Mahakumbh 2025: सतयुग में ‘देव-कुंभ’ से अब तक, कैसे होती है कुंभ की सटीक गणना? धर्म, अध्यात्म और ज्योतिष के चमत्कार से विज्ञान भी हैरान!
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Mahakumbh 2025: सतयुग में ‘देव-कुंभ’ से अब तक, कैसे होती है कुंभ की सटीक गणना? धर्म, अध्यात्म और ज्योतिष के चमत्कार से विज्ञान भी हैरान!

Prayagraj Mahakumbh 2025 News: यूपी के प्रयागराज में महाकुंभ अगले महीने शुरू होने जा रहा है. क्या आप जानते हैं कि आदिकाल से कुंभ मेले के समय सटीक गणना कैसे हो रही है, जिससे वैज्ञानिक भी हैरानी में हैं.

Mahakumbh 2025: सतयुग में ‘देव-कुंभ’ से अब तक, कैसे होती है कुंभ की सटीक गणना? धर्म, अध्यात्म और ज्योतिष के चमत्कार से विज्ञान भी हैरान!

How is Kumbh Time Calculated: प्रयागराज में महाकुंभ का काउंटडाउन शुरु हो चुका है. इसके लिए अब तक का सबसे बड़ा मेला ग्राउंड तकरीबन तैयार किया जा चुका है. एक अनुमान के मुताबिक 13 जनवरी से शुरू हो रहे महाकुंभ में 40 करोड़ से ज्यादा लोग आ सकते हैं. यानी 2019 के अर्धकुंभ से दोगुने लोग प्रयागराज के संगम तट पर होंगे. ये आयोजन जितना बड़ा होता है, उतना ही बड़ा है महाकुंभ का काल रहस्य. यानी महाकुंभ के आयोजन की सटीक गणना. जब बाकी दुनिया के लोग अपना वजूद भी नहीं समझ पाए थे, तब विश्वगुरु भारत के ऋषि मनीषि अंतरिक्ष में गतिमान ग्रहों की गति साध चुके थे. ग्रहों नक्षत्रों की काल गणना से वो उत्सव का संयोग निर्धारित कर रहे थे, जिसमें आज भी धरती पर इंसानों का सबसे बड़ा जमावड़ा होता है.

असतो मा सद्गमय.
तमसो मा ज्योतिर्गमय.
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
-बृहदारण्यक उपनिषद्

बृहदारण्यक उपनिषद का ये श्लोक संगम के घाट पर साक्षात होता है, जब धरती से लाखों कोस दूर, सौरमंडल के अंधेरे से प्रकाश की एक किरण फूटती है.  ग्रहों, नक्षत्रों की गति को अपनी पुंज में समेटे वो जब किरण धरती पर साक्षात होती है. और इस तरह अंधेरे से प्रकाश और मृत्यु से अमरता की ओर एक अमूर्त सफर शुरु होता है. 

2025 में 40 करोड़ के आने का अनुमान

असत्य से सत्य की ओर बढ़ते इस पावन यात्रा को हम सनातनी, धरती पर थाम लेते हैं भव्य जश्न के साथ. इसे कुंभ कहते हैं. ऐसा जश्न और जयघोष, जो पूरी सृष्टि में कहीं और न दिखाई देता है और ना सुनाई. दुनिया देखती रह जाती है जब हिंदुस्तान की धरती के एक छोटे से टुकड़े पर कई छोटे देशों की आबादी से भी ज्यादा मानव समूह उमड़ पड़ता है. इसमें 2019 में 20 करोड़ लोग आए थे, जबकि 2025 में 40 करोड़ का अनुमान है. 

कुंभ का मतलब सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी है. वो अमत-कलश जो मानव को मोह माया की दुनिया में मोक्ष के अमृत तत्व से भरता है. मान्यता तब से जब सूर्य को माना जाता था पूरी सृष्टि को रौशनी देने वाला, कुंभ की परिकल्पना भी वहीं से शुरु होती है. हालांकि इसकी शुरुआत को लेकर वेद पुराणों में कोई स्पष्ट जिक्र नहीं मिलता, लेकिन ऋगवेद और अथर्ववेद में कुंभ शब्द और उसकी व्याख्या जरूर मिलती है. 
एक जिक्र महाभारत में जरूर मिलता है, जिसके मुताबिक, सतयुग की बात है. 12 वर्षों में पूर्ण होने वाले एक महान यज्ञ का अनुष्ठान किया गया था. उस पर्व में बहुत सारे ऋषि मुनि स्नान करने पधारे. सरस्वती नदी का दक्षिणी तट खचाखच भर गए. 

महाभारत के इस जिक्र के मुताबिक कुंभ जैसे मेले की शुरुआत धरती के पहले युग सतयुग से ही होती है. और इसमें सरस्वती के जिस दक्षिणी तट का जिक्र है. आज का प्रयाग है- गंगा यमुना और सरस्वती का संगम. धरती के इस अनूठे संगम से कुंभ की शुरुआत मानी जाती है. लेकिन ये कुंभ का सिर्फ एक अमृत-धाम है. देश में तीन ऐसी जगहें और भी हैं, जो कुंभ के लिए पावन भूमि घोषित हैं. ये जगहें हैं- प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक. इन चार जगहों पर कुंभ किस साल कब लगेगा, इसकी गणना भी सदियों पुरानी है और यही आज के विज्ञान के लिए भी बड़ी पहेली है. 

देव-असुरों ने किया समुद्र मंथन

आज का कुंभ कुंभ की ये कथा उस पौराणिक गाथा का हिस्सा है, जब देवासुर संग्राम के बाद देवताओं ने असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन किया था. क्षीर सागर के उस मंथन में 14 रत्न प्राप्त हुए थे, जिनमें से एक अमृत कलश भी था. इस अमृत कलश को हासिल करने के लिए देवताओं और असुरों में नई लड़ाई छिड़ गई. अमृत कलश की छिना छपटी पूरे 12 दिनों तक चलती रही. इसी दौरान कलश से अमृत की कुछ बूंदे धरती पर गिरी. 

अमृत कलश को लेकर 12 दिन तक चला देवता-असुर संग्राम, पौराणिक कथा का हिस्सा है. आज के युग में भले ही इस पर यकीन करना मुश्किल हो, लेकिन जिस तरह 4 शहरों में कलश छलकने की कथा और उन्हीं जगहों पर 12 साल में महाकुंभ के आयोजन की कालगणना सामने आती है, वो आज के खगोलशास्त्र की कसौटी पर पूरी तरह खरी उतरती है. ग्रहों और नक्षत्रों की ये स्थिति हमारे ऋषि मनीषियों ने तब तय कर ली थी, जब दुनिया में खगोलशास्त्र या अंतरिक्ष विज्ञान जैसी कोई घोषित विद्या थी. पहले आप इसे समझिए.

जब बृहस्पति होते हैं मेष राशि में तब हरिद्वार में होता है कुंभ. जब सिंह राशि में होते हैं बृहस्पति, तब नासिक में लगता है कुंभ. जब कुंभ राशि में आते हैं बृहस्पति, तब संगम तट पर लगता है महाकुंभ! कुंभ के बारे में ये ज्योतिषीय गणना है, आज की वैज्ञानिक गणना के मुताबिक 460 करोड़ साल पहले बनी धरती चार महाकल्पों से गुजरते हुए जीवनदायनी स्थिति में पहुंची. धऱती के इसी आखिरी महाकल्प, यानी करीब 6 करोड़ साल पहले धरती पर जीवन की पहली सुगबुगाहट हुई. 

पहले जीव से इंसानों की उत्पति तक के 6 करोड़ सालों को भी विज्ञान छोटे छोटे 4 कल्पों और 7 युगो में बांटता है. उसी काल को हमारी वैदिक गणना 4 युगो में बांटती है. 

ज्योतिषीय गणना के 4 युग

सतयुग- 4800 दिव्य वर्ष यानी 1 करोड़, 72 लाख साल.

त्रेतायुग- 3600 दिव्य वर्ष यानी 1 करोड़, 29 लाख, 60 हजार साल.

द्वापर युग- 2400 दिव्य वर्ष यानी 86 लाख 40 हजार साल. 

कलियुग- 1200 दिव्य वर्ष 4 लाख 32 हजार साल.

अमृतकलश के लिए छीना झपटी

यानी इस गणना के मुताबिक, जिस अमृतकलश के लिए देवताओं असुरों में 12 दिन तक छीना छपटी चली, वो धरती के लिए 12 बरस हो गए. इसी अंतराल पर महाकुंभ का आयोजन आज भी किया जाता है. इस गणना को समझने के लिए आपको दिव्य वर्ष के बारे में बता दें- एक दिव्य वर्ष, यानी देवताओं का साल 3600 मानव वर्ष का होता है. युगों को नापने के लिए इसे एक इकाई के रूप में इस्तेमाल किया जाता था. इसी के आधार पर एक दिव्य दिन मतलब धरती का एक साल होता है. 

ये गणना करीब 2500 साल पहले हमारे मशहूर खगोलविद और गणित शास्त्री आर्य भट्ट ने की थी. ये गणना इतनी सटीक है, इसका अंदाजा आप इस तरीके से लगा सकते हैं कि पूरे सौरमंडल में सूर्य से पृथ्वी समेत सभी ग्रहों की दूरी पर आज का स्पेस साइंस भी मुहर लगाता है. 

सूर्य को विज्ञान भी मानता है पूरे सौरमंडल की उर्जा का श्रोत, चंद्रमा को धरती का अपना हिस्सा और वहीं बृहस्पति सौरमंडल मंडल का सबसे बड़ा और धरती का सबसे बड़ा रक्षक ग्रह है. विज्ञान की भाषा में समझें, तो ये तीनों ग्रह सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का क्रम हमारे सौरमंडल में ऐसा नहीं होता, तो हमारी धरती पर जीवन का नाम ओ निशान नहीं रहता. 

कुंभ कब बन जाता है महाकुंभ?

11 महीने 27 दिन बृहस्पति का चक्र रहता है और 11 से 12 वर्ष के बीच कुंभ का योग होता है. बृहस्पति और कुंभ के इस ज्योतिषीय योग को देखें, तो पता चलता है, इस योग में ख्याल चंद्रमा और सूर्य की स्थिति का भी ध्यान रखा जाता है. लेकिन बृहस्पति सबसे ज्यादा निर्णायक होता है. इसी आधार पर कुंभ और महाकुंभ की तिथियों का निर्धारण किया जाता है. वहीं 11 कुंभों के बाद महाकुंभ का संयोग बनता है. 

अर्धकुंभ, कुंभ, और महाकुंभ,धर्म की हमारी सनातन परंपरा में ये मान्यता हमारी जांची परखी और आजमाई हुई आस्था का हिस्सा रही है. वो आस्था जो अलौकिक रूप से एक ऐसे अध्यत्म को जन्म देती है, जिसके सबसे बड़े प्रतीक के रूप में उभरा कुंभ...

(लिखित इतिहास में कुंभ मेले का पहला जिक्र मुगल काल की दो किताबों में मिलता है. 1695 में लिखी गई खुल्सात-उत-तारीख और 1759 में चाहर गुलशन के हस्तलेख में कुंभ मेले का वर्णन है. किस तरह देश के चार शहरों में कुंभ का आयोजन होता है. कुंभ के साथ जुड़ी धार्मिक आस्था और सामाजिक ताने बाने का भी जिक्र उस दौर के इतिहास में मिलता है. 

अंग्रेजों ने कुंभ में भी ढूंढ लिया बिजनेस

अब समझते हैं अलग अलग दौर में कुंभ का समाजशास्त्र. आम आदमी से लेकर साधु संतों के अखाड़े तक आस्था की डुबकी से लेकर कल्पवासी तपस्वियों तक और इस पूरे उत्सव को देखने उमड़े दुनिया भर के सैलानियों से लेकर श्रद्धालुओं तक. कुछ ऐसे घटित होता है कुंभ- एक महीने से ज्यादा तक दुनिया के साथ पूरे हिंदुस्तान का रंग ऐसे घुलता मिलता है, जैसे हिंदुस्तान की धरती का ये टुकड़ा वसुधैव कुटुंबकम का जीता जागता उदाहरण बन गया. 

ये कुंभ का जगजाहिर समाजशास्त्र है. अब समझिए सदियों के साथ इसके व्यापक होते जाने का अर्थशास्त्र. मुगलों के बाद इसकी बुनियाद पड़ती है अंग्रेजों के राज में. तब अंग्रेजों ने कुंभ में अपना मुनाफा देखकर इसका आयोजन भव्य करना शुरु किया. 1882 के कुंभ में ब्रिटिश हुकूमत ने 20,228 रु. खर्च किए थे. इसके बदले ब्रिटिश सरकार को आमदनी हुई थी करीब 50 हजार रु. ये सारा पैसा ब्रिटिश खजाने में जमा किया गया. 

अंग्रेजी राज से पहले तक कुंभ के आयोजन का एक मकसद होता था. कुंभ मेले में साधु संतो और विद्वानों के साथ विचार विमर्श के बाद सनातन समाज के लिए धर्म संबंधी फैसले लिए जाते थे. इसी कुंभ में धर्मरक्षा का भी प्रण लिया गया था. आदि शंकराचार्य का आह्वान और अखाड़ों का निर्माण इसी मकसद के साथ हुआ था. कुंभ में अखाड़ों की वो धर्मध्वजा शाही स्नान के वक्त आज भी क्या खूब लहराती है. 

महात्मा गांधी ने कुंभ मेले पर क्या कहा?

ये दृश्य पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरता है. इतनी बड़ी कि 1915 में जब महात्मा गांधी द. अफ्रीका से लौटे, तो वो भी कुंभ मेले में गए. इस साल प्रयागराज में महाकुंभ लगा था. पूरे आजादी के आंदोलन में कुंभ का आयोजन एक स्वतंत्रता संग्राम के सामूहिक संचार का केन्द्र हुआ करता था. ऐसे ही 1930 में लगे प्रयाग कुंभ का जिक्र करते हुए जवाहर लाल नेहरू कहते हैं मैंने महसूस किया कुभ नहाने आए लोगों में देश की आजादी को लेकर भी सोच भी काफी व्यापक हो चुकी थी. वही कुंभ आज इतना व्यापक हो गया है, कि इसके समाजशास्त्र लेकर अर्थशास्त्र तक हर साल एक नया रिकार्ड बनता है. 

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