उत्तराखंड : तबाही के पीछे इंसानी फितरत
Advertisement
trendingNow156110

उत्तराखंड : तबाही के पीछे इंसानी फितरत

चारधाम यात्रा पर निकले हजारों श्रद्धालुओं और उत्तराखंड के लोगों पर बड़ी विपदा गिरी है। बाढ़ की विभीषिका ने जो कहर बरपाया है उसकी पूरी तस्वीर आनी बाकी है लेकिन टेलीविजन के दृश्यों में विनाश का जो मंजर दिखाई दे रहा है उससे वास्तविक नुकसान की कल्पना की जा सकती है।

आलोक कुमार राव
चारधाम यात्रा पर निकले हजारों श्रद्धालुओं और उत्तराखंड के लोगों पर बड़ी विपदा गिरी है। बाढ़ की विभीषिका ने जो कहर बरपाया है उसकी पूरी तस्वीर आनी बाकी है लेकिन टेलीविजन के दृश्यों में विनाश का जो मंजर दिखाई दे रहा है उससे वास्तविक नुकसान की कल्पना की जा सकती है। त्रासदी की इस घड़ी में एक-दूसरे पर दोषारोपण भी शुरू हो गया है। चूंकि इस आपदा के लिए प्रकृति को कठघरे में खड़ा करना सबसे आसान है, इसलिए, समस्या की असली जड़ को नजरंदाज करने की कोशिश भी जारी है। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की पूरी तैयारी होती और पारिस्थितिकी के चक्र से खिलवाड़ से बचा गया होता तो शायद आज यह दिल दहलाने वाली तस्वीरें हमारे सामने नहीं होती।
सवाल है कि उत्तराखंड में प्रकृति का जो कहर टूटा है, क्या उससे बचा जा सकता था? अथवा इससे हुए नुकसान को कम किया जा सकता था। इसका कोई सीधा जवाब नहीं मिलेगा। पर्यावरणविद इसे मनुष्य द्वारा लाई गई विपदा मानते हैं तो भूगर्भशास्त्रियों का मानना है कि कानून एवं दिशानिर्देशों का यदि कड़ाई से पालन किया गया होता तो विनाश इतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ होता।
इन सबके बीच वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की 18 दिसंबर 2012 को जारी अधिसूचना को देखें तो उससे पता चलता है कि मंत्रालय ने वन संरक्षण कानून 1986 के तहत भागीरथी नदी से लगे गौमुख एवं उत्तरकाशी के बीच 135 किलोमीटर के फैलाव के आस-पास नदी तट को पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया है। इस अधिसूचना को व्यवहार में लाने पर इस क्षेत्र में निर्माण की सभी गतिविधियों पर विराम लग जाएगा। राज्य सरकार इस अधिसूचना का विरोध कर रही है। सरकार का तर्क है कि अधिसूचना अगर लागू हुई तो क्षेत्र की आर्थिक प्रगति एवं विकास पर बुरा असर पड़ेगा। कहना न होगा कि अधिसूचना के लागू होने पर भागीरथी नदी से लगे 1743 मेगावाट की क्षमता वाले हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट और खासकर होटल एवं विश्रामालय के लिए होने वाले खनन एवं निर्माण बंद हो जाएंगे।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व उपमहानिदेशक वी.के.रैना के मुताबिक बादल फटने और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा को रोका नहीं जा सकता लेकिन नदियों के किनारे होने वाले निर्माण के लिए कानून का कड़ाई से पालन किया जाए तो जान एवं माल के नुकसान को कम किया जा सकता है लेकिन उत्तराखंड में निर्माण सुनियोजित नहीं हैं।

सवाल यह भी है कि क्या मौसम विभाग ने संभावित बारिश को देखते हुए उत्तराखंड सरकार के लिए कोई चेतावनी जारी की थी। क्या आपदा प्रबंधन से जुड़े अधिकारी इस तरह की आपदा से निपटने के लिए पहले से तैयार थे और क्या मानसून के समय बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों को इन जगहों पर जाने से रोका गया था? ऐसा लगता है कि हर एक स्तर पर जवाबदेही से बचा गया और विभागों के बीच कोई समन्वय नहीं था।
विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र की सुनीता नारायण का मानना है कि हिमालय क्षेत्र से लगे राज्यों को अपने विकास के मॉडल पर दोबारा से विचार करना चाहिए। सुनीता का मानना है कि लोगों की जरूरतों को देखते हुए इन क्षेत्रों में विकास की गतिविधियों पर पूरी तरह से रोक नहीं लगाई जा सकती। सुनीता के मुताबिक प्राकृतिक संसाधनों का शोषण किए बगैर विकास के अन्य तरीकों को अपनाना होगा। उत्तराखंड की विपदा को सुनीता ‘मनुष्य द्वारा लाई गई आपदा’ मानती हैं। उनका कहना है कि पारिस्थितिकी के लिहाज से अति संवेदनशील इस क्षेत्र में मैदानी भागों से अलग तरीके से विकास किया जाना चाहिए।
वहीं, कुछ अन्य पर्यावरणविदों का मानना है कि उत्तराखंड के संवेदनशील क्षेत्रों में स्थाई निर्माण नहीं होना चाहिए। प्रकृति के इस संहार से सबक लेते हुए विकास की जारी सभी परियोजनाओं की पुनर्समीक्षा और हिमालय क्षेत्र पर पड़ने वाले इनके प्रभाव का आंकलन किया जाना चाहिए।
कानून एवं नियमों को ताक पर रखकर पहाड़ियों पर वनों की कटाई और नदी तट पर बसावट आगे भी जारी रही तो भविष्य में भी इस तरह के और विनाशकारी मंजर देखने को मिलेंगे। पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों को भी विकास का हक है। लेकिन यह विकास कितना और किस रूप में हो इसका ध्यान रखना होगा।

Trending news