खलनायकी में बसता था प्राण का `प्राण`
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खलनायकी में बसता था प्राण का `प्राण`

भारतीय सिने जगत में प्राण एक ऐसे खलनायक थे जिन्होंने 50 और 70 के दशक के बीच फिल्म उद्योग पर खलनायकी के क्षेत्र में एकछत्र राज किया और अपने अभिनय का लोहा मनवाया। प्राण के स्वाभाविक अभिनय और प्रतिभा की पराकाष्ठा ही थी कि 70-80 के दशक में लोगों ने अपने बच्चों का नाम प्राण रखना बंद कर दिया था।

रामानुज सिंह
भारतीय सिने जगत में प्राण एक ऐसे खलनायक थे जिन्होंने 50 और 70 के दशक के बीच फिल्म उद्योग पर खलनायकी के क्षेत्र में एकछत्र राज किया और अपने अभिनय का लोहा मनवाया। प्राण के स्वाभाविक अभिनय और प्रतिभा की पराकाष्ठा ही थी कि 70-80 के दशक में लोगों ने अपने बच्चों का नाम प्राण रखना बंद कर दिया था। प्राण ने अपने जमाने की मशहूर हिंदी फिल्मों में खलनायक की जबरदस्त भूमिका निभाई थी, वह अपने किरदार के चित्रण में इस कदर प्रवीण थे कि दर्शकों में उनकी छवि नकारात्मक बन गई थी। इस दौरान उन्होंने जितने भी फिल्मों में रोल किया उसे देखकर ऐसा लगा कि उनके द्वारा अभिनीत पात्रों का किरदार केवल वे ही निभा सकते थे।
तिरछे होंठो से शब्दों को चबा-चबा कर बोलना सिगरेट के धुंओं का छल्ले बनाना और चेहरे के भाव को पल पल बदलने में प्रवीण प्राण ने उस दौर में खलनायक को भी एक अहम पात्र के रूप में सिने जगत में स्थापित कर दिया। खलनायकी को एक नया आयाम देने वाले प्राण के पर्दे पर आते ही दर्शकों के अंदर एक अजीब सी सिहरन होने लगती थी।
प्राण की अभिनीत भूमिकाओं की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जितनी भी फिल्मों मे अभिनय किया उनमें हर पात्र को एक अलग अंदाज में दर्शकों के सामने पेश किया। रूपहले पर्दे पर प्राण ने जितने रोल किए उनमें वह हर बार नए तरीके से संवाद बोलते नजर आए। खलनायक का एक्टिंग करते समय प्राण उस रोल में पूरी तरह डूब जाते थे। उनका गेट अप अलग तरीके का होता था। दुष्ट और बुरे आदमी का रोल निभाने वाले प्राण ने अपने सशक्त अभिनय से अपनी एक ऐसी छवि बना ली थी कि लोग फिल्म में उसे देखते ही धिक्कारने लगते थे। इतना ही नहीं उनके नाम प्राण को बुरी नजर से देखा जाता था और शायद ही ऐसा कोई घर होगा जिसमें बच्चे का नाम प्राण रखा गया हो।
वर्ष1920 के फरवरी महीने में पुरानी दिल्ली के बल्लीमरान मुहल्ले में केवल कृष्ण सिकंद के घर पैदा हुए प्राण का पूरा नाम `प्राण किशन सिकंद` था, लेकिन फिल्म जगत में वह प्राण नाम से ही मशहूर थे। उनके शुरुआती जीवन के कुछ वर्ष और शिक्षा उत्तर प्रदेश और पंजाब के अलग-अलग शहरों में हुई।
प्राण ने अपनी पेशेवर जिंदगी की शुरुआत लाहौर में बतौर फोटोग्राफर की। साल 1940 में उनके भाग्य ने पलटा खाया, जब संयोग से उनकी मुलाकात मशहूर लेखक वली मोहम्मद वली से एक पान की दुकान पर हुई। वली ने उन्हें दलसुख एम. पंचोली की पंजाबी फिल्म `यमला जाट` में रोल दिलाया। उसके बाद वे पीछे मुड़कर नहीं देखे। सन 1940 में प्राण को पहला ब्रेक यमला जट में मिला। पहली फिल्म का ऑफर लाहौर में मिलने के बाद प्राण की दूसरी फिल्म थी वर्ष 1942 में आई फिल्म खानदान, जो उनकी पहली हिंदी फिल्म थी। इस फिल्म में वो नायक की भूमिका में थे और उनकी नायिका अपने जमाने की चर्चित अदाकारा नूरजहां थीं, जो उनसे उम्र में तकरीबन 15 वर्ष छोटी थीं। नूरजहां की ऊंचाई कम होने की वजह से क्लोज शॉट के दौरान उन्हें ईंटों पर खडे होकर शॉट देने पड़ते थे। वर्ष 1942 से वर्ष 1946 के दौरान प्राण ने लाहौर में 22 फिल्मों में बतौर नायक काम किया।
भारत विभाजन के बाद प्राण सपरिवार मुंबई आ गए, तब तक वह तीन बच्चों के पिता बन चुके थे। यहां प्राण को एक बड़ा मौका देव आनंद की फिल्म `जिद्दी` के रूप में 1948 में मिला और उसके बाद आगे बढ़ते गए। अपने 74 सालों के फिल्मी करियर में प्राण ने अपनी अभिनय प्रतिभा के साथ कई प्रयोग किए। उन्होंने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह के रोल किए। लेकिन नकारात्मक किरदार उनकी पहचान बनी।
प्राण ने अपने छह दशक से भी ज्यादा लंबे फिल्मी करियर में 400 से अधिक फिल्मों मे अपने अभिनय का जौहर दिखाया। वर्ष 1948 में उन्हें बांबे टाकीज की निर्मित फिल्म `जिद्दी` में बतौर खलनायक काम करने का मौका मिला। फिल्म की सफलता के बाद प्राण ने यह निश्चय किया कि वह खलनायकी को ही करियर का आधार बनाएंगे और इसके बाद प्राण ने लगभग छह दशक तक खलनायकी की लंबी पारी खेली और दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। जब प्राण रूपहले पर्दे पर फिल्म अभिनेता से बात करते होते तो उनके बोलने के पहले दर्शक बोल पड़ते यह झूठ बोल रहा है, इसकी बात पर विश्वास नहीं करना यह प्राण है इसकी रग-रग में मक्कारी भरी पड़ी है।
वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म `अदालत` में प्राण ने इतने खतरनाक तरीके से अभिनय किया कि महिलाएं हाल से भाग खड़ी हुई और दर्शकों को पसीने आ गए। 70 के दशक में प्राण खलनायक की छवि से बाहर निकलकर चरित्र अभिनेता का रोल पाने की कोशिश में लग गए। वर्ष 1967 में निर्माता-निर्देशक मनोज कुमार ने अपनी फिल्म `उपकार` में प्राण को मलंग काका का एक ऐसा रोल दिया जो प्राण के सिने करियर का मील का पत्थर साबित हुआ। फिल्म `उपकार` में प्राण ने मलंग काका के रोल को इतनी शिद्दत के साथ निभाया कि लोग प्राण के खलनायक होने की बात भूल गए। इस फिल्म के बाद प्राण के पास चरित्र रोल के ऑफर का तांता लग गया। इसके बाद प्राण ने 70 से 90 के दशक तक अपने चरित्र रोल से दर्शकों का खूब मन मोहे रखा।
1969 से 1982 तक करियर के बेतरीन काल में प्राण को फिल्म के नायक से भी ज्यादा मेहनताना दिया जाता था। उस दौर में सिर्फ राजेश खन्ना ही ऐसे हीरो थे जिन्हें प्राण से ज्यादा भुगतान मिलता था। इसी वजह से राजेश खन्ना की फिल्मों में प्राण कम नजर आए। दोनों की फीस ज्यादा होने से निर्माता उन्हें साथ लेने में हिचकते थे। `डान` फिल्म में काम करने के लिए उन्हें नायक अमिताभ बच्चन से ज्यादा रकम मिली थी।

प्राण के तीन डायलॉग काफी चर्चित रहे हैं:-
फिल्म `शराबी` में- आज की दुनिया में अगर जिंदा रहना है तो दुनिया का बटन अपने हाथ में रखना पड़ता है।
पिल्म `जंजीर` में- इस इलाके में नए आए हो साहब, वरना शेरखान को कौन नहीं जानता।
फिल्म `नास्तिक` में- मैं तेरी मौत इतनी खराब कर दूंगा कि तुझे देखकर मौत का फरिश्ता भी कांप उठे।
प्राण को फिल्मों में बेहतरीन योगदान के लिए वर्ष 2013 में दादासाहब फाल्के, वर्ष 2001 में पद्मभूषण, तीन बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। उपकार के लिए 1967, आंसू बन गए फूल के लिए 1969, बेईमान के लिए 1972 में फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजे गए, 1997 में उन्हें फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लेकिन प्राण ने 1972 में `बेईमान` फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया। वे चाहते थे कि सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार फिल्म `पाकीजा` के लिए गुलाम मोहम्मद को मिलना चाहिए था न कि फिल्म `बेईमान` के लिए शंकर-जयकिशन को।
सदी के खलनायक प्राण की जीवनी भी लिखी जा चुकी है, जिसका टाइटल `एंड प्राण` रखा गया है। पुस्तक का यह टाइटल इसलिए रखा गया है कि प्राण की अधिकतर फिल्मों में उनका नाम सभी कलाकारों के पीछे और प्राण लिखा हुआ आता था। कभी-कभी उनके नाम को इस तरह पेश किया जाता था। अबोव आल प्राण।
2007 में अंतिम बार अभिनय करने वाले प्राण इसके बाद लोगों से कट गए। मगर 2010 में अपने 90वें जन्मदिन पर प्राण में जैसे नई जिन्दगी आ गई। उन्होंने दोबारा लोगों से मिलना, पार्टियां देना और फिल्में देखना शुरू किया। उम्र के आखिरी पड़ाव में भी उनकी जिंदादिली एक मिसाल है। अब प्राण हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी फिल्में हमें उनकी मौजूदगी का ऐहसास कराती रहेंगी।

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