हिसा का सहारा लेते हुए कोई संकोच नहीं होता. इसके अलावा आरक्षण और Universities द्वारा बढ़ाई गई फीस के मुद्दे भी प्रदर्शनकारियों के दिमाग में उस हिस्से को सक्रिय कर देते हैं जो हिंसा को बढ़ाना देते हैं.

इसके अलावा प्रदर्शनकारियों में अब एक बड़ा बदलाव भी देखने को मिल रहा है. अब प्रदर्शनकारी सरकार के लगभग सभी फैसलों का विरोध करते हैं. चाहे ये फैसले कश्मीर के संदर्भ में हो, आतंकवाद के खिलाफ, या फिर किसी नए कानून को लेकर. इसके अलावा प्रदर्शनकारी अभिव्यक्ति की आज़ादी और असहनशीलता के नाम पर भी हिंसक होने लगे हैं . अब आप खुद सोचिए..जिस देश में प्रदर्शन के नाम पर सिर्फ वैचारिक प्रदूषण फैलाया जाएगा..उस देश के प्रदर्शनकारियों के दिमाग में आदंलोन की आग नहीं सिर्फ हिंसा की आग जलती है.

ये सब भारत में आज से नहीं हो रहा...बल्कि देश का नुकसान करने वाली इस राजनीति के बीज..कई वर्ष पहले ही बो दिए गए थे. आध्यात्मिक गुरू ओशो ने आज से करीब 50 वर्ष पहले अपने एक आख्यान में बताया था... कि कैसे राजनीति करने वाले कुछ छात्र... बाकी छात्रों को भी वैज्ञानिक दृष्टि हासिल करने से रोकते हैं... जीवन भर सिर्फ राजनीति करते रहते हैं और फिर बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर प्रदर्शन करते हैं.

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