येदियुरप्पा के भाषण में सिर्फ किसान पर जोर के मायने
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येदियुरप्पा के भाषण में सिर्फ किसान पर जोर के मायने

पारंपरिक रूप से यह देश कृषि प्रधान ही रहा. आज भी देश में आधी से ज्यादा आबादी किसानों की ही है. उनके लिए दूसरा विकल्प न होने के कारण वे किसानी करने को ही मजबूर बने रहे. इसीलिए आजतक देश का यही तबका सबसे बड़ा है. 

येदियुरप्पा के भाषण में सिर्फ किसान पर जोर के मायने

कर्नाटक विधानसभा में येदियुरप्पा के भाषण से कर्नाटक प्रकरण के रोमांच का अंत हो गया. येदियुरप्पा ने इस्तीफा दे दिया. और सबका पूरा ध्यान अगली सरकार और उसकी स्थिरता के विश्लेषण में लग गया. लेकिन कल के येदियुरप्पा के भाषण का एक पक्ष और था. उनका पूरा भाषण किसान और गांव केन्द्रित था. इस हद तक था कि भाषण का अंत भी उन्होंने यह कह कर किया कि वे अब अपना सारा जीवन किसानों के लिए काम करने में लगाना चाहते हैं. वैसे तो किसान राजनीतिक भाषणों का हिस्सा हमेशा से रहता आया है. लेकिन पिछले कुछ समय से ये मुद्दा प्राथमिकताओं में उपर दिखने लगा है. और विल्कुल नई ताजी घटना में कल पूरे देश में कुतूहल के साथ सुने जा रहे येदियुरप्पा के भाषण में यह इकलौता विषय बन गया. इस बात का आगा पीछा देखने की जरूरत है.

कितना महत्त्वपूर्ण रहा किसान अब तक
इतिहास पर नज़र डालेंगे तो दिख जाएगा कि आजादी के बाद कृषि ही सरकारों की प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रहा करती थी. सन 47 में आजादी मिलते ही नीति निर्माताओं के सामने पहली प्राथमिकता पर्याप्त खाद्य सामग्री के इंतजाम करने की ही रही थी. पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत से ही पहला लक्ष्य खाद्य उत्पादन में आत्म निर्भर बनना था. पहली पंचवर्षीय योजना में तो सबसे ज्यादा रकम भी कृषि को दी गई थी. तब से अबतक सात दशक गुजर चुके हैं. इन दशकों में देश के विकास और वृद्धि के साथ कृषि और किसान की अपनी अलग यात्रा रही है. हम शुरुआत में खुद को कृषि प्रधान देश मान कर चले थे. लेकिन बीच में विकास और वृद्धि की दौड़ में कृषि कहीं छूटती चली गई. अनाज उत्पादन में आत्म निर्भरता तो काफी पहले हासिल कर ली गई थी, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में अनाज के उत्पादक ने ज्यादा कीमत चुकाई बल्कि काफी हद तक

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उसी की कीमत पर हम सस्ता अनाज बाकी की आबादी को मुहैया कराते चले आए. हालांकि किसानों ने कभी ज्यादा चाहा भी नहीं, और वे कम को ही अपनी नियति मान कर जीते रहे. किसानों और कृषि की बातें राजनीति का हिस्सा फिर भी बनती रहीं लेकिन प्राथमिकता की सूची में किसान और कृषि नीचे आते चले गए. लेकिन अभी कुछ समय से राजनीतिक भाषणों में किसान जिस प्रमुखता से नजर आ रहा है उससे लग रहा है कि कृषि पर ध्यान वापस लाने की जरुरत महसूस होने लगी है. किसान का फिर प्राथमिकताओं में आ जाना किन कारणों से हो सकता है इसका विश्लेषण दिलचस्प हो सकता है.

आबादी के लिहाज से बड़ा वोट बैंक
पारंपरिक रूप से यह देश कृषि प्रधान ही रहा. आज भी देश में आधी से ज्यादा आबादी किसानों की ही है. उनके लिए दूसरा विकल्प न होने के कारण वे किसानी करने को ही मजबूर बने रहे. इसीलिए आजतक देश का यही तबका सबसे बड़ा है. इसीलिए चुनावी राजनीति में महत्वपूर्ण है. लेकिन गौर करने की बात यह है कि पिछले दशकों में किसान इतनी ज्यादा दयनीय स्थिति में कभी नहीं देखे गए थे. आज ऐसे हालात हैं कि उनके उत्पाद की लागत तक नहीं निकल पा रही है. अब वे मुखर हो चले हैं. अब तक भले ही जातिधर्म या क्षेत्र की अस्मिता में उलझे रहे हों लेकिन अब उन मुद्दों को दरकिनार कर किसान अपने अस्तित्व को लेकर चिंता में हैं. देश की आधी से ज्यादा आबादी की यह चिंता राजनीति से छूट कैसे सकती है.

किसान की चिंता का नया रूप
किसानों ने देश को खाद्य उत्पादन में आत्म निर्भर बनाने में अपनी पूरी भूमिका निभाई थी. हरित क्रांति में जिन नई तकनीकों, बीजों, खाद आदि के इस्तेमाल के सुझाव सरकार देती गई किसान उसे अपनाते गए. फायदा भी हुआ. लेकिन उससे किसान की उत्पादन लागत बढ़ गई. इससे कृषि उत्पाद का दाम बढ़ना लाजिमी था. देश के ग़रीब गैरकिसान तबके के लिए मुश्किल खड़ी होने लगी. इसलिए कृषि उत्पाद के दाम कम करने के उपाय सोचे जाने लगे. यह समस्या किसी सरकार की नहीं बल्कि पक्ष विपक्ष दोनों के लिए चिंता का सबब बनी. भले ही किसान को समर्थन मूल्य देने के जरिए इस दुविधा से निपटा गया हो लेकिन इस समय तो समर्थन मूल्य से भी किसान को राहत पहुंचती नहीं दिखती. इसीलिए किसानों पर आज के अपूर्व संकट पर राजनीतिक चिंता नए रूप् में है.

किसानों के लिए क्या कर पाएगी राजनीति
यहां निष्कर्ष निकालने में कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए कि इस समय किसान और गैर किसान तबके की आमदनी में भारी अंतर आ गया है. ये बिल्कुल हो सकता है कि जो किसानी के अलावा दूसरा काम कर रहे हैं उन्हें भी अपने काम का कम दाम मिल रहा हो लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं कि किसानों को बहुत ही कम मिल पा रहा है. यानी किसान के उत्पाद की कीमत उस रफ़्तार से नहीं बढ़ी. अपने उत्पाद के कम दाम के अलावा वह विदेशों से अनाज का आयात, कर्ज के बोझ जैसी समस्याओं से परेशान है. कोई भी आसानी से समझ सकता है कि ये सारे कारण राजनीतिक उपायों के बगैर दूर नहीं हो सकते. इसीलिए पिछले कुछ समय से किसान आन्दोलनों की संख्या और आकर बढ़ गए है. यह बात राजनीतिक दल भी समझ रहे हैं. इसीलिए उनके नारों और वायदों में अब किसान और खेती भी शामिल है. बिल्कुल नया उदाहरण येदियुरप्पा का भाषण है.

येदियुरप्पा का यह भाषण 2019 के बरक्स?
येदियुरप्पा ने किसान केंद्रित भाषण शक्ति परीक्षण के लिए आहूत बैठक में ही नहीं दिया बल्कि उसके पहले शपथ ग्रहण समारोह के फौरन बाद मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने किसानों के कर्ज माफी की बात जोर देकर कही थी. शक्ति परीक्षण के पहले ही यानी पूर्ण मुख्यमंत्री बनने के पहले ही उनका इस तरह से किसानों का जिक्र करने के पीछे क्या मंशा थी, इसके लिए अलग से विश्लेषण की जरूरत पड़ेगी, लेकिन इतना तय है कि येदियुरप्पा का इरादा भाविष्य में बीजेपी की चुनावी रणनीति का एक संकेत जरूर था. वह कौन से भविष्य की रणनीति हो सकती है? हो सकता है कि उन्हें उस समय भी यह भान रहा हो कि बहुमत सिद्ध करना मुश्किल है. अगर ऐसा ही रहा हो तो इसका एक ही अर्थ निकलता है कि वे भविष्य के लिए राजनीतिक बिसात बिछा रहे थे.

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यह तो साफ ही है कि उस समय उन्हें पता था कि वे अपना इस्तीफा राज्यपाल को देने जा रहे हैं. लिहाजा यह भी बिल्कुल साफ हो जाता है कि भाषण में किसानों का जिक्र 2019 में होने वाले आमचुनाव के हिसाब से ही था. अब क्या यह मान लिया जाए कि केंद्र में बीजेपी सरकार 2019 का चुनाव किसान और गांव के नारे पर लड़ने का मन बना रही है. अगर ऐसा ही होने वाला है तो वाकई शुभ संकेत है. इसलिए भी क्योंकि 2019 की तैयारी के लिए उसे अपने बाकी बचे कार्यकाल में किसानों के नाम कोई पार्सल भेजना पड़ेगा. देखते हैं कि क्या होता है.

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)

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