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रामानुज सिंह
चार धामों में से एक केदारनाथ धाम, जिसकी यात्रा करके कोई भी आस्तिक व्यक्ति खुद को धन्य समझता है। मानो उसने ईश्वर का दर्शन पा लिया हो और उसके सारे कष्ट दूर हो गए हों। हर भक्त जीवन में एक बार इस देवभूमि पर एक बार जरूर आना चाहता है। इस चाह में लाखों लोग माकूल समय का इंतजार करते हैं। इस धाम की यात्रा के लिए मई और जून का महीना उचित माना जाता है। इसी को ध्यान में रखकर लाखों श्रद्धालु दुर्गम रास्ते को पार करते हुए केदारनाथ धाम पहुंचे। लेकिन होनी कुछ और थी। प्रकृति ने अपना मूड बदला। इन पहाड़ी इलाकों में कई जगह बादल फटे जिससे मौत का सैलाब आ गया। पानी की तेज धार ने 1200 साल पुराने मंदिर के इलाके में कहर बरपाना शुरू कर दिया। जब तक लोग कुछ समझ पाते तब तक हजारों लोगों को यह सैलाब अपने साथ बहा ले गया। बचे लोग किसी तरह ऊंचे स्थान की ओर भागे। इस यात्रा पर गए हर किसी ने अपनों को खोया। नजरों के सामने माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी, पुत्र को इस जल प्रलय में दम तोड़ते देखा गया। इसके बाद इससे आई बाढ़ और भूस्खलन से सारे रास्ते अवरुद्ध हो गए। बचे लोग पहाड़ों पर जिंदगी और मौत से अभी भी संघर्ष कर रहे हैं। सरकार यथासंभव राहत और बचाव कार्य कर रही है।
सवाल यह उठता है यह त्रासदी आई क्यों? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? इसका जवाब एक दम सीधा और सरल है। जिस तरह किसी सरकार को सुचारू रूप से चलाने के लिए एक सिस्टम बनाया जाता है और उसके कुछ नियम कायदे होते हैं। अगर उसमें छेड़छाड़ होता है तो पूरा तंत्र अव्यवस्थित हो जाता है। अराजकता फैल जाती है। उसी तरह प्रकृति के भी अपने नियम कायदे हैं। उसमें छेड़छाड़ होने से उसका विकट रूप उत्तराखंड की त्रासदी के रूप में सामने आता है। बेमौसम बरसात, बाढ़, भूकंप, ग्लोबल वार्मिंग जैसे प्राकृतिक आपदाओं से रू-ब-रू होना पड़ता है।
पृथ्वी के सबसे बुद्धिमान प्राणी मानव ने अपने भौतिक सुखों के लिए प्रकृति का जमकर दोहन किया। अन्य जगहों की भांति उत्तराखंड में लोगों ने प्रकृति का दोहन किया। बिजली बनाने के लिए नदियों की धाराओं को रोककर बांध बनाए। अभी और 427 बांध बनाने हैं, इनमें से 100 बंधों पर काम चल रहा है। इन परियोजनाओं के लिए पहाड़ों को छलनी कर दिया गया। जंगलों की अंधाधुंध कटाई की गई। उत्तराखंड में 1970 में 84.9 फीसदी जंगल थे। 2000 में घने जंगल 75.4 फीसदी बचे। एक अनुमान के अनुसार, यह 2100 तक 34 फीसदी रह जाएगा। इसके अलावे सड़क और अन्य निर्माण कार्यों के लिए पहाड़ों को विस्फोटों से तोड़ा गया। जिससे रिक्टर स्केल पर चार तीव्रता का भूकंप होता है। इससे भूस्खलन में बढ़ोतरी होती है। साथ ही पहाड़ों में अवैध तरीकों से खनन होता है। इतना ही नहीं इस निर्जन स्थान पर भूमाफिया, बिल्डरों, ठेकेदारों, नेताओं और नौकरशाहों के गठजोड़ द्वारा लगातार अपने हितों की पूर्ति के लिए बिना किसी सुरक्षा मानकों की चिंता किए अपार्टमेंट और होटलों का निर्माण किया गया। इन इलाकों में बस्तियां बसने से तापमान और प्रदूषण में वृद्धि हुई, जो बादल फटने और ग्लेशियर पिघलने का कारण बना।
विशेषज्ञों की मानें तो उत्तराखंड को सबसे ज्यादा नुकसान जल विद्युत परियोजनाओं ने पहुंचाया है। एक बांध के लिए 5 से 25 किलोमीटर लंबी सुरंगें बनाने लिए विस्फोटों का सहारा लिया गया। यह विस्फोट भूस्खलन के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है। विशेषज्ञों ने बताया कि बांधों के निर्माण के लिए पहाड़ों पर किए जा रहे बेतहाशा डायनामाइट विस्फोटों से जर्जर हो चुके पहाड़ों की भीतरी जलधाराएं रिसने लगी है। इससे पेड़ों को मिलने वाली नमी कम हो गई है। जिससे पहाड़ों की हरियाली घट रही है। इसलिए विस्फोटों पर सख्ती से रोक लगनी चाहिए। इसके अलावे उन्होंने बताया, उत्तराखंड का विकास मॉडल भी पहाड़ों के अनुरूप नहीं है। अगर इस मॉडल को नहीं बदला गया तो ऐसी आपदाएं आगे भी होंगी।
जगद्गुरुशंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने उत्तराखंड में आई भीषण प्राकृतिक आपदा का मूल कारण गंगा के साथ खिलवाड़ को बताया है। वह मानते हैं कि विकास के नाम पर बड़े-बड़े बांध, सुरंग और नहर परियोजनाएं निर्मित की गई हैं, इन्हीं कारणों से हिमालय पर जलप्रलय आया है। इन्होंने महाकुंभ के अवसर पर प्रयाग में कहा था, ‘केंद्रीय और प्रांतीय शासन तंत्र नहर-बांध एवं सुरंग परियोजनाओं के माध्यम से प्रकृति से छेड़छाड़ कर रहा है। एक दिन प्रकृति अपना बदला जरूर ले लेगी’।
जरूरत इस बात की है कि आपदा से सचेत होकर प्रकृति से हो रहे छेड़छाड़ को रोका जाए। पहाड़ी प्रदेशों के अधिक भीड़-भाड़ वाले शहरों और पहाड़ पर बसे शहरों के प्रदूषण और तापमान का बराबर अध्ययन किया जाए। पहाड़ों के अवैध खनन पर रोक लगाई जाए। भू-स्खलन वाले स्थानों को चिन्हित किया जाए। चिन्हीकरण के आधार पर इन क्षेत्रों में लोगों को जाने से रोका जाए। जो लोग इन इलाकों में बसे हैं उन्हें दूसरी जगह बसाया जाए। पहाड़ी क्षेत्रों में हो रहे निर्माण कार्य को रोककर उनके लिए प्रकृति के अनुकूल अलग से नीति बनाई जाए। इस संबंध में जो नियम-कानून हों उनका सख्ती से पालन कराया जाए। प्रकृति हमारी मां है। हम उनके बच्चे हैं। उनकी छांव में सुखी पूर्वक जीवन यापन करने के लिए उन्हें बचाना जरुरी है। इसलिए सरकार के साथ-साथ हम सभी का कर्तव्य बनता है कि अपनी मां (प्रकृति) की रक्षा करें।